कई बार हम गीत या ग़ज़ल में ऐसी वस्तु की विशेषता का बखान करते हैं जिसकी कतई आवश्यकता नहीं होती है। विशेषण से रची-बसी वस्तु के साथ विशेषण लगाना मानो उसकी सुंदरता को क्षीण समझना है। विशेष्य के साथ विशेषण जोड़ने से गीत या ग़ज़ल का प्रसाद गुण मर जाता है। गुड़ का गुण है कि वह मीठा होता है इसलिए उसके साथ मीठा लिखना अनावश्यक है। जब मैंने लिखना शुरू किया था तब गीत-ग़ज़ल की किसी पंक्ति को चमत्कृत बनाने की मेरी लालसा मेरे मन और मस्तिष्क को घेरे रहती थी। परिणामस्वरूप मैंने सोचे समझे बिना ऐसी काव्य पंक्तियाँ रचीं जिनमें अनुपयुक्त और अनावश्यक विशेषण 'एक म्यान में दो तलवारें' के समान थे। दो उदाहरण-
तुम्हारी बुरी दुर्दशा देखकर
लगा मुझको जलता हुआ कोई घर
जल रहा है मेरा मन यूँ प्यार में
गर्म अगनी में जले ज्यों कोयला
लेखक परिचय:-
प्राण शर्मा वरिष्ठ लेखक और प्रसिद्ध शायर हैं और इन दिनों ब्रिटेन में अवस्थित हैं।
आप ग़ज़ल के जाने मानें उस्तादों में गिने जाते हैं। आप के "गज़ल कहता हूँ' और 'सुराही' - दो काव्य संग्रह प्रकाशित हैं, साथ ही साथ अंतर्जाल पर भी आप सक्रिय हैं।
कालांतर में अभ्यास से ही मैं जान पाया कि 'विद्वान' के साथ 'पढ़ा-लिखा', 'कोयल' के साथ 'काली', दुर्दशा के साथ बुरी जैसे अनुपयुक्त और अनावश्यक विशेषण लिखना कितनी बड़ी भूल है! विशेषण की उपयोगिता पर रामधारी सिंह दिनकर 'कविता की परख' में लिखते है- 'जहाँ यह जानने की आवश्यकता हो कि दो कवियों में से कौन बड़ा और कौन छोटा है, वहाँ यह देख लो कि दोनों में से किसने कितने विशेषणों का प्रयोग किया है तथा किसके विशेषण प्राणवान और किसके निष्प्राण उतरे हैं? 'कैसे कंटक बीच मनोरम कोमल कुसुम रहा होगा।' विशेषण प्रयोग की दृष्टि से यह कविता निकृष्ट कोटि की है क्योंकि कुसुम (यदि केतकी और नागफनी को ध्यान में न रखें) तो कोमल और मनोरम होता ही है। फिर उसे अलग से कोमल और मनोरम कहने में नवीनता की क्या बात हुई?
हरिवंश राय बच्चन की 'मधुशाला' की रुबाइयों में उर्दू शायरी की लगभग सभी विशेषताएं विद्यमान हैं लेकिन उसमें भी कहीं-कहीं विशेषण का अनावश्यक प्रयोग है। 'मधुशाला' के साथ 'मधुमय' का प्रयोग करना 'शहद' के साथ 'मीठा' लिखने के समान है। 'मधुमय' का अनावश्यक प्रयोग देखिए-
पास नहीं खींचा जिसने
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की
उसने मधुमय मधुशाला
कहावत है खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग पकड़ता है सो अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों की रचनाओं से प्रभावित कुछेक हिंदी ग़ज़लकार उपर्युक्त दोष से मुक्त नहीं हो पाए हैं। सचेष्टता और अभ्यास का अभाव तो है ही उनमें। एक दो उदाहरण हैं। रमा सिंह का शेर है-
शाम का धुँधला धुआँ
और रात की ये सलवटें
दिल के आँगन में तड़पती
बिजलियाँ आती रही
'धुआँ के साथ 'धुँधला' का लिखना आवश्यक नहीं है। धुआँ तो होता ही धुँधला है।
चलती आँधी में अब फिर से
भेज न मन के पंछी को
माना पहले बच पाया है
दोबारा दम तोड़ न दे- कुँअर बेचैन
'आँधी' का काम ही चलना है। उसे अलग से 'चलती' कहना अनुपयुक्त है। शेर में 'दोबारा' का प्रयोग ही पर्याप्त था। 'फिर से' लिखने की आवश्यकता नहीं थी। एक ही अर्थ के दो शब्दों का प्रयोग अखरता है। शेर यूँ होता तो उपयुक्त लगता-
आँधी झक्कड़ में दोबारा
भेज न मन के पंछी को
अब की बार गया तो शायद
बेचारा दम तोड़ न दे।
