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नई राहों के अन्वेषी क्लेजियो को साहित्य का नोबेल पुरस्कार [विशेष] - आकांक्षा यादव

‘‘मेरी जिंदगी का सबसे सुखद क्षण वह होता है, जब मैं कागज-कलम के साथ अपनी मेज पर होता हूँ। इसके लिए मुझे किसी सुविधा की आवश्यकता नहीं होती बल्कि मैं कहीं भी लेखन कार्य कर सकता हूँ। लिखना मेरे लिए एक सफर की तरह ही है और यह मेरे भीतर से शुरू होता है और एक नई जिंदगी ही नहीं बल्कि बेहतरीन जिंदगी देता है।‘‘ इस विचार को अपनाने वाले फ्रेंच लेखक ज्यां मारी गुस्ताव ली क्लेजियो को वर्ष 2008 के नोबेल साहित्य पुरस्कार हेतु चुना गया है। 50 से अधिक पुस्तकों के लेखक एवं कथा, उपन्यास से लेकर निबंध और बाल-साहित्य तक में सशक्त दखल रखने वाले क्लेजियो को स्वीडिश अकादमी ने ‘नई राहों का अन्वेषी और मानवता की खोज करने वाला लेखक‘ करार दिया। आखिर हो भी क्यों न, मानवता के नये आयामों तथा हाशिये के लोगों से निरंतर जुड़े क्लेजियो अपनी कविताओं और साहित्य में ‘बौद्धिक भावातिरेक‘ पैदा करने के लिए जाने जाते हैं। उनकी रचनाओं में मानवीय सरोकार हैं, खो चुकी सभ्यताओं की चिंता है तो विस्थापन का दर्द भी है। समकालीन समाज और वैश्विक परिदृश्य में जो कुछ घटित हो रहा है, उससे उनकी लेखनी अछूती नहीं है। इन मुद्दों पर यथास्थितिवादी होने की बजाय वे बेबाकी से अपनी बात कहते रहे हैं। वस्तुत: वह नये प्रस्थानों, काव्यात्मक प्रयोग, कवित्वपूर्ण रोमांच और संवेदनात्मक उत्कर्ष एवं क्षेत्रीय सभ्यताओं के पार और भीतर मानवीय पक्षों की सशक्त अभिव्यक्ति के लेखक हैं। 

ज्यां मारी गुस्ताव ली क्लेजियो का जन्म 13 अप्रैल 1940 को फ्रांस के नीस शहर में हुआ। उनके पूर्वज मूलत: मारीशस के थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद क्लेजियो की माँ फ्रांस में बस गईं जहाँ उनका जन्म हुआ। तब किसने सोचा था कि एक दिन मारीशस मूल का यह व्यक्ति फ्रेंच साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार अर्जित करेगा। 1901 में प्रथम नोबेल साहित्य पुरस्कार प्राप्तकर्ता फ्रेंच लेखक सुली प्रुधोम से आरम्भ हुए इस सफर में क्लेजियो 14वें फ्रेंच साहित्यकार हैं। यह अजीब इत्तफाक है कि कभी फ्रांस के ही अस्तित्ववादी विचारक ज्यां पाल सात्र ने नोबेल पुरस्कार को आलू का बोरा कहकर ठुकरा दिया था, पर आज उसी परम्परा में इसको ग्रहण करने वाले फ्रेंच लेखकों की कमी नहीं है।

फ्रेंच पब्लिक स्कूल में अपना आरम्भिक अध्ययन करने वाले क्लेजियो का फ्रेंच भाषा से अटूट जुड़ाव रहा। किशोरावस्था से ही वे लेखन में प्रवृत्त क्लेजियो का पहला उपन्यास 23 वर्ष की उम्र में वर्ष 1963 में ‘ली प्रोसेस वर्बल‘ नाम से प्रकाशित हुआ। उनकी आरम्भिक कृतियाँ रोजमर्रा के शब्दों के उपयोग के साथ गहन संवेदनात्मक अनुभूति पैदा करने वाले अलंकृत शब्दों के विलक्षण एवं अनुपम प्रयोग व अद्भुत कल्पनाशीलता की मिसाल मानी जाती हैं। कालांतर में उन्होंने बाल-साहित्य जैसी उपेक्षित विधा पर जोर देते हुए बचपन पर केन्द्रित कई अविस्मरणीय कथायें भी रचीं। इन कृतियों में उनके बचपन और पारिवारिक पृष्ठभूमि की झलक देखी जा सकती है।

