और नीचे खामोशी की नदी बह रही थी
न जाने कौन-सा शब्द बहुत भारी हो गया
कि जब चलने को हुए तो पुल टूट गया...
बहुत कठोर-सी वस्तु थी वह जो हमें एक-दूसरे के बीच अनुभव हो रही थी। गुस्से की आग, स्पर्श का कुनकुनापन, देह की अगन, ईर्ष्या की जलन कोई भी उस कठोर वस्तु को पिघलाने में कामयाब नहीं हो सका। यूँ ही समय आता, हमसे किनारा कर निकल जाता। हम चेहरे पर उम्र की लकीरें खींच रहे थे, किस्मत हाथों पर।
दूरियों ने अपने कदम तेज कर लिए थे, लेकिन यादें और शिकायतें बहुत धीरे-धीरे चल रही थीं। कहीं सुना था- ‘स्लो एंड स्टडी ऑल्वेज़ वींस’, तो जो धीरे चल रहा था वह जीत गया और जो तेज कदमों से चलने के बाद रास्ते में सुस्ताने बैठ गया, वह हार गया।
शैफाली 'नायिका' माइक्रोबायोलॉजी में स्नातक हैं। आपनें वेबदुनिया डॉट कॉम में तीन वर्षों तक उप-सम्पादक के पद पर कार्य किया है। आपने आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के विभिन्न कार्यक्रमों में संचालन भी किया है।
दूरियाँ हार गईं, यादें जीत गईं, आँसुओं को इनाम में पाया तो शिकायतें धुँधला गईं। बहुत दिनों बाद फिर सामना हुआ, कोई वस्तु अब भी बीच में अनुभव हो रही थी, लेकिन वह कठोर नहीं थी समय की आग ने उसे थोड़ा नर्म कर दिया था। सुनाने के लिए अलग-सा कुछ नहीं था, मन की व्यथा एक जैसी और जानी पहचानी-सी थी। हम कुछ कहते इससे पहले ही मौन पिघल चुका था। अपनी-अपनी बातों को उसमें डुबोकर आँखों में सजा लिया।
मन की कड़वाहट, शिकायतें, गुस्सा जब मौन को इतना कठोर कर दें कि प्रेम का कोई स्पर्श उसे पिघला न सके, तो उसे समय के हाथ में सौंप दो। समय के हाथों में बहुत तपिश होती है, उसकी बाँहों में आकर मौन पिघल जाता है...
और फिर से शुरू होता है बातों का सिलसिला, असहमति, तकरार, शिकायतें, अपेक्षाएँ... और दूर कहीं प्रेम मुस्कुरा रहा होता है, समय का हाथ थामे...
13 टिप्पणियाँ
बडा काव्यात्मक गद्य है।
जवाब देंहटाएंसंवादों के पुल पर खड़े थे हम दोनों
जवाब देंहटाएंऔर नीचे खामोशी की नदी बह रही थी
न जाने कौन-सा शब्द बहुत भारी हो गया
कि जब चलने को हुए तो पुल टूट गया...
संवेदनशील लेख लिखा है आपनें।
दूरियों ने अपने कदम तेज कर लिए थे, लेकिन यादें और शिकायतें बहुत धीरे-धीरे चल रही थीं। कहीं सुना था- ‘स्लो एंड स्टडी ऑल्वेज़ वींस’, तो जो धीरे चल रहा था वह जीत गया और जो तेज कदमों से चलने के बाद रास्ते में सुस्ताने बैठ गया, वह हार गया।
जवाब देंहटाएंसंवेदना को यथोचित शब्द दिये हैं आपनें।
बहुत सुन्दर और प्रभावी लिखा है।
जवाब देंहटाएंकुछ है शैफाली की रचनाओं में जो उन्हें अपने समकालीनों से अलग करता है।
जवाब देंहटाएंसुंदर!
जवाब देंहटाएंसुंदर लेख...
जवाब देंहटाएंबधाई।
सच कहा आपने ....
जवाब देंहटाएंशेफाली जी आपने एक कश्मकश को शब्दों में पिरो दिया है, पढ कर अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंबहुत गहरी बात कह दी आपने अपने लेख के माध्यम से...
जवाब देंहटाएंजब ठहरे हुये पानी में सडांध आ सकती है तो ठहरे हुये सम्बन्धों में क्यों नहीं आयेगी... शिकवा, शिकायतें..संवाद यही तो जिन्दगी की बहाव हैं.. इनकी जरूरत है जिन्दगी और प्यार को.
संवादों के पुल पर खड़े थे हम दोनों
जवाब देंहटाएंऔर नीचे खामोशी की नदी बह रही थी
न जाने कौन-सा शब्द बहुत भारी हो गया
कि जब चलने को हुए तो पुल टूट गया…
बहुत खूब ! इतनी सुन्दर कविता पंक्तियाँ पहले कभी नहीं पढ़ीं। इन पंक्तियों ने ही इस तरह बाँध लिया कि बहुत देर तक आग बढ़कर पढ़ने को मन ही नहीं हुआ। फिर भी, बहुत मुश्किल से इन पंक्तियों के सम्मोहन से जब उबरा तो आगे पढ़ पाया। इस पोस्ट ने शायदा [ “मातील्दा” www.zubandaraz.blogspot.com] की पोस्टों की याद ताज़ा कर दी। बहुत खूब लिखा है शेफ़ाली जी ने। बधाई !
Deep Thoughts.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
achha laga padkar
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.