
एक समय था जब नगर–नगर में शायरी की महफ़िलें सजती थीं। उन महफ़िलों में हर शायर को एक तरह का मिसरा दिया जाता था। उसको लेकर शायर काफ़िया और बहर को निबाहते हुए ग़ज़ल लिखते थे। बेहतर ग़ज़ल लिखने की होड़ रहती थी उनमें। किस शायर की ग़ज़ल अभिव्यक्ति‚ काफ़िया–रदीफ़ और बहर की दृष्टि से श्रेष्ठ है इसका तुलनात्मक आकलन होता था। फलस्वरूप अच्छी ग़ज़लें सामने आती थीं। नए शायरों को सीखने और मंझे हुए शायरों को सिखाने का अवसर प्राप्त होता था। सर्वत्र रचनात्मक वातावरण व्याप्त होता था।

लेखक परिचय:-
प्राण शर्मा वरिष्ठ लेखक और प्रसिद्ध शायर हैं और इन दिनों ब्रिटेन में अवस्थित हैं।
आप ग़ज़ल के जाने मानें उस्तादों में गिने जाते हैं। आप के "गज़ल कहता हूँ' और 'सुराही' - दो काव्य संग्रह प्रकाशित हैं, साथ ही साथ अंतर्जाल पर भी आप सक्रिय हैं।
हिंदी काव्य गोष्ठियों का ढंग कुछ भिन्न था। मिसरा के स्थान पर उन्हें 'समस्या-पूर्ति’ दी जाती थी। उस समस्या को पूर्ण करना होता था उन्हें। अनेक पत्रिकाएं भी उस ओर अतिक्रियाशील थी। वे नई प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने और प्रकाश में लाने के प्रयास में रहतीं थी। न तो उर्दू शायरों की वे महफ़िलें रही और न ही हिंदी–कवियों की वे गोष्ठियां। न तो वह रवायत रही और न ही वो परम्परा। पत्रिकाओं के वे पन्ने लुप्त हो गए जिन पर कवियों से समस्यापूर्ति करवाई जाती थी।
उर्दू शायरी की एक स्वस्थ परम्परा है। वह यह कि किसी अच्छे मिसरे पर अन्य शायरों का अशआर लिखने का झुकाव। बड़े–बड़े शायरों को भी किसी और शायर के लिखे मिसरे पर शेर लिखने से गुरेज नहीं है। ग़ालिब‚ दाग़‚ इक़बाल‚ वफ़ा‚ शक़ील इत्यादि शायरों ने भी इस परम्परा में अपनी–अपनी लेखनी चलाई। इससे एक बड़ा लाभ यह हुआ कि इस बहाने पाठकों को अच्छे से अच्छा शेर पढ़ने को मिला और अलग–अलग शायरों की शैली‚ अभिव्यक्ति और ऊर्जा देखने को मिली।
उर्दू शायरी में ऐसे मिलते– जुलते शेरों की भरमार है। कुछ उदाहरण :-
उनके आने से जो आ जाती है मुँह पे रौनकवे समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है – ग़ालिब
अब पछताएं नहीं ज़ोर से तौबा न करेंआपके सर की क़सम दाग़ का हाल अच्छा है – दाग़
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखनाहिंदी हैं हम‚ वतन है हिंदोस्तां हमारा – इकबाल
हिंदू हो या मुसलमाँ‚ कह दो मुख़ालिफ़ों सेहिंदी हैं हम‚ वतन है हिंदोस्ताँ हमारा – रामप्रसाद बिस्मिल
फ़लक देता है जिनको ऐश उनको ग़म भी होते हैंजहाँ बजते हैं नक्कारे वहाँ मातम भी होते हैं – दाग़
खुशी के साथ दुनिया में हज़ारों ग़म भी होते हैंजहाँ बजती हैं शहनाई वहाँ मातम भी होते हैं – शक़ील
दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिएखंज़र को अपने और ज़रा तान लीजिए – रामप्रसाद बिस्मिल
दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिएबस एक बार मेरा कहा मान लीजिए – शहरयार
हम हुए तुम हुए कि मीर हुएसब तेरी जुल्फ़ के असीर हुए – मीर
सबकी मंज़िल तो एक है राहीहम हुए‚ तुम हुए‚ कि मीर हुए – सोहन राही
