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कोल्हू के बैल [कविता] - आलोक शंकर

अभी धुँधलका है
पगडंडी पर बिछी
ओस बिखराते चतुष्पद
फ़िर चले
एक वृत्त रचने-

पुटठों पर लदा
बोझ , आदत-
वलक्ष काया पर लिखी
कोड़े की फ़ितरत
पगहे से रिसता जूट का स्वाद
त्वचा में चुभतीं पसलियाँ
फ़िर भी-
अप्रतिहत, अनवरत चलते पाँव-

सर्वविदित,
तथ्य,
कोल्हू ऐसे ही चलता है
बूँद भर
तेल बनाने को
पाव भर
खून जलता है

रचनाकार परिचय:-


आलोक शंकर का जन्म रामपुरवा बिहार में २५ अक्तूबर १९८३ को हुआ। 

आपने विकास विद्यालय रांची में बारहवी तक पढाई करने के पश्चात कोचीन यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी से सूचना प्राद्यौगिकी में अभियांत्रिकी का अध्य्यन किया है| वर्त्तमान में आप बेंगलुरु में सिस्को सिस्टम्स में सॉफ्टवेर इंजिनियर के रूप में कार्यरत हैं| 

आप विभिन्न कवि सम्मेलनों , मुशायरों में काव्य पाठ करने के अलावा रेडियो और विभिन्न वेब साईट पर कवितायें प्रसारित - प्रकाशित करते रहे हैं।

लिप्सा का एक केन्द्र
त्रिज्या में बँधे- अन्यथा कूष्माण्ड,
परिधि पर लिखते रह्ते
स्वेद का व्यक्तित्त्व-
कोल्हू ऐसे ही तो चलता है!!

दिनात्यय पर,
गिनता है कोई
परिधि बनाते बिंदुओं को ?
मृत्तिका पर लिखी-
डंडे की चोट पर भागती- पशु-प्रवृत्ति
बेमानी है,
असल बात तो यह है
कि
एक पसेरी तेल निकला।

वृत्त फिर भी चलता है-
और
पास ही खड़ा
डंडे मारता
आदमी
समझता है -
वह नहीं बँधा कोल्हू में ।

एक टिप्पणी भेजें

16 टिप्पणियाँ

  1. बस, यही तो आभास है..

    बहुत उम्दा और गहरी रचना के लिए हार्दिक बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  2. वृत्त फिर भी चलता है-
    और
    पास ही खड़ा
    डंडे मारता
    आदमी
    समझता है -
    वह नहीं बँधा कोल्हू में

    जिस तन लागे ...वोही तन जाने

    गहराई लिए एक बेहतरीन रचना

    जवाब देंहटाएं
  3. वृत्त फिर भी चलता है-
    और
    पास ही खड़ा
    डंडे मारता
    आदमी
    समझता है -
    वह नहीं बँधा कोल्हू में ।

    सही दृष्टिकोण में प्रस्तुत किया है आपनें।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत बढिया रचना है।बधाई।

    वृत्त फिर भी चलता है-
    और
    पास ही खड़ा
    डंडे मारता
    आदमी
    समझता है -
    वह नहीं बँधा कोल्हू में ।

    जवाब देंहटाएं
  5. The poem relates to every one.

    Alok Kataria

    जवाब देंहटाएं
  6. बात सही है। आदमी कोल्हू का बैल हो गया है लेकिन गफ़लत का कोई क्या करे। सुन्दर रचना।

    जवाब देंहटाएं
  7. आलोक जी आप अभी भाषा से भी प्रभावित करते हैं। कविता आपकी भाषा में जी उठती है।

    वृत्त फिर भी चलता है-
    और
    पास ही खड़ा
    डंडे मारता
    आदमी
    समझता है -
    वह नहीं बँधा कोल्हू में ।

    ये पंक्तियाँ सच बोल रही हैं।

    ***राजीव रंजन प्रसाद

    जवाब देंहटाएं
  8. आलोक की कविता आलोकित करती है। कविता पर कोई टिप्पणी नहीं बस इतना ही कि हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है।

    जवाब देंहटाएं
  9. दिनात्यय पर,
    गिनता है कोई
    परिधि बनाते बिंदुओं को ?
    मृत्तिका पर लिखी-
    डंडे की चोट पर भागती- पशु-प्रवृत्ति
    बेमानी है,
    असल बात तो यह है
    कि
    एक पसेरी तेल निकला।

    बहुत अच्छे बंधु। कलम की सेवा जारी रखें।

    जवाब देंहटाएं
  10. भाषा प्रभावशाली है। कविता प्रशंसनीय।

    जवाब देंहटाएं
  11. उत्कृष्ट रचना!

    आलोक जी आपको आपके अंदाज़ में देखकर खुशी हुई।

    बधाई स्वीकारें!

    -विश्व दीपक

    जवाब देंहटाएं
  12. Aap sabhi ka bahut shukriya, isi tarah hausla badhate rahiye

    http://alokshankar.tk

    जवाब देंहटाएं
  13. gahrai liye hue rachna likhi hain apne
    shbd bahut sarthak istemal kiye gaye hain
    bahut achhi lagi
    ye rachna kavu sammelan.org par bhi padi thi badiya lekhan or anusharan karne layak shaili hain

    जवाब देंहटाएं

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