
मेरी ज़िन्दगी के दश्त,
बड़े वीराने है
दर्द की तन्हाईयाँ ,
उगती है
मेरी शाखों पर नर्म लबों की जगह.......!!
तेरे ख्यालों के साये
उल्टे लटके ,
मुझे क़त्ल करतें है ;
हर सुबह और हर शाम .......!!
किसी दरवेश का श्राप हूँ मैं !!
अक्सर शफ़क शाम के
सन्नाटों में यादों के दिये ;
जला लेती हूँ मैं ...
लम्हा लम्हा साँस लेती हूँ मैं
किसी अपने के तस्सवुर में जीती हूँ मैं ..
सदियां गुजर गयी है ...
मेरे ख्वाब ,मेरे ख्याल न बन सके...
जिस्म के अहसास ,बुत बन कर रह गये.
रूह की आवाज न बन सके...
मैं मरीजे- उल्फत बन गई हूँ
वीरानों की खामोशियों में ;
किसी साये की आहट का इन्तजार है ...
एक आखरी आस उठी है ;
मन में दफअतन आज....
कोई भटका हुआ मुसाफिर ही आ जाये....
मेरी दरख्तों को थाम ले....
अल्लाह का रहम हो
तो मैं भी किसी की नज़र बनूँ
अल्लाह का रहम हो
तो मैं भी किसी की " हीर " बनूँ...
विजय कुमार सपत्ति:
विजय कुमार सपत्ति के लिये कविता उनका प्रेम है। विजय अंतर्जाल पर सक्रिय हैं तथा हिन्दी को नेट पर स्थापित करने के अभियान में सक्रिय हैं।
आप वर्तमान में हैदराबाद में अवस्थित हैं व एक कंपनी में वरिष्ठ महाप्रबंधक के पद पर कार्य कर रहे हैं।
16 टिप्पणियाँ
हीर बनो अच्छा है
जवाब देंहटाएंपर कविता से अपनी
सबकी पीर हरो
सब हरा हरा
लगता है।
अच्छी कविता है। सुन्दर भाव है।
जवाब देंहटाएंसुंदर शब्दों से रची खूबसूरत रचना...
जवाब देंहटाएंनीरज
अल्लाह का कर होगा विजय जी, अच्छी कविता है।
जवाब देंहटाएंVijay jee,
जवाब देंहटाएंachchhe kavita ke liye
aapko badhaaee
जिन्दगी की विरानगी में यादों और एहसास के बहुत खूबी से जिया है आपने अपनी इस रचना में
जवाब देंहटाएंअल्लाह का रहम हो
जवाब देंहटाएंतो मैं भी किसी की नज़र बनूँ
अल्लाह का रहम हो
तो मैं भी किसी की " हीर " बनूँ...
तथास्तु। ऐसा ही हो। ः)
विजय जी आप भी कितने सुन्दर भाव लाते है। जी खुश हो जाता है ।
जवाब देंहटाएंअल्लाह का रहम हो
तो मैं भी किसी की नज़र बनूँ
अल्लाह का रहम हो
तो मैं भी किसी की " हीर " बनूँ...
मीठा सा।
बहुत अच्छा लिखा है आपने, बधाई स्वीकार करें.
जवाब देंहटाएंबहौत अच्छी कविता है, विजय जी बहुत लिखते हैं उन्हें पहले भी पढ़्ता रहा हूँ...
जवाब देंहटाएं---
---
गुलाबी कोंपलें
Waah !!! सुंदर भाव,सुंदर रचना...
जवाब देंहटाएंभाई विजय
जवाब देंहटाएंआपकी नज़म बहुत अच्छी लगी।
मेरी शाखों पर नर्म लबों की जगह.......!!
तेरे ख्यालों के साये
उल्टे लटके ,
मुझे क़त्ल करतें है ;
हर सुबह और हर शाम .......!!
मगर एक छोटा सा सवाल, सच बताइये कि कितने हिन्दी भाषियों को ये तीन शब्द समझ आए होंगे - दश्त, शफ़क, दफअतन।
तेजेन्द्र शर्मा
लन्दन
सुंदर रचना....
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव.....
बधाई स्वीकार करें....
सुन्दर....सारगर्भित कविता
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता है लेकिन उर्दू का प्रयोग अनावशक है
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता।
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.