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मेरी पाती [कविता] - शोभा महेन्द्रू


दिल की कलम से
लिखती हूँ रोज़
एक पाती नेह की
और तुम्हें बुलाती हूँ

पर तुम नहीं आते
शायद वो पाती
तुम तक जाती ही नहीं
दिल की पाती है ना-

ना जाने कितनी बार
द्वार खटखटाती होगी
तुम्हें व्यस्त पाकर
बेचारी द्वार से ही
लौट आती होगी

तुम्हारी व्यस्तता
विमुखता लगती है
और झुँझलाहट
उस पर उतरती है

इसको चीरती हूँ
फाड़ती हूँ
टुकड़े-टुकड़े
कर डालती हूँ

मन की कातरता
सशक्त होती है
बेबस होकर
तड़फड़ाती है

और निरूपाय हो
कलम उठाती है
भावों में भरकर
पाती लिख जाती है

ओ निष्ठुर !
कोई पाती तो पढ़ो
मन की आँखों से
देखो----
तुम्हारे द्वार पर
एक ऊँचा पर्वत
उग आया है

मेरी पातियों का
ये पर्वत--
बढ़ता ही जाएगा
और किसी दिन
इसके सामने
तुम्हारा अहम्
बहुत छोटा हो जाएगा

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20 टिप्पणियाँ

  1. और निरूपाय हो
    कलम उठाती है
    भावों में भरकर
    पाती लिख जाती है

    बेहतरीन कविता के लिए आपको बारम्‍बार बधाई

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर कविता है. वधाई.

    जवाब देंहटाएं
  3. मेरी पातियों का
    ये पर्वत--
    बढ़ता ही जाएगा
    और किसी दिन
    इसके सामने
    तुम्हारा अहम्
    बहुत छोटा हो जाएगा
    सुंदर कविता है.
    बधाई...

    जवाब देंहटाएं
  4. मेरी पातियों का
    ये पर्वत--
    बढ़ता ही जाएगा
    और किसी दिन
    इसके सामने
    तुम्हारा अहम्
    बहुत छोटा हो जाएगा

    बहुत सुन्दर

    जवाब देंहटाएं
  5. मेरी पातियों का
    ये पर्वत--
    बढ़ता ही जाएगा
    और किसी दिन
    इसके सामने
    तुम्हारा अहम्
    बहुत छोटा हो जाएगा


    सुंदर और शशक्त अभिव्यक्ती.
    बधाई

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुन्दर परिकल्पना है। अच्छी कविता।

    जवाब देंहटाएं
  7. संवेदनशील पंक्तियाँ है। बहुत अच्छी और गहरी रचना है।

    मेरी पातियों का
    ये पर्वत--
    बढ़ता ही जाएगा
    और किसी दिन
    इसके सामने
    तुम्हारा अहम्
    बहुत छोटा हो जाएगा

    जवाब देंहटाएं
  8. गहन भावपूर्ण इन सुंदर पंक्तियों ने ऐसे बांधा है कि बस क्या कहूँ......कुछ कहते नही बन रहा........

    यह भी ईश्वर की कृपा ही है कि भावों के उफानते धारा को वे लेखन के माध्यम से अभिव्यक्ति और संतोष का मार्ग दे देते हैं.

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत सुन्दर! बहुत भावपूर्ण ! परन्तु आज तक कोई ऐसा पहाड़ उगा है क्या, प्रेम का या पातियों का, जिसके सामने उसका अहम् छोटा पर जाए। अहम् को सींचना या अनदेखा करना ही उपाय जान पड़ते हैं।
    घुघूती बासूती

    जवाब देंहटाएं
  10. SHOBHA JEE,AAPKEE KAVITA MEIN
    SHOBHA HEE SHOBHA HAI.BADHAAEE.

    जवाब देंहटाएं
  11. काश:...कोई हमें भी लिखे ऐसी पाती...

    अपनी मैडम जी तो एक आध धमकी भर एस.एम.एस ही करती हैँ और अपुन हैँ कि सिर के बल चल कर उनके दरबार में तुरंत ही हाज़िर हो जाते हैँ।

    भावना से ओत-प्रोत हो लिखी गई एक सुन्दर कविता

    जवाब देंहटाएं
  12. मेरी पातियों का
    ये पर्वत--
    बढ़ता ही जाएगा
    और किसी दिन
    इसके सामने
    तुम्हारा अहम्
    बहुत छोटा हो जाएगा

    bahut sunder rachana

    जवाब देंहटाएं
  13. सुन्दर भावभरी रचना..
    स्नेह पाती को कोई रुकावट नहीं रोक सकती.. एक दिन यह जरूर अपने गंतव्य स्थल पर पंहुचेगी और हिमखंड को पिघला कर उसमें प्रेम धारा प्रवाहित कर देगी.

    जवाब देंहटाएं
  14. संवेदनाओं को भाव भरा रूप दे दिया आपने ।
    सुंदर ।

    प्रवीण पंडित

    जवाब देंहटाएं
  15. बहुत हीं सारगर्भित रचना है। कविता धीरे-धीरे असर करती है और अंतत: सम्मोहित कर जाती है।

    बधाई स्वीकारें।

    -विश्व दीपक

    जवाब देंहटाएं
  16. shobha ji ,is behatreen kavita ke liye aapko bahut badhai ..

    man ki aankho se dekho... bahut sundar upma hai ...

    bahut bahut badhai ..

    aapka
    vijay
    http://poemsofvijay.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं

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