हिंदी कवियों का इस परम्परा की ओर ध्यान नहीं गया। संभव है कि मौलिकता में ही उनका विश्वास हो और किसी अन्य कवि की लिखी हुई पंक्ति को उठाने से घबराते हों। यदि इस परम्परा को अपनाया होता तो हिंदी ग़ज़ल के समृद्ध होने की अनेक संभावनाएं पैदा होतीं। लेकिन ऐसा नहीं हो सका है। हिंदी ग़ज़ल इन संभावनाओं से वंचित रही है। हिंदी के चंद अशआर ही ऐसे हैं जो बहर और कफ़िया–रदीफ़ में मिलते जुलते हैं।
देखिए :–
रोशनी ही रोशनी हो जाए शहर मेंइस सिरे से उस सिरे तक आग जलनी चाहिए – श्यामप्रकाश अग्रवाल
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सहीहो कही भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए – दुष्यन्त कुमार
हादसा क्या हुआ इस शहर मेंआते–जातों को हमेशा डर लगा – उषा राजे
जाने क्यों मुझको यही अक्सर लगाआपकी खामोशियों से डर लगा – प्राण शर्मा
"ग़ज़ल -शिल्प और संरचना" स्तंभ में प्राण शर्मा जी नें बहुत से महत्वपूर्ण पहलुओं और विषयों पर जानकारी से साहित्य शिल्पी के पाठकों को अवगत कराया। प्रस्तुत आलेख प्राण जी की हिन्दी बनाम उर्दू ग़ज़ल आलेख माला की अंतिम प्रस्तुति है।
ग़ज़ल पर इस स्थायी स्तंभ को प्राण शर्मा जी का सहयोग आगे भी प्राप्त होता रहेगा। अगले सोमवार से सतपाल "ख्याल" इस श्रंखला को आगे बढायेंगे।
उर्दू कई शतकों से लिखी जा रही है और मीर‚ ग़ालिब‚ दाग़‚ इकबाल‚ रामप्रसाद बिस्मिल‚ फिराक गोरखपुरी‚ इत्यादि उस्ताद शायरों का भरपूर योगदान रहा है इसमें। यह उतार पर कभी नहीं रही है। चौंकानेवाला है इसका क्रमिक विकास। दो दशक पहले गली–गली में ग़ज़ल गायक पैदा होने से ग़ज़लकारों ने उनके लिए निम्नस्तर की कुछ ग़ज़लें अवश्य लिखीं लेकिन इसका मयार उतना नहीं गिरा जितना अदबी दायरों में अंदेशा था। शायद इसी अंदेशे से घिरे निदा फ़ाज़ली ने कभी 'धर्मयुग' में बयान दिया था– 'कुछ अर्सा पहले दिल्ली के पुराने महल्लों में घर–घर बान की चारपाइयाँ होती थी जो एक–दो महीनों के इस्तेमाल से ढीली हो जाती थीं। बुनाई करनेवाले हर रोज़ 'खाट बनवा लो' की हाँक लगाकर फेरी लगाते और पैसा कमाते थे। उनकी तरह आजकल नए गायकों के घरों के सामने भीड़ जमा रहती है जो फ़रमाइशों पर ग़ज़ल लिखने आते हैं और ग़ज़ल गायक की ख़ैर मनाते है। ऐसे वक्तव्यों के बावजूद उर्दू ग़ज़ल का मयार बरक़रार रहा। फ़िल्मी ग़ज़ल में भी साहित्यिक स्वर मुखर रहा है। हल्के–फुलके गीत लिखने वाले राजेन्द्र कृष्ण ने भी उसकी मकबूलियत को बनाए रखा। इसका ज्वलंत उदारहण है उनकी कई फ़िल्मी ग़ज़लें। उनके एक शेर पर गौर फ़रमाइए :–
उनको ये शिक़ायत है कि हम कुछ नहीं कहतेअपनी तो ये आदत है कि हम कुछ नहीं कहते
कविवर शैलेन्द्र की फ़िल्मों में लिखी ग़ज़लें कम मिलती हैं। 'बेगाना' में उनकी ग़ज़ल का मतला शायरी का अच्छा नमूना है। देखिए:–
फिर वो भूली सी याद आई हैए–गम–ए दिल तेरी दुहाई है।
नए भावों¸ नए बिम्ब–प्रतीकों से सुसज्जित हिंदी ग़ज़ल छ:-सात दशकों से लगातार लिखी जा रही है। इस में अब बहुत अच्छे ग़ज़लकार आ रहे हैं लेकिन फिर भी ग़ालिब या फ़िराक़ जैसे उस्ताद शायर का अभाव नज़र आता है। लेकिन ग़ज़ल के पूरे व्याकरण की अनभिज्ञता और अन्य खामियों कमियों के कारण अब भी हिंदी ग़ज़ल का पलड़ा उर्दू के पलड़े से थोड़ा हल्का पड़ता है। अगर उर्दू ग़ज़ल बीस है तो हिंदी ग़ज़ल उन्नीस।