------------------------------------
फालतू शब्दों का प्रयोग
अशआर में अनावश्यक विशेषण के प्रयोग के अतिरक्त 'फ़ालतू' या 'भरती' के शब्द भी देखने को मिलते हैं। छंद को निबाहने के लिए ही शेर में 'फ़ालतू' शब्द का प्रयोग किया जाता है। लेकिन इससे शेर का सौंदर्य बिल्कुल नहीं रहता है। उसमें 'फ़ालतू' शब्द का प्रयोग वैसे ही है जैसे कोई तन पर फ़ालतू कपड़े पहन ले या फ़ालतू खा-पी ले। हुल्लड़ मुरादाबादी का मिसरा है-
खोज रोटी की बड़ी है
उस खुदा की खोज से
यहाँ 'उस' शब्द भरती का है। सिर्फ 'ख़ुदा' कहना पर्याप्त था। 'उस ख़ुदा' से कवि का संकेत किस ख़ुदा की ओर है? क्या उसकी दृष्टि में अनेक ख़ुदा हैं? मिसरा नपा-तुला लगता यदि वह यूँ लिखा जाता-
खोज रोटी की बड़ी है
ईश्वर की खोज से
शेर में फालतू शब्द का एक और उदाहरण देखिये; जनाब अरमान गाजीपुरी का शेर है--
जिस शहर में रहता है वो महबूब हमारा
उस शहर का लोगों से पता माँग रहा है
शेर के पहले मिसरे में प्रयुक्त "वो" शब्द फालतू है यानी भरती का है। क्या शायर के शहर में भी उसका कोई और महबूब है? शेर यूँ होता तो अच्छा लगता--
जिस शहर का वासी है मेरा यार अनोखा
उस शहर का लोगों से पता माँग रहा है
वर्षा सिंह का मिसरा है-
इस काल की कारा में
जब जो भी यहाँ आया
'यहाँ' शब्द फ़ालतू है। 'इस काल की कारा में जब जो भी आया' अपने आप में पूर्ण पंक्ति थी।
व्याकरण का नियम है कि जब भी किसी काव्य-पंक्ति में दो क्रियाओं का प्रयोग किया जाता है तो पूर्वकालिक क्रिया (पंक्ति में पहले से प्रयुक्त हुई क्रिया) के साथ 'कर' या 'के' लगाया जाता है। मसलन-
मिरे सामने जो पहाड़ था
सभी सर झुका के चले गए- बशीर बद्र
चूँकि उपर्युक्त मिसरे में दो क्रियाओं (झुकाना और चले जाना) का प्रयोग हुआ है; इसलिए पूर्वकालिक क्रिया 'झुकाना' के साथ 'के' लगाना अनिवार्य हो गया है। यह बात ध्यान रहे कि पूर्वकालिक क्रिया के साथ दो बार 'कर' या 'के' यानी 'सोकर के' लिखना भारी भूल है। इस दोष की शिकार कुछेक पंक्तियाँ हैं-
गर्क़ होना है मुझको होने दे
डूबकर के उभर के देखूँगा- शलभ श्रीराम सिंह
शलभ श्रीराम सिंह अपने ऊपर लिखित शेर में 'उभर के' का सही प्रयोग करते हैं लेकिन 'डूबकर के' का ग़लत प्रयोग। 'डूब करके' का 'के' फ़ालतू है।
अब बुढ़ापे में जोश लेकर के
पर्वतों को है छल रहा सूरज- विनीता गुप्ता
विनीता गुप्ता के शेर में भी 'लेकर के' का प्रयोग सही नहीं है। 'लेकर' ही पर्याप्त है। हरिवंश राय बच्चन की रुबाइयों में ऐसी कई पंक्तियाँ हैं जो किसी शेर से कम नहीं हैं। इस दोष से वह भी बच नहीं पाए हैं। देखिए-
किसी जगह की मिट्टी भीगे तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण-अर्पण करना मुझको पढ़-पढ़कर के मधुशाला
भरती के शब्द 'के' की वज़ह से 'पढ़-पढ़कर के' पाठ में दुरूहता आ गई है। "भर्ती का "के" से सम्बंधित एक और उदाहरण देखिये. --
उसने देखा था पलट कर के हमें जिस मोड़ पर - नीरज गोस्वामी
ग़ज़ल में "कर" का महत्त्व है। इसके अभाव में वाक्य कुछ अटपटा लगता है। जैसे- "मेरे सर पर वह चढ़ बोला"। खूबसूरती तो इस में हो अगर यह वाक्य यूँ कहा या बोला जाए- "मेरे सर पर वह चढ़ कर बोला"।
शेर में किसी शब्द का छूट जाना भर्ती के शब्द के समान दोष माना जाता है. किसी शागिर्द ने शेर लिखा-
तुम बन बहार आए हो
और दिल को मेरे भाये हो
उस्ताद ने परिमार्जन किया-
बनकर बहार आए हो
तुम दिल को मेरे भाये हो
