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आक्रोश [लघुकथा] - रचना श्रीवास्तव


चारो और लाशो का ढेर था। जिन लाशों को उनके अपनों ने पहचान लिया था, गोद में ले विलाप कर रहे थे।  लाशें जो बेसहारा थीं, अनजान हाथ उनको शव गृह तक पहुँचा रहे थे। कुछ अंदर कुछ बाहर लाशों का ढेर लगा था। इनके बीच खड़ा मै, ख़ुद को भी जिन्दा लाश समझने लगा था। इस तरह होनी है जो मौत तो जीना किस काम का? अधिकारी आ के निर्देश देते जा रहे थे। हम इनका पालन बस एक कठपुतली की तरह करते जा रहे थे। शवों के रख-रखाव का काम मेरा था, पर किस तरह करूँ समझ नही पा रहा था। घटना के २ दिन गुजरने के बाद भी बहुत सी लाशों को कोई भी पूछने वाला नही था। शव गृह अभी भी भरा हुआ था। साहब ने तभी मुझको बुलाया। कहा "मुन्ना, सुनो इन लाशों को रखने में बहुत खर्च आ रहा है।  ऊपर से आदेश है कि इनको पास वाली जो नदी है, उस में बहा दो "

"पर साहब ऐसे कैसे ."

"अरे मुझसे क्यों कह रहे हो? मुझे तो ऊपर से आदेश है। पालन तो करना ही है ना! तुम कोई गाड़ी ले आओ और इनको ठिकाने लगाओ "

"ठीक है साहब"

साहित्य शिल्पीरचनाकार परिचय:-


रचना श्रीवास्तव का जन्म लखनऊ (यू.पी.) में हुआ। आपनें डैलास तथा भारत में बहुत सी कवि गोष्ठियों में भाग लिया है। आपने रेडियो फन एशिया, रेडियो सलाम नमस्ते (डैलस), रेडियो मनोरंजन (फ्लोरिडा), रेडियो संगीत (हियूस्टन) में कविता पाठ प्रस्तुत किये हैं। आपकी रचनायें सभी प्रमुख वेब-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।

बड़ी मुश्किल से एक बंद गाड़ी मिली।  सभी लाशों को उस पर लाद के मै जाने को था कि  एक आदमी मेरे पास आ कर बोला "सुनो मेरा नाम सुधीर है। लाशों को बहाने जा रहे हो न! मै कई दिनों से इस अस्पताल के चक्कर लगा रहा था। जानता था कि एक दिन तुम यही करने वाले हो। इन को फेंकने से अच्छा है कि इन को मेडिकल कॉलेज में बेच दो। मै अच्छे पैसे दिलवा दूँगा। तुम बस मेरा कमीशन दे देना। देखो मै जानता हूँ कि तुम को पैसे की ज़रूरत है।  तुम्हारा काम भी हो जायेगा, कुछ मुझको भी मिल जायेगा और इन लाशों को सही ठिकाना मिल जाएगा.... अरे!सोच क्या रहे हो? पुण्य का काम है। मेडिकल कॉलेज में पढने वाले इन से कुछ सीखेंगे, फ़िर डाक्टर बन के निकलेंगे, लोगों की सेवा करेंगें। तुम को भी इस पुण्य का फल मिलेगा।"

'हटो मुझे जाने दो। ये डाक्टर सेवा करेंगे .........जरूर करेंगे पर केवल अमीरों की। हम गरीबों को कभी कोई नही पूछता। पिछले महीने ही मेरे बेटे ने तड़प तड़प के दम तोडा है ........किसी डाक्टर ने हाथ तक नहीं लगाया। कहने लगे पहले पैसे लेके आओ या सरकारी अस्पताल में ले जाओ ........ मै गिडगिडाता रहा ......साहब देख लो। वो अस्पताल बहुत दूर है .......पर मेरी चीख उनके लालच को पार नही कर पाई। मेरी आँखों के सामने वो मासूम मेरी ही बाँहों में दुनिया को अलविदा कह चला। मै कुछ और तो कर नहीं सकता पर........मैं अपने आँसू पोंछता हुआ गाड़ी में बैठ गया और गाड़ी नदी की और मोड़ दी। 

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14 टिप्पणियाँ

  1. डाक्टर संवेदनशून्य होते जा रहे हैं, एसे में यह विद्रोह मन के दर्द की स्वाभावित परिणति है।

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  2. मै कुछ और तो कर नहीं सकता पर........मैं अपने आँसू पोंछता हुआ गाड़ी में बैठ गया और गाड़ी नदी की और मोड़ दी।
    " यही कुछ ....पलकों को भिगो गया....."

    Regards

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  3. बहुत अच्छे। विवश आम आदमी यही कर सकता है।

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  4. सुन्दर व सार्थक लघुकथा है। आपने बहुत अच्छी तरह प्रस्तुत भी किया है।

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  5. kya kahani hai ek aam admi ki bebasi uska akrosh sabhi kuchh
    achchha likha hai
    mita

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  6. कहानी सुन्दर है ,संवेदनशील है ,सोचने पर मजबूर करती है
    रचना जी बधाई
    महेश

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  7. aap sabhi ki abhari hon ki aap ne kahani ko padha aur pasand kiya .
    aap logon ka sneh aur sahyog yun hi bana rahega asi asha hai
    dhanyavad

    rachana

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  8. आम आदमी से सरोकार रखती एक भावपूर्ण रचना.. अच्छी लगी..

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  9. अति सुन्दर और मर्म स्पर्शी कथा लिखी है।

    जवाब देंहटाएं
  10. समाज का सच बयां करती एक प्रशंसनीय लघुकथा के लिए बधाई स्वीकारें।

    -विश्व दीपक

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  11. बहुत अच्छी,
    मर्म स्पर्शी लघुकथा ....



    रचना जी ,
    बधाई।

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