यदि जयशंकर प्रसाद‚ अयोध्या सिंह उपाध्याय‚ राम नरेश त्रिपाठी, सुमित्रानंदन पंत‚ माखनलाल चतुर्वेदी‚ मैथिलीशरण गुप्त‚ महादेवी वर्मा‚ भगवती चरण वर्मा, पं.नरेंद्र शर्मा, हरि कृष्ण प्रेमी, रामधारी सिंह 'दिनकर'‚ बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'‚ गोपाल सिंह नेपाली, हरिवंशराय बच्चन इत्यादि सर्वश्रेष्ठ कवि ग़ज़ल विधा से जुड़ते तो हिंदी ग़ज़ल का स्वरूप आज कुछ और ही होता। उज्जवल और सशक्त। ऐसी बात नहीं है कि अब हिंदी में उच्च स्तर के कवियों का अभाव है। ऐसे असंख्य कवि हैं जिनकी छंदहीन काव्य–पंक्तियों में भी भरपूर ऊर्जा है। उनके अंत:करणों से निकली निम्नलिखित पंक्तियों को मैं पढ़ता हूं तो रसविभोर हो जाता हूं और सोचता हूं कि यदि वे अशआर में कहीं होतीं तो उनका पढ़ने–सुनने का आनंद कुछ और ही होता:–
दर्द उंगली में हो किसर पर होउसकी पहचान की तस्वीर एक जैसी है – कन्हैयालाल नंदनकभी ये बैरी थपेड़ा था लू काआया आजख़याल तेरा सौंधी मिट्टी की खुशबू सा – दिव्या माथुरडर इस बात का है अबकि लोंगों ने छोड़ दिया हैडर से डरना – गंगाप्रसाद विमलतुम रुक न सके कभीमैं चल न सका अभीपर अजब है व्याकरणचल रहे हैं साथ–साथ – कृष्ण कुमारअफ़सोसमुझे मरने का नहींतुमसे बिछुड़ने का है – पद्मेश गुप्त
माना कि हिंदी ग़ज़ल ने कथ्य की दृष्टि से अनेक नए आयाम स्थापित किए हैं। वह ग़ज़ल विधा में अपनी भरपूर उपस्थिति दर्ज करा चुकी है और उसके कई अशआर उर्दू अशआर से आगे निकल गए हैं लेकिन फिर भी इस बात को नकारना उपयुक्त नहीं कि हिंदी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल से उन्नीस है। अच्छे–अच्छे हिंदी ग़ज़लकारों में भी कथ्य-अस्पष्टता और छंद-विधान की अनभिज्ञता अब तक बनी हुई है। अपनी पूरी पहचान बनाने के लिए इसे अभी लंबा सफ़र तय करना है। यह सफ़र तब तक चलता रहेगा जब तक सुधी पाठकों की यह धारणा नहीं बनती कि अमुक ग़ज़लकार हिंदी का ग़ालिब, ज़ौक़, दाग़ या फ़िराक़ है।
गोपाल दास 'नीरज'‚ राम प्रसाद शर्मा 'महरिष', सूर्यभानु गुप्त‚ महावीर शर्मा, सोहन राही‚ बालस्वरूप ‘राही’, कुँअर ‘बेचैन’‚ अदम गौंडवी‚ मंगल नसीम‚ देवमणि पांडे‚ ज्ञानप्रकाश ‘विवेक’‚ राजेश रेड्डी‚ मुनव्वर राणा‚ राजगोपाल सिंह, विज्ञान व्रत, ज़हीर कुरेशी, दीक्षित दनकौरी, हस्ती मल ‘हस्ती’, आलोक श्रीवास्तव, पंकज सुबीर, द्विजेन्द्र 'द्विज', ‘देवी’ नागरानी इत्यादि प्रतिबद्ध और समर्पित ग़ज़लकार हैं। ग़ज़ल को निखारने सँवारने की इनसे नाना आशाएं व संभावनाएं है। क्या पता भविष्य में ये सभी ग़ज़लकार ग़ालिब, ज़ौक़, दाग़ या फ़िराक़ की तरह उस्ताद शायर के रूप में उभर कर सामने आएं। कहते हैं न कि उम्मीद पर दुनिया कायम है।
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45 टिप्पणियाँ
बहुत अच्छा लगा आपका यह आलेख भी. बस, एक साँस में पढ़ते चले गये. निश्चित ही ये कल की गालिब, दाग और मीर साबित होंगे-बहुत शुभकामनाऐं.