एक युवा लेखक के रूप में क्लेजियो की पहचान अस्तित्ववादी चिंतन के बाद साहित्य जगत में रोमन नवयुग के प्रणेता की है। उन्हें सबसे ज्यादा चर्चा 1980 में प्रकाशित उपन्यास ‘डेजर्ट‘ से मिली। इस उपन्यास में उन्होंने अवांछित व अप्रवासियों के जरिए उत्तरी अमेरिका के रेगिस्तान में खो चुकी संस्कृति का चित्रण किया। उनकी अन्य कृतियों में टेरा अमाटा, वार, द बुक आफ फ्लाइट्स, द जाइन्टस, लुलाबी (1980), बेलाबिलो (1985), इटाइल इरैन्ट (1992), बैलेसिनर (2007) इत्यादि प्रमुख हैं। टेरा अमाटा, वार, द बुक आफ फ्लाइट्स, द जाइन्टस कृतियों से क्लेजियो का पारिस्थितिकी की तरफ झुकाव देखा जा सकता है। ‘इटाइल इरैन्ट‘ में यहूदी और फिलिस्तीनी लड़कियों के बहाने विस्थापित होने और इस दौर की यातनाओं को उन्होंने बखूबी बयाँ किया गया है तो ‘बैलेसिनर‘ को सिनेमा पर आधारित किया है। इस कृति में बचपन में सिनेमा के दाखिल होने, फिर उसकी दखलंदाजी और इस बहाने पूरा सिनेमाई इतिहास महसूस किया जा सकता है। क्लेजियो को सशक्त रचनाधर्मिता के चलते फ्रेंच एकेडमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।
Photobucketलेखिका परिचय:-
आकांक्षा यादव अनेक पुरस्कारों से सम्मानित और एक सुपरिचित रचनाकार हैं। 

राजकीय बालिका इंटर कालेज, कानपुर में प्रवक्ता के रूप में कार्यरत आकांक्षा जी की कवितायें कई प्रतिष्ठित काव्य-संकलनों में सम्मिलित हैं।

आपने "क्रांति यज्ञ: 1857 - 1947 की गाथा" पुस्तक में संपादन सहयोग भी किया है। 
 

पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से नोबेल पुरस्कार की चयन प्रक्रिया पर प्रश्न चिन्ह लग रहे हैं, उससे यह पुरस्कार भी अछूता नहीं रहा। पिछले वर्ष जब 87 वर्ष की आयु में डोरिस लैंसिंग को साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था, तो आलोचकों ने इसे देरी से दिया गया सम्मान बताया था। 23 वर्ष में अपना प्रथम उपन्यास लिखने वाले क्लेजियो को 68 वर्ष की उम्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ, इस हिसाब से यह उनके लिए सुखद रहा कि इसके लिए उन्हें लम्बा इन्तजार नहीं करना पड़ा। पर आलोचक यह सवाल जरूर उठा रहे हैं कि दुनिया के विभिन्न देशों में साहित्य पर इतना काम हो रहा है पर स्वीडिश अकादमी की निगाह बार-बार फ्रेंच लेखकों पर ही क्यों जाती है? साहित्य के क्षेत्र में दिया जाने वाला नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाला हर सातवाँ व्यक्ति आखिर फ्रेंच ही क्यों है? गौरतलब है कि क्लेजियो ने अमेरिकी संस्कृति पर बहुत कुछ लिखा है और इसके पीछे वे कारण बताते हैं कि वह एक ऐसी संस्कृति है जिसने आधुनिक दुनिया के कई तरह के आघातों को विशेषकर यूरोपीय विजयों को सहा पर आज वह एक मजबूत राष्ट्र के रूप में विश्व में अपनी निर्णायक भूमिका निभा रहा है। आलोचक क्लेजियो द्वारा अमेरिकी संस्कृति का बखान करने को भी इतनी सहजता से नहीं देखते हैं। यही नहीं कुछ विशेष महाद्वीपों के ऊपर स्वीडिश अकादमी की मेहरबानी भी आलोचकों की नजर से अछूती नहीं है।

