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इंतज़ार [कविता] - विजय कुमार सपत्ति


मेरी ज़िन्दगी के दश्त,
बड़े वीराने है
दर्द की तन्हाईयाँ ,
उगती है
मेरी शाखों पर नर्म लबों की जगह.......!!
तेरे ख्यालों के साये
उल्टे लटके ,
मुझे क़त्ल करतें है ;
हर सुबह और हर शाम .......!!

किसी दरवेश का श्राप हूँ मैं !!

अक्सर शफ़क शाम के
सन्नाटों में यादों के दिये ;
जला लेती हूँ मैं ...

लम्हा लम्हा साँस लेती हूँ मैं
किसी अपने के तस्सवुर में जीती हूँ मैं ..

सदियां गुजर गयी है ...
मेरे ख्वाब ,मेरे ख्याल न बन सके...
जिस्म के अहसास ,बुत बन कर रह गये.
रूह की आवाज न बन सके...

मैं मरीजे- उल्फत बन गई हूँ
वीरानों की खामोशियों में ;
किसी साये की आहट का इन्तजार है ...

एक आखरी आस उठी है ;
मन में दफअतन आज....
कोई भटका हुआ मुसाफिर ही आ जाये....
मेरी दरख्तों को थाम ले....

अल्लाह का रहम हो
तो मैं भी किसी की नज़र बनूँ
अल्लाह का रहम हो
तो मैं भी किसी की " हीर " बनूँ...

विजय कुमार सपत्ति:

साहित्य शिल्पी रचनाकार परिचय:-


विजय कुमार सपत्ति के लिये कविता उनका प्रेम है। विजय अंतर्जाल पर सक्रिय हैं तथा हिन्दी को नेट पर स्थापित करने के अभियान में सक्रिय हैं। 

आप वर्तमान में हैदराबाद में अवस्थित हैं व एक कंपनी में वरिष्ठ महाप्रबंधक के पद पर कार्य कर रहे हैं।

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16 टिप्पणियाँ

  1. हीर बनो अच्‍छा है

    पर कविता से अपनी

    सबकी पीर हरो

    सब हरा हरा
    लगता है।

    जवाब देंहटाएं
  2. अच्छी कविता है। सुन्दर भाव है।

    जवाब देंहटाएं
  3. सुंदर शब्दों से रची खूबसूरत रचना...

    नीरज

    जवाब देंहटाएं
  4. अल्लाह का कर होगा विजय जी, अच्छी कविता है।

    जवाब देंहटाएं
  5. Vijay jee,
    achchhe kavita ke liye
    aapko badhaaee

    जवाब देंहटाएं
  6. जिन्दगी की विरानगी में यादों और एहसास के बहुत खूबी से जिया है आपने अपनी इस रचना में

    जवाब देंहटाएं
  7. अल्लाह का रहम हो
    तो मैं भी किसी की नज़र बनूँ
    अल्लाह का रहम हो
    तो मैं भी किसी की " हीर " बनूँ...
    तथास्तु। ऐसा ही हो। ः)

    जवाब देंहटाएं
  8. विजय जी आप भी कितने सुन्दर भाव लाते है‍। जी खुश हो जाता है ।
    अल्लाह का रहम हो
    तो मैं भी किसी की नज़र बनूँ
    अल्लाह का रहम हो
    तो मैं भी किसी की " हीर " बनूँ...

    मीठा सा।

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत अच्छा लिखा है आपने, बधाई स्वीकार करें.

    जवाब देंहटाएं
  10. बहौत अच्छी कविता है, विजय जी बहुत लिखते हैं उन्हें पहले भी पढ़्ता रहा हूँ...

    ---
    ---
    गुलाबी कोंपलें

    जवाब देंहटाएं
  11. भाई विजय

    आपकी नज़म बहुत अच्छी लगी।

    मेरी शाखों पर नर्म लबों की जगह.......!!
    तेरे ख्यालों के साये
    उल्टे लटके ,
    मुझे क़त्ल करतें है ;
    हर सुबह और हर शाम .......!!

    मगर एक छोटा सा सवाल, सच बताइये कि कितने हिन्दी भाषियों को ये तीन शब्द समझ आए होंगे - दश्त, शफ़क, दफअतन।

    तेजेन्द्र शर्मा
    लन्दन

    जवाब देंहटाएं
  12. सुंदर रचना....
    सुंदर भाव.....


    बधाई स्वीकार करें....

    जवाब देंहटाएं
  13. अच्छी कविता है लेकिन उर्दू का प्रयोग अनावशक है

    जवाब देंहटाएं

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