
लोकोक्ति और मुहावरे का महत्व
लोकोक्ति और मुहावरे का महत्व इतना अधिक है कि इनके प्रयोग से गीत ग़ज़ल को चार चाँद लग जाते हैं। उस्ताद शायरों ने भी इसके अमिट प्रभाव को स्वीकार किया है। इनका जादू निराला है। एक बार सर पर चढ़ता है तो उतरने का नाम नहीं लेता है। छंद व लय में रची गई लोकोक्तियों का तो कोई जवाब ही नहीं है। ये व्यंजनाओं की ऐसी संपदाएं हैं कि इनके सामने बड़े-बड़े कवियों की काव्य पंक्तियाँ फीकी लगती हैं। मसलन-
- खाल ओढ़ के सिंह की, स्यार सिंह नहीं होय
- राम-राम जपना पराया माल अपना
- अधजल गगरी छलकत जाए
- कोयला होय न उजला सौ मन साबुन धोय
- पराधीन सपनेहु सुख नाहीं
- अंधेर नगरी चौपट राजा
टके सेर भाजी टके सेर खाजा
लेखक परिचय:-
प्राण शर्मा वरिष्ठ लेखक और प्रसिद्ध शायर हैं और इन दिनों ब्रिटेन में अवस्थित हैं।
आप ग़ज़ल के जाने मानें उस्तादों में गिने जाते हैं। आप के "गज़ल कहता हूँ' और 'सुराही' - दो काव्य संग्रह प्रकाशित हैं, साथ ही साथ अंतर्जाल पर भी आप सक्रिय हैं।
लोकोक्तियों का जादू बरकरार रखने के लिए आवश्यक है कि इनको जस-का तस प्रस्तुत किया जाए। चूँकि इनमें सभी शब्द घी और शक्कर की भाँति एक दूसरे में घुल-मिल गए होते हैं इसलिए इनके किसी शब्द को भी बदलना या हटाना इनकी सजीवता को निष्प्राण करना है। 'अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत' में जो स्वाभाविकता 'चिड़िया' कहने से है वह किसी अन्य परिंदे के कहने से कतई नहीं आती है। 'अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग' में डफली और राग में जो घनिष्ट संबंध है वह ढोल और गीत कहने में संभव कहाँ?
एक लोकोक्ति है- 'अक्ल बड़ी या भैंस', यह इतनी प्रचलित है कि बच्चे बूढ़े सभी इसको बोलते-लिखते हैं। जाने-माने कवि संजय चतुर्वेदी ने भैस के स्थान पर 'भालू' का प्रयोग करके इस लोकोक्ति की कैसी दुर्गति की है, उनके शेर में देखिए-
अक्ल बड़ी या फिर भालू, दानिशवाले गौर करें
शाख में बैठा है क्यों उल्लू, दानिश वाले ग़ौर करें
सीधे-सच्चे लोगों के दम
पर ही दुनिया चलती है।
उर्दू शायरी में आमने-सामने आने वाले दो शब्दों के अंतिम और प्रारंभिक समान अक्षर की समीपता को दोष माना गया है लेकिन हिन्दी में यह गुण है। जैसे- 'निर्लज्ज जन क्या जाने इज्ज़त'। चूँकि निर्लज्ज और जन के 'ज' अक्षर में समीपता है, इसलिए उर्दू शायरी में यह दोष है। इस दोष के अनुसार अक्षर की समीपता के कारण बोलने में गतिरोध पैदा होता है। सोहन राही का शेर है -
जला दो, फूँक डालो, कोहना आदम
दरिंदों से यह अब बदतर लगे है।
जला दो, फूँक डालो, कोहना आदम
दरिंदों से भी यह बदतर लगे है।
जैसा कि मैंने ऊपर कहा है कि उर्दू के इस दोष को हिन्दी-काव्य में गुण माना जाता है| हिन्दी की अनेक काव्य-पंक्तियाँ हैं जिनमें शब्दों के अन्तिम और प्रारंभिक अक्षरों में समीपता है| इस समीपता को महाकवि बिहारी के कई दोहों में देखा जा सकता है| इसका सर्वोतम उदाहरण उनके एक दोहे में देखिये-
कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय
उहिं खाय बौराय जग इहि पायेंहि बौराय
"कनक" शब्द के "क" और "क" की समीपता कानों में रस घोल रही है।
मात्राओं को यानि स्वर को दबाना