विवादों के इस पचड़े के बावजूद क्लेजियो सहजता से अपनी सृजन यात्रा अनवरत जारी रखना चाहते हैं और वे अपना ध्यान सिर्फ लिखने में ही लगाना चाहते हैं। लेखन की महत्ता को वे बखूबी समझते हैं और लेखक के रूप में अपनी सीमाओं से बखूबी परिचित भी हैं। लेखक के ऊपर दार्शनिकता और विचारक होने का ठप्पा थोपने की बजाय वह मानते हैं कि दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है, लेखक-साहित्यकार को उसका महज साक्षी बन कर चीजों को लोगों के सामने ईमानदारी से प्रस्तुत करना चाहिए। क्लेजियो की यह सहजता भले ही बहुतों के गले न उतरे पर अपनी ईमानदारी और साफगोई को स्वीकारने में उन्हें कोई हिचक नहीं।

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29 टिप्पणियाँ

  1. क्लेजियो के योगदान को रेखांकित करने के बहाने बहाने समकालीन साहित्य में नोबेल की राजनीति पर भी पूरा प्रकाश डाला है आकांक्षा जी ने. सुन्दर विवेचना के लिए बधाई.

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  2. लिखना मेरे लिए एक सफर की तरह ही है और यह मेरे भीतर से शुरू होता है और एक नई जिंदगी ही नहीं बल्कि बेहतरीन जिंदगी देता है।‘‘ इस विचार को अपनाने वाले फ्रेंच लेखक ज्यां मारी गुस्ताव ली क्लेजियो को वर्ष 2008 के नोबेल साहित्य पुरस्कार हेतु चुना गया है.....Bahut sundar alekh.Congts. to Akanksha ji for such nice literary article.

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  3. आकांक्षा जी की नजर भारतीय साहित्य के साथ-साथ वैश्विक साहित्यिक परिप्रेक्ष्य पर भी है.क्लेजियो तो नोबेल के लिए बधाई के पत्र हैं ही, आकांक्षा जी भी लोगों को उनसे रु-ब-रु करने हेतु साधुवाद की पात्र हैं.

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  4. itne sunder aur sargarbhit lekh ke liye Aakanksha jiko badhai. bahtu hi suder ghag se apane Clojiyo ke sahitya ko rekhankit kiya hai.

    Clojiyo ko bahdi aur Aakankshaji ka aabhar.

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  5. itne sunder aur sargarbhit lekh ke liye Aakanksha ji ko badhai. bahut hi suder dhang se apane Clojiyo ke sahitya ko rekhankit kiya hai.

    Clojiyo ko badhai aur Aakankshaji ka aabhar.

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  6. पर आलोचक यह सवाल जरूर उठा रहे हैं कि दुनिया के विभिन्न देशों में साहित्य पर इतना काम हो रहा है पर स्वीडिश अकादमी की निगाह बार-बार फ्रेंच लेखकों पर ही क्यों जाती है? साहित्य के क्षेत्र में दिया जाने वाला नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाला हर सातवाँ व्यक्ति आखिर फ्रेंच ही क्यों है?.....आकांक्षा यादव जी ने तो नोबेल पुरस्कार देने वालों की बखिया ही उधेड़ कर रख दी ???

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  8. ....पर इससे परे इतना सम्यक विश्लेष्णात्मक आलेख पढ़कर अभिभूत हूँ. साहित्य-शिल्पी और आकांक्षा यादव जी को ढेरों बधाई.

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  9. बहुत अच्छा आलेख है आकांक्षा जी। बधाई।

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  10. बहुत अच्छा आलेख है आकांक्षा जी। बधाई।

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  11. लेखक के ऊपर दार्शनिकता और विचारक होने का ठप्पा थोपने की बजाय वह मानते हैं कि दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है, लेखक-साहित्यकार को उसका महज साक्षी बन कर चीजों को लोगों के सामने ईमानदारी से प्रस्तुत करना चाहिए....क्लेजियो के यही विचार तो उन्हें महान बनाते हैं.

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  12. आकांक्षा जी आपकी लेखनी की दाद देनी होगी, कोई भी क्षेत्र आपसे अछूता नहीं है....बधाई .