'बन' शब्द के साथ 'कर' लगाने से शेर में पूर्णता आ गई है और सौंदर्य पैदा हो गया है। जनाब तेजेंद्र शर्मा का निम्नलिखित शेर "कर" के नदारद से अधूरा लगता है--
अपने को हँसता देख मैं हैरान हो गया
तुझ से ही जिंदगी मैं परेशान हो गया
इस शेर में "कर" का अभाव है ही; "मैं" की पुनरावृति भी अखरती है। शेर यूँ सही होता--
अपने को हँसता देख कर हैरान हो गया
तुझ से ऐ जिंदगी मैं परेशान हो गया
का, के ,को में,पर ,कर का पद्य में उतना ही महत्त्व है जितना गद्य में। दूध और पानी का सा मेल है दोनों में।
22 टिप्पणियाँ
ग़ज़ल की विशेषताओं पर बहुत अच्छा आलेख है। बधाई।
जवाब देंहटाएंभरती के शब्दों से आसानी से छुटकारा नहीं मिल पाता। लंबे अभ्यास से ही यह संभव है। प्राण शर्मा की की इस बात के लिये प्रशंशा करनी होगी कि उन्होने उदाहरण महत्वपूर्ण कवियों और शायरों सी गलतियों से चुने हैं जिससे बात स्पष्ट हुई है तथा इन भूलों को बारीकी की समझने का मौका मिला है।
जवाब देंहटाएंअनावश्यक विशेषण व भरती के शब्द ग़ज़ल में न आयें यह तो जरूरी है लेकिन शायर क्या करे उसे तो शेर को अपने फारमूले में गिनी मात्राओं के बीच ही बात कहनी है। एसे में विवशता हो जाती है कभी कभी।
जवाब देंहटाएंआँखें खोलने वाला लेख है। बारीकी से समझाया गया है।
जवाब देंहटाएंNice article sir, thanks.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
namaskar Pran saHeb!
जवाब देंहटाएंis lekh ke liye aapkaa sad_haa shukriyaa. mujh jaise taalib e ilm ke liye is tarah ke mazmoon bahut faaidemand hai.
baharhaal ek jagah aapkee tawajjo chaahuNgaa.
जिस शहर में रहता है वो महबूब हमारा
उस शहर का लोगों से पता माँग रहा है
शेर के पहले मिसरे में प्रयुक्त "वो" शब्द फालतू है यानी भरती का है। क्या शायर के शहर में भी उसका कोई और महबूब है? शेर यूँ होता तो अच्छा लगता--
ise meree kam-akl kaa nateejaa kahiye, magar mujhe lagtaa hai ki pehle misre kee jaan "woh" me aTakee hai. yeh tarkeeb urdu-adab meN kaee baar istemaal huee hai aur jaane maane shaairoN ne kee hai.
जिस शहर का वासी है मेरा यार अनोखा
उस शहर का लोगों से पता माँग रहा है
aapkee pesh kee huee soorat meN donoN misroN kaa rab't nazar naheeN aataa. pehle misre meN "meraa" kaa istemaal honaa aur doosre misre meN "maaNg rahaa hai" kaa istemaal karne se yeh baat saaf naheeN ho rahee hai ki yeh teesraa shaks kaun hai jo "pataa" maaNg rahaa hai.
===================================
yeh sirf meraa sochnaa hai aur maiN ghalat bhee ho saktaa huN, so aapkee waaahat mere ilm meN izaafaa karegee!
shukriyaa!
Dheeraj Ameta "Dheer"
धन्यवाद प्राण जी ग़ज़ल को इस प्रकार समझाने के लिये। अनावश्यक विशेषण अनजाने में होने वाली बडी गलती है। साथ ही फालतू शब्दों के प्रयोग भी रचना की गंभीरत समाप्त करते हैं। इतने बारीक विश्लेषण का धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंnamaskar Pran saHeb!!
जवाब देंहटाएंpichhle khat ko aagey baRhaate hue yeh arz karnaa cahungaa ki jo raa'i meree aapkee tajweez ke baare meN thee woh hee raa'i meree as'l sher ke bare meN bhee hai. agar sher kisee nazm kaa hissa hai to maiN apnee baat waapas letaa huN aur kshmaa-prarthee bhee huN.