शब्द की मात्रा को दबाना यानी दीर्घ को ह्रस्व बनाना उर्दू शायरी में जायज़ माना जाता है। मसलन- मेरा को मिरा, तुझको को तुझकु, उसको को उसकु इत्यादि। शब्द की मात्रा को दबाने के संदर्भ में यहाँ यह बताना आवश्यक है कि यह प्रक्रिया आधुनिक हिंदी काव्य में भले ही कम रही हो लेकिन भक्ति कालीन हिंदी काव्य में व्यापक रूप से विद्यमान थी। अमीर खुसरो, तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई इत्यादि कवियों ने इसका खुलकर प्रयोग किया। दीर्घ को ह्रस्व बनाने के साथ-साथ ह्रस्व को दीर्घ बनाने की प्रवृति भी उनमें थी। इनके अतिरक्त अपने नामों की मात्राओं को भी उन्होंने दबाया और बढ़ाया।
कबीरदास ने अपने नाम की मात्रा को किस तरह दबाया और बढ़ाया, इसका उदाहरण है-
कबिरा खड़ा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ
जो घर फूँकै आपनों चलै हमारे साथ
चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर
तुलसिदास चंदन घिसै तिलक देत रघुबीर
रामदरश मिश्र के मिसरे में क्या को दबाकर 'क' के वज़न में लिखा गया है-
इसमें क्या खता आपको भाता नहीं हूँ मैं
उर्दू शायरी में व्यंजन को भी दबाया या गिराया जा सकता है बशर्ते वह मिसरे के अंतिम शब्द का अन्तिम अक्षर हो। जैसे शकेब जलाली के इस शेर में -
जब तक रही जिगर में लहू की ज़रा सी बूँद
मुट्ठी में अपनी बंद समंदर लगा मुझे
"बूँद" के "द" को गिराया गया है।
29 टिप्पणियाँ
नहले पर दहला को नहले पर दहले के रूप में प्रयोग होते कई शेर हैं। वैसे ही सामीप्य दोष उद्रू में उसकी भाषा शैली के कारण जायज हो सकता है हिन्दी में अलंकार के अंतर्गत आता है। हिन्दी में लिखी जा रही शायरी में कुछ प्रयोग वर्जित नहीं होने चाहिये एसा मुझे लगता है।
जवाब देंहटाएंस्वर को दबाने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिये। इसके प्रयोग में आम होने से भाषा ही समृद्ध होगी। जब हमें कबीरा की जगह कबिरा स्वीकार्य है तो मिरा या तिरा में भी अनुचित कुछ नहीं।
जवाब देंहटाएंNice article.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
हिन्दी और उर्दू की भाषागत विविधताओं को ध्यान में रखते हुए कुछ परिवर्तन स्वीकार्य होने चाहिये। इस विधा को हिन्दी में पूरी तरह अपनाने के लिये थोडी फ्लक्सिबिलिटी आवश्यक है"
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख है। भाषागत विशेषताओं पर बारीकी से ध्यान दिलाया गया है।
जवाब देंहटाएंजानकारी से लबालब भरा हुआ
जवाब देंहटाएंइसमें तैरें या डूब जाएं कैसे
भाग्य ऐसा अपना जो हुआ।
यही जवाब है इसका कि लाजवाब है ये
जवाब देंहटाएंहर बार की तरह ही बहुत उम्दा जानकारी से भरा आलेख. प्राण जी को साधुवाद.
जवाब देंहटाएंमुहावरे और लोकोक्ति का प्रयोग शायरी को निश्चित ही प्रभावशाली बनाता है। कठिनायी यह है कि बहर सही रखो तो बदलाव भी करने पडते हैं। लेकिन यह व्याकरण का नहीं शायर का ही दोष है। अभ्यास जरूरी है।
जवाब देंहटाएंबहुत उपयोगी बातें बताइ आफने। लोकोक्ति और मुहावरों ने सदा ही भाषा को सुन्दरता प्रदान की है। गीत और गज़ल ही नहीं आम बोलचाल में भी इनके प्रयोग से सुन्दरता आ जाती है।
जवाब देंहटाएंप्राण साहब नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपके लेख तो हमेशा से उपयोगी रहे है हमेशा की तरह ज्ञानवर्धक.. मेरी एक शंका है ये की जिस तरह आपने कहा की लघु और दीर्घ को अपने हिसाब से उर्दू में दीर्घ अरु लघु किया जा सकता है तो फ़िर ... क्या सिर्फ़ उसे बहर में लाने के लिए किया जाता है... ? फ़िर हम जैसे जो अभी सिखाने की प्रक्रिया में है थोड़ा भरम हो जाता है बहर सिखाते वक्त ... क्या ये सही है ?? मेरी शंका का समाधान करें....?
