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वेलेन्टाइन-डे की सार्थकता [विमर्श] - डा० वीरेन्द्र सिंह यादव


साहित्य शिल्पीरचनाकार परिचय:-

युवा साहित्यकार के रूप में ख्याति प्राप्त डा. वीरेन्द्र सिंह यादव ने दलित विमर्श के क्षेत्र में ‘दलित विकासवाद’ की अवधारणा को स्थापित कर उनके सामाजिक,आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त किया है। आपके दो सौ पचास से अधिक लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में हो चुका है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनेक पुस्तकों की रचना कर चुके डा. वीरेन्द्र ने विश्व की ज्वलंत समस्या पर्यावरण को शोधपरक ढंग से प्रस्तुत किया है। 

राष्ट्रभाषा महासंघ मुम्बई, राजमहल चौक कवर्धा द्वारा स्व0 श्री हरि ठाकुर स्मृति पुरस्कार, बाबा साहब डा0 भीमराव अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान 2006, साहित्य वारिधि मानदोपाधि एवं निराला सम्मान 2008 सहित अनेक सम्मानो से उन्हें अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप भारतीय उच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान राष्ट्रपति निवास, शिमला (हि0प्र0) में नई आर्थिक नीति एवं दलितों के समक्ष चुनौतियाँ (2008-11) विषय पर तीन वर्ष के लिए एसोसियेट हैं।

प्रेम प्रिय शब्द का भाववाचक रूप है। प्रिय का अर्थ होता है तृप्ति; अर्थात प्रेम शब्द से हृदय के उस तृप्ति रूपी आनन्द का संकेत मिलता हैं जो हमें किसी विषय के दर्शन आदि से मिलता है। विश्व के समस्त स्थावर जंगम पदार्थों में प्रेम का प्रसार स्पष्ट दिखता है। समस्त सूक्ष्म तत्वों को प्रेम कर्मशील बनाता है। वास्तव में देखा जाये तो सम्पूर्ण जगत के कार्य- व्यापार तथा समस्त प्राणिजगत के मूल में प्रेम ही का वास होता हैं। प्रेम को जीवन से अलग नहीं किया जा सकता है। प्रेम जीवन की स्फूर्ति है। प्रेम कर्मण्यता, आशा तथा सतत् विकास एवं उन्नति का विद्यायक है।

प्रेम का एक रूप वह है जो व्यक्ति में समर्पण का भाव लाता है अर्थात प्रेम किसी से भी (मानव, प्रकृति एवं पशु-पक्षियों से) किया जा सकता है। ये प्रेम तभी सार्थक होता है जब हम उस जड़ या चेतन वस्तु के प्रति सम्मान, समर्पण एवं भरोसा कर सकें। यह भरोसा व्यक्तिगत स्तर से लेकर सार्वभौमिक स्तर तक जा सकता है। प्रेम एक ऐसी उद्दाम शक्तिशालिनी मनोवृत्ति है जो हृदय में जागृत होने पर अहर्निश अपने आलम्बन् की प्राप्ति तथा उससे एकमेव के लिये सदैव आतुर रहती है। इसके पथ में आने वाली विघ्न बाधायें कोई महत्व नहीं रखती है।

भारतीय साहित्य में प्रेम का स्वरूप हम श्रीमद्भागवत में देखते है जहाँ कि कृष्ण के अगाध प्रेम में आसक्त गोपियाँ अहर्निश श्री कृष्ण के ध्यान में मग्न, उन्हीं का सानिध्य प्राप्त करना चाहती है। इसमें गोपियों की प्रेम भावना का प्राबल्य है। प्रेम का यही प्राबल्य व्यक्ति को आकर्षण से जोड़ देता है। शिकागो (अमेरिका) में अपने आध्यात्मिक भाषण के दौरान स्वामी विवेकानन्द जी से एक अंग्रेज ने पूछा था कि आपके यहाँ कृष्ण भगवान सोलह हजार गोपियों के साथ रहते थे; यह कैसे सम्भव रहा होगा? विवेकानन्द जी का जवाब था कि आप हमारे भाषण को लगातार इतने घण्टे क्यों सुनते रहते हो तो उस अंग्रेज का जवाब था कि आप हमें आकर्षित करने एवं प्रोत्साहित करने वाली बातें बता रहे हैं। तब विवेकानन्द जी का जवाब था कि ऐसी ही बातें हमारे इष्ट देवता या महान पुरूष या ईश्वर श्री कृष्ण बताते थे। उनमें स्वार्थ की भावना नहीं थी अर्थात व्यक्ति का आकर्षण ही उसे दूसरे व्यक्ति से प्रेम के बन्धन में बाँधता है जिसमें जरूरी नहीं कि वह प्रेम दैहिक हो। अर्थात प्रेम का यह रूप मानवीय मूल्यों से ओत प्रोत था; इसलिये इतिहास में आज भी अमर है।