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  13. आलोचक क्लेजियो द्वारा अमेरिकी संस्कृति का बखान करने को भी इतनी सहजता से नहीं देखते हैं। यही नहीं कुछ विशेष महाद्वीपों के ऊपर स्वीडिश अकादमी की मेहरबानी भी आलोचकों की नजर से अछूती नहीं है........अब तो सारे पुरस्कार संदेहों के घेरे में हैं. योग्यता का कोई प्रमाणिक पैमाना ही नहीं बचा.

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  14. आप की विशेषता है विविधता। आपके आलेख पठनीय होते हैं।

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  15. क्लाजियो की साहित्यिक यात्रा, नोबेल पर उठते सवाल, फ्रेंह लेखकों पर ज्यादा मेहरबानी, अमेरिका की सरपरस्ती......सब कुछ इतनी सहजता से इस लेख में समाहित है कि बधाई के लिए कोई उचित शब्द नहीं मिलते.

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  16. "लेखन की महत्ता को वे बखूबी समझते हैं और लेखक के रूप में अपनी सीमाओं से बखूबी परिचित भी हैं। लेखक के ऊपर दार्शनिकता और विचारक होने का ठप्पा थोपने की बजाय वह मानते हैं कि दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है, लेखक-साहित्यकार को उसका महज साक्षी बन कर चीजों को लोगों के सामने ईमानदारी से प्रस्तुत करना चाहिए।"

    आभार आकांक्षा जी।

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  17. आकांक्षा जी ! उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग द्वारा प्रकाशित पत्रिका "उत्तर प्रदेश" में भी इस आलेख को मैंने दिल्ली के एक बुक-स्टाल पर पढ़ा था. शायद जनवरी का अंक है.

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  18. bahut hi achha lekh
    aapki kalam ke shakashakt hone ka andaaja iski ek ek line ko padhkar lagaya jaa sakta hai

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  19. आप सादर आमंत्रित हैं, आनन्द बक्षी की गीत जीवनी का दूसरा भाग पढ़ें और अपनी राय दें!
    दूसरा भाग | पहला भाग

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  20. बहुत अच्छा आलेख ....


    आभार...
    आकांक्षा जी !

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  21. राजनीति कहाँ नहीं है?....

    अच्छे सारगर्भित आलेख के लिए आकांक्षा जी को बहुत-बहुत धन्यवाद

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  22. लिखना मेरे लिए एक सफर की तरह ही है और यह मेरे भीतर से शुरू होता है और एक नई जिंदगी ही नहीं बल्कि बेहतरीन जिंदगी देता है।‘‘ आकांक्षा जी बहुत सुन्दर कार्य कर रही हैं आप हमारी शुभकामनाएँ आपके साथ है।

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  23. अमूल्य है आपका आलेख । निःसंदेह , आप बधाई की अधिकारिणी है ।

    प्रवीण पंडित

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  24. सार्थक विवेचनात्मक लेख. क्लेजियो निश्चय ही नोबल पुरुस्कार के लिये सुपात्र हैं.. आभार

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  25. बहुत ही सारगर्भित एवं सुन्दर आलेख ..क्लेजियो का समग्र साहित्य-संसार पढ़कर सुखद अनुभूति हुयी.

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  26. आप सभी की टिप्पणियों के लिए आभार !!

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  27. नोबेल पुरस्कार और क्लेजियो पर अद्भुत प्रस्तुति.

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  28. ‘‘मेरी जिंदगी का सबसे सुखद क्षण वह होता है, जब मैं कागज-कलम के साथ अपनी मेज पर होता हूँ। इसके लिए मुझे किसी सुविधा की आवश्यकता नहीं होती बल्कि मैं कहीं भी लेखन कार्य कर सकता हूँ। लिखना मेरे लिए एक सफर की तरह ही है और यह मेरे भीतर से शुरू होता है और एक नई जिंदगी ही नहीं बल्कि बेहतरीन जिंदगी देता है।‘‘ ......यह सिर्फ क्लेजियो के विचार मात्र नहीं बल्कि आत्मसात करने वाली चीज है.

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  29. आकांक्षा जी ! क्लेजियो पर आपकी यह रचना प्रकाशन विभाग, दिल्ली से प्रकाशित पत्रिका "आजकल " के मार्च,२००९ अंक में प्रकाशित हुयी है...बधाई !!!

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