Dheeraj Ameta "Dheer"
बहुत जानकारी देनें वाला आलेख है।आभार।
जवाब देंहटाएंसार्थक और इस विषय पर संपूर्ण आलेख है।
जवाब देंहटाएंBahut Badhiya. Sabdon me Nahi Bandh Sakta.
जवाब देंहटाएंपूरी तरह सहमत हूँ कि कविता या गज़ल तराशे जाने के लिये शायर का समय माँगती है जिससे कोई बात भली प्रकार कही जाये। वरना तो गूढ बात भी निरर्थक हो जाती है।
जवाब देंहटाएं'जहाँ यह जानने की आवश्यकता हो कि दो कवियों में से कौन बड़ा और कौन छोटा है, वहाँ यह देख लो कि दोनों में से किसने कितने विशेषणों का प्रयोग किया है तथा किसके विशेषण प्राणवान और किसके निष्प्राण उतरे हैं?
जवाब देंहटाएंगहरी बात है। अच्छा आलेख, संग्रह करने योग्य।
प्राण जी!
जवाब देंहटाएंआपने बेहद उपयोगी जानकारी दी है।
आपका तहे-दिल से शुक्रिया!
-विश्व दीपक
कैसे एक छोटी सी त्रुटी से जिसका हम लिखते वक्त ध्यान नहीं देते एक अच्छी खासी रचना अपना असर खो देती है ये आपने बहुत सरल उधाहरण से समझाया है...हैरानी की बात है की हम से नौसिखिये इस तरह की गलती करें तो बात समझ में आती हैं लेकिन दिग्गज लोग भी ऐसी भूल कर जाते हैं....आप की पारखी नजर को नमन करते हुए अपने भाग्य पर हर्षित हैं की हमें आप सा गुरु मिला.
जवाब देंहटाएंनीरज
आदरणीय प्राण जी की ग़ज़ल पर यह श्रंखला जैसे जैसे आगे बढ रही है एसे विषयों के साथ उपस्थित हो रही है जो आप तौर पर गौर ही नहीं किये जाते। आपके उद्धरण हम जैसे नौसिखियों के लिये वरदान हैं जिससे यह स्पष्ट होता है कि कहाँ और कैसी चूक होती है और किसी रचना के सौंदर्य में दागस लग जाता है। यह आलेख केवल ग़ज़ल के लिये ही नहीं कविता-अकविता-नयीकविता सबके लिये लाभप्रद है चूंकि अनावश्यक विशेषण और भरती के शब्द कविता के कर प्रकार में मिल जायेंगे।
जवाब देंहटाएंअलग विषय है। कम ध्यान जाता है इन बातों पर। जानकारीपूर्ण व परिपूर्ण आलेख। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंअनुज कुमार सिन्हा
भागलपुर
Neeraj jee,
जवाब देंहटाएंNeeraj Goswami jee,
Aapke sher mein maine
dosh darshaya hai aur aap khush
hain.Wah kya baat hai!Aakee sahan-
sheeltaa kee prashansha karne ke liye
mere pas koee shabd nahin hai.
Aadarneey Pran ji
जवाब देंहटाएंCharan Sprash,
ye barikiyan padhna samjhna bahut achha laga. halaki ye barikiyan sahi hone ke liye gazal aur shabdkosh par pakad hona zaruri hogi. gazal ki itni pabandiyan hai ki koi bhi gazal jaldi nahi hoti
aap ne itna padha hai dekh kar aashchary hota hai
ki aap itni barikiyon ko dekh kar padhte hain
aapke sharan mein jagah mili hai yahi humare liye sobhagya hai
Dhanyvaad
पढ़ते ही इस श्रंखला के अगले भाग की उत्सुक्ता बढ़ जाती है और अगले सोमवार की बाट जोहने लगते हैं। ऐसी छोटी सी बातों से भी रचना में कितना निखार आजाता है,लिखते हुए ऐसी बातों का ख़याल ही नहीं रहता। 'कर के' का प्रयोग अक्सर देखा गया है, लेकिन ग़ौर से देखने से पता लगता है कि यह 'के' वास्तव में ग़लत और फ़ालतू है।
जवाब देंहटाएंऐसी बारीकियों से अवगत कराने के लिए प्राण जी वास्तव में बधाई के पात्र हैं।
ये सारे लेख संजोने के लायक हैं।
बहुत अच्छा आलेख....
जवाब देंहटाएंआभार...
उपयोगी लेख के लिए बधाई. रचनाकारों, संपादकों और समालोचकों के लिए भी यह सब जानना अनिवार्य है. बिहार की तरफ के रचनाकार 'हमने किया है' को 'हम किये हैं' कहते हैं- ऐसे आंचलिक प्रभावों से बचने के बारे में भी लिखिए.
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.