अनन्यता प्रेम का मूल तत्व है। चातक भारतीय साहित्य में अनन्य प्रेम का प्रतीक माना गया ह। चातकवत् प्रेम ही सध्वा प्रेम माना जाता है। परन्तु वर्तमान के भूमण्डलीकरण के दौर में प्रेम का स्वरूप भी बदल चुका है। चातकवत् प्रेम आज अतीत में विलीन हो गया है। वासना एवं संकीर्णता के क्षुद्र आवेग ने प्रेम को विषमय बना दिया है। व्यक्ति के स्वार्थ की वृत्ति इतनी बढ़ चुकी है कि प्रेम के स्त्रोत की मूल धारण विलुप्त होती जा रही है। प्रेम को साधने के लिये व्यक्ति आज छल, कपट, प्रपंच, षड़यंत्र आदि का सहारा ले रहा है। अतीत में रहा होगा कोई युग जब प्रेम ‘हाट’ में न बिकता रहा होगा, किन्तु आज प्रेम का बाकायदे सौदा होता है, प्रेम बिकता है, प्रेम खरीदा जाता है अर्थात इसकी सरेआम नीलामी हो रही है। जो जितनी अधिक बोली लगा रहा है, वही उसे प्राप्त करने में सफल हो रहा है। नारी के प्रति व्यक्ति की उदात्त भावनायें एवं नारी का व्यक्ति के प्रति समर्पण, सम्मान एवं भरोसा न रहकर अब उसकी समृद्धि का सूचक हो गया है प्रेम। प्रेम के बारे में कवि एवं शायरों की शायरी इस भौतिक युग में अब केवल यूटोपिया ही साबित हो रही है-
जीवन को वरदान बना देता है।
बंजर को उद्यान बना देता है।
सद्भाव सरस प्रेम सुमन का सौरभ,
इन्साँ को इन्सान बना देता है।।
पश्चिम से आये बेलेन्टाइन-डे मनाने या न मनाने पर भारत में इधर विरोध की परम्परा पिछले वर्षों में देखने को मिली है। वास्तविक दृष्टि से देखा जाये तो बेलेन्टाइन-डे पाश्चात्य देशों में मनायें जाने से पहले हमारे देश में बसन्तोत्सव के रूप में प्रेम का यह पर्व हम सदियों से मनाते आ रहे हैं। आपसी विश्वास और स्नेह का यही एक विशेष दिन नहीं है वरन् प्रेम का वास्तविक स्वरूप कभी भी, कहीं भी ओर किसी के भी प्रति हो सकता है। इसमें किसी विशेष दिन का महत्व नहीं रहता है। इसे एक दूसरे रूप में कहें तो जब हम अपना उद्देश्य तय कर लेते हैं तो हमारा समर्पण उसी के प्रति हो जाता है। यही प्रेम का वास्तविक रूप है। स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति हमेशा से प्रेम प्रधान रही है। आज समय की माँग है कि पाश्चात्य रंग में न रंग का हम किसी की भावनाओं को आहत न करें, समाज में फूहड़ता न फैलायें तभी हम संत वेलेन्टाइन की प्रेम रूपी सार्थकता की उचित शिक्षा को समाज में फैला सकेंगे।

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8 टिप्पणियाँ

  1. आज समय की माँग है कि पाश्चात्य रंग में न रंग का हम किसी की भावनाओं को आहत न करें, समाज में फूहड़ता न फैलायें तभी हम संत वेलेन्टाइन की प्रेम रूपी सार्थकता की उचित शिक्षा को समाज में फैला सकेंगे।

    -सही कहा आपने वीरेन्द्र जी।

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  2. सही संदर्भ उठाते हुए आपने अपनी बात बहुत अच्छे से रखी।

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  3. बहुत अच्छा लेख। सार्थकता पर अच्छा विमर्श प्रस्तुत किया है आपनें।

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  4. बहुत अच्छे शब्दों और आशय के साथ आपने प्रेम को परिभाषित किया... बधाई..

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  5. हमारे देश में प्रत्येक नागरिक अपने-अपने ढंग से उत्सव मनाने के लिए पूर्ण स्वतंत्र हैं। सांस्कृतिक-क्षरण या धार्मिक कट्टरता की आड़ में संविधान प्रदत्त "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" का हनन नहीं होना चाहिए। "वैलेंटाइन-डे" का विरोध करने के नाम पर सरे आम अराजकता फैलाने और 'ला-आर्डर' अपने हाथ में लेने वालों पर रासुका (राष्ट्रीय सुरक्षा कानून) के अंतर्गत कठोर कार्यवाही की जानी चाहिए जिससे अहसास हो कि भारत में अभी भी संविधान का राज है, गुंडों का नहीं !

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  6. हर आदमी आज दोहरे मापदंड लिये फ़िरता है.. अपने लिये कुछ और तथा दूसरों के लिये कुछ और.
    कुछ लोग भीड का हिस्सा बन कर ही जीना जानते हैं.. उन्हें सही गलत का कोई अन्दाजा नहीं होता बस.. जो कुछ भी सामने हो रहा होता है उसी में जुट जाते हैं.
    यदि हर व्यक्ति अपने घर को ठीक कर ले तो मुहल्ला ठीक हो जायेगा..मुहल्ला ठीक हो गया तो गांव/शहर ठीक हो जायेगा और शहर ठीक हो गया तो देश अपने आप ठीक हो जायेगा...

    प्यार करने वालों को रोकने के लिये तो सेना बनी है.. शिव सेना... राम सेना... लेकिन सडक पर घायल व्यक्ति का कोई नहीं.... ठंड में ठिठूरते लोगों का कोई नहीं... भूख और बिमारी से तडफ़ते लोंगों का कोई नहीं.... क्या प्यार इन सब समस्याओं से बडी समस्या है ?

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