आपका
अर्श
बहुत अच्छा आलेख है।
जवाब देंहटाएंमहत्वपूर्ण यह भी है कि आज के शायरों की पटनीयता इतनी कम हो गयी है कि मुहावरे और लोकोक्ति तो जैसे रचनाओं में खोजे से नहीं मिलते। आलेख का धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंग़ज़ल के उन पहलुओं पर सारगर्भित जानकारी है जो किसी को सही मायनों में शायरी लेखन से पूर्व आनी चाहिये।
जवाब देंहटाएंग़ज़ल पर अब तक प्रस्तुत सभी लेख संग्रह कर के रखने योग्य हैं। इन जानकारी पूर्ण लेख के लिये धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआदरणीय प्राण शर्मा जी के आलेख उनके अनुभवों का निचोड हैं। मैं अपनी कविता की भाषा की विवेचना को बाध्य हो उठा हूँ। मुहावरों के प्रयोग की मुझे आदत है व उन्हे अपने मनोनुकूल परिवर्तित करने की भूल मैं हमेशा करता रहा हूँ। अब यह भूल नहीं करने की कोशिश रहेगी।
जवाब देंहटाएं***राजीव रंजन प्रसाद
बेसिक सीखे बिना कविता लिखना शब्दों से खिलवाड ही है। कवि और शायर को इन भाषागत विशेषताओं से अवगत होना ही चाहिये।
जवाब देंहटाएंअनुज कुमार सिन्हा, भागलपुर
ARSH JEE,
जवाब देंहटाएंBAHAR MEIN LAANE KE LIYE DEERGH
SWAR KO GIRAAYAA JAATAA HAI.JAESE--AKHTAR SHEERAANI KEE NAZM KEE DO
PANKTIYAN HAIN--
KYA GAON PE AB BHEE SAWAN MEIN
BARKHAA KEE BAHAAREN CHHATEE HAIN
MAASOOM GHARON SE BHOR BAYE
CHAKKEE KEE SADAAYEN AATEE HAIN
IN PANKTIYON MEIN "PE",AUR
"KEE"KO DO BAAR GIRAAYAA GAYAA HAI,
BAHAR MEIN LAANE KE LIYE.
KAEE BAAR "KI" KO DEERRGH
YAANI"KE"BANAAYAA JAATAA HAI,JAESE
UMR BHAR LAACHAAR AUR MAAYOOS
KOEE KYON RAHEN
ACHCHHA HAI KE JAG MEIN N
AAYAA KARO AE ZINDGEE
EK BAAT AUR--"PAR"SHABD KO GIRAAKAR "PE" KIYAA JAATAA HAI."PE"
SHABD KAA GAZAL YAA KAVITAA MEIN
TABHEE PRAYOG KARNAA CHAAHIYE JAB
"PAR"KAA PRAYOG KARNAA KATHIN HO.
Aadarneey Pran ji,
जवाब देंहटाएंCharan sprsh,
bahut sari jaankari mili aapke lekh se aapse bhaut seekh rahi hoon.
kuch aisi halat hai
koi bachha ajooba dekh ke hairaan ho Jaise
Fati aankhe,khule hontho pe bhi muskaan ho jaise
कोई बच्चा अजूबा देख के हैरान हो जैसे
फटी आँखे,खुले होंठो पे भी मुस्कान हो जैसे
परम आदरणीय प्राण साहेब, प्रणाम...आप हम जैसे सीखने वालों पर वास्तव में बहुत उपकार कर रहे हैं...सीधी सादी जबान में उदहारण दे कर शायरी के गूढ़ रहस्यों को खोलना सिखा रहे हैं...आप की इस लेख माला को अगर पुस्तकार रूप में प्रकाशित करवा दें तो अनेकों ग़ज़ल प्रेमियों का भला होगा...
