दीपक गुप्ता [दीपक गुप्ता का जन्म 15.03.1972 को दिल्ली में हुआ। आप दिल्ली विश्वविद्यालय से कला में स्नातक हैं।
आपकी प्रकाशित कृति हैं:- सीपियों में बंद मोती (कविता संग्रह) – 1995
आप की रचनायें देश के सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित व टेलीविजन कार्यक्रमों में प्रसारित होती रही हैं।
आपको प्राप्त प्रमुख सम्मान व पुरस्कार हैं: साहित्यिक कृति सम्मान – हिन्दी अकादमी, दिल्ली – 1995-96 (कविता संग्रह – सीपियों में बंद मोती हेतु)
राष्ट्रीय राजीव गाँधी युवा कवि अवार्ड – 1992 2वं 1994 सरस्वती रत्न सम्मान, अखिल भारतीय स्वतंत्र लेखक मंच – 2004 संस्कार भारती, हापुड द्वारा सम्मानित – 2006 आदि। आप अंतर्जाल पर भी सक्रिय हैं। ]
मुझको क्यूँकर लगता है
घर तुझसे घर लगता है
हद तो ये है कभी - कभी
तू पैगम्बर लगता है
मैं तुझको पा लेता हूँ
ख़ुद में खोकर लगता है
दिल को ये मालूम है, तू
पास नहीं , पर लगता है
जबसे दर्पण देख लिया
ख़ुद से ही डर लगता है
मैं ही ख़ुद का दुश्मन हूँ
मुझको अक्सर लगता है
ऐसा उसका तंज लगा
जैसे पत्थर लगता है
10 टिप्पणियाँ
छोटी छोटी पंक्तियाँ, बडे बडे भाव
जवाब देंहटाएंछोटी सी सुई बडा करे घाव
छोटी बहर की सुन्दर गजल
जवाब देंहटाएंआते जाते इधर से हो कर आप नहीं
खफ़ा हैं हमसे, हमको ऐसा लगता है
:)
ऐसा उसका तंज लगा
जवाब देंहटाएंजैसे पत्थर लगता है
bahut khooB!!
हद तो ये है कभी - कभी
जवाब देंहटाएंतू पैगम्बर लगता है
मैं ही ख़ुद का दुश्मन हूँ
मुझको अक्सर लगता है
वाह वाह।
बेहतरीन ग़ज़ल है। बधाई।
जवाब देंहटाएंमैं तुझको पा लेता हूँ
जवाब देंहटाएंख़ुद में खोकर लगता है
दिल को ये मालूम है, तू
पास नहीं , पर लगता है
bahut sunder sabhi sher kabil-e-tareef.wah................ badhai
बहुत खूब.....
जवाब देंहटाएंDeepak ji aapki gazal ki tarif kya karun
जवाब देंहटाएंaapki chhoti bahar par pakad kamaal ki hai
ye sher bhaut pasand aaye
मैं तुझको पा लेता हूँ
ख़ुद में खोकर लगता है
ऐसा उसका तंज लगा
जैसे पत्थर लगता है
मैं ही ख़ुद का दुश्मन हूँ
मुझको अक्सर लगता है
bahut bahut khoob
मैं ही ख़ुद का दुश्मन हूँ
जवाब देंहटाएंमुझको अक्सर लगता है
वह! बहुत सुंदर ग़ज़ल है.
dil tak dastak deti hain rachna
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.