जवाब देंहटाएंनीरज
shuruaati dour me mujhe ye lekh padna bahut hi achha lag raha hain
जवाब देंहटाएंdhanyawad
NEERAJ JEE,AAPSAB KAA PYAAR MERE
जवाब देंहटाएंSAATH RAHAA TO IN LEKHON PAR PUSTAK
BHEE CHHAPEGEE.ABEE BAHUT KAAM KARNAA HAI MUJHE.MAIN SHREE RAAJIV,
SHRI AJAY YADAV ,MOHINDE KUMAR AUR
UNKE SAATHIYON KAA AABHAAREE HOON
JINHONE IN LEKHON KO POST KIYAA
HAI.
आजकल ग़ज़ल में लोकोक्ति और मुहावरों का जो अभाव सा दिखाई दे रहा है, उस पर ग़ज़लकारों को ध्यान देने की आवश्यकता है। यह बिल्कुल सही है जैसा कि प्राण शर्मा जी ने कहा है कि इनके प्रयोग से गीत ग़ज़ल को चार चांद लग जाते हैं।
जवाब देंहटाएंसामीप्य दोष को बहुत ही सरल भाषा और उदाहरणों द्वारा समझाया गया है। राम दर्श मिश्र के
मिस्रे का उदाहरण बहुत ही उपयुक्त है।
अक्सर इसी तरह के लेखों में देखा गया है कि
ग़ज़ल में व्यंजन गिराने के विषय पर ध्यान नहीं दिया गया है और ना ही उदाहरणों से समझाया गया है। यहां हम देख सकते हैं कि शर्मा जी कितनी गहराई तक पहुंच जाते हैं।
आपकी इस बेलाग सेवा को नमन!
आदरणीय प्राण शर्मा जी,
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा जानकारी से भरा
बहुत अच्छा आलेख....
धन्यवाद।
ये बीच का अंतराल जानलेवा सा था प्राण जी।
जवाब देंहटाएंचरण-स्पर्श करता हूँ।
हमेशा की तरह बेमिसाल जानकारी।
खास कर ये एक से अक्षर की समीपता से उत्पन्न होने वाले दोष के बारे में जानकारी दे कर बड़ा उपकार किया है हम पर। अपने कई अदने से शेरों में ये खामियां नजर आ गयी।
शुक्रिया कह कर निपटा देना वाजिब न होगा। हम सब आपके ऋणि हैं प्राण साब।
waaqai jaisa suna tha waisa hi paaya kya likha hai pran ji ne ............adbhut....
जवाब देंहटाएंगजल शिल्प की बारीकियों से अवगत कराती लेख की एक महत्वपूर्ण कडी... आभार
जवाब देंहटाएंअक्ल बड़ी या फिर भालू, दानिशवाले गौर करें
जवाब देंहटाएंशाख में बैठा है क्यों उल्लू, दानिश वाले ग़ौर करें
इस शे'र में मुहावरे का सत्यानाश करने के आलावा एक और गलती है. उल्लू शाख पर ( के ऊपर) बैठता है न कि शाख में (के अन्दर )- जैसा कि इस शे'र में कहा गया है.
प्राण जी इस लेख माला के बारे में बहुत विलंब से ज्ञात हुआ. आज एक ही बैठक में शुरू से अब तक सब लेख पढ़ लिए हैं. हर लेख के अंत में प्रतिक्रिया दी है- देखियेगा.
हिंद युग्म पर दोहा की कक्षएं ली हैं, समय मिले तो देख कर कमियां और दूर करने के उपाय बताइयें.
आपका बहुत-बहुत आभार.
नए रचनाकारों के लिए यह जानना जरूरी है कि सदियों पहले की भाषा आज की भाषा नहीं हो सकती. भाषा जड़ नहीं चेतन होती है. वह समय के साथ बदलती है. कबीर, मीरा आदि की भाषा न तो खडी या taksalee हिंदी है न ही उनकी शिक्षा-दीक्षा विधिवत हुई थी. आज के लेखक सुशिक्षित हैं. इसलिए भाषा का सही होना जरूरी है.
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.