जवाब देंहटाएंग़ज़ल के पूरे व्याकरण की अनभिज्ञता और अन्य खामियों कमियों के कारण अब भी हिंदी ग़ज़ल का पलड़ा उर्दू के पलड़े से थोड़ा हल्का पड़ता है। अगर उर्दू ग़ज़ल बीस है तो हिंदी ग़ज़ल उन्नीस।
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ आपसे।
प्राण जी की आलेख माला का यह अंतिम मोती है जान कर अच्छा नहीं लगा, उनके अन्य आलेखो6 की भी हमें प्रतीक्षा रहेगी। आपने हमें जो सिखाया है इसके लिये आपका धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंप्राण शर्मा जी जैसे समर्पित उस्तादों नें इस विधा में प्राण प्फ्फोंकने का काम किया है। अगर अगले ग़ालिब और मीर को हिन्दी से आना है तो व्याकरण को पकड कर चलना आवश्यक है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंThanks a lot sir.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
प्राण शर्मा जी सादर प्रणाम,
जवाब देंहटाएंबहोत ही उपयोगी जानकारी ,जो आप जैसे गुनी और श्रेष्ठ लोगों से ही जानकारी मिल सकती है ...तो क्या हम श्रेष्ठ गज़लकारों की मिसरे पे कुछ शे'र कह सकते है....??? कृपया इसकी जानकारी दें..
आपका
अर्श
बहुत अच्छा आलेख है। धन्यवाद प्राण जी।
जवाब देंहटाएंसच्ची और सटीक बात कही है आपने..
जवाब देंहटाएंबस समझने वाले समझ लें तो सब कुछ ठीक हो जायेगा..
साधुवाद ..
खुशी के साथ दुनिया में हज़ारों ग़म भी होते हैं
जवाब देंहटाएंजहाँ बजती हैं शहनाई वहाँ मातम भी होते हैं – शक़ील
प्राण जी की को पढना अपने आप मे ही एक सुखद अनुभूति है उनकी आलेख का यह अंतिम नायब अंश है, जिसको पढना रोचकता से भरपूर रहा "
Regards
प्राण जी नें अपने आलेख में "समस्या पूर्ति" की बात की है। मुझे लगता है कि पत्रिकाओं की जगह नेट इस कार्य के लिये उपयुक्त हो सकता है। कोशिश कर के देखें।
जवाब देंहटाएंप्राण सर आपने जो सिखाया है वह हमने गाँठ बाँध लिया है। आप जैसे गुरु कहाँ मिलते हैं, बहुत बारीक बारीक विषय और संदर्भ उदाहरणों के साथ प्रस्तुत कर आप हमें विषय की गहरायी तक ले गये। फिर भी प्यास अभी है और आप अपने विद्यार्थियों को निराश नहीं कर सकते। आपने वायदा भी किया है कि कुछ विषयों जिनमें अलंकार भी हैं, आप लिख रहे हैं। उम्मीद है कि आपके वे आलेख भी हम पढ सकेंगे।
जवाब देंहटाएंप्राण सर आपको हमेशा साहित्य शिल्पी पर पढते रहना चाहेंगे, इसे हम अपने अनुग्रह से अंतिम कडी नहीं होने देंगे। आपको अपने आलेखों के लिये आभार।
जवाब देंहटाएंमाना कि हिंदी ग़ज़ल ने कथ्य की दृष्टि से अनेक नए आयाम स्थापित किए हैं। वह ग़ज़ल विधा में अपनी भरपूर उपस्थिति दर्ज करा चुकी है और उसके कई अशआर उर्दू अशआर से आगे निकल गए हैं लेकिन फिर भी इस बात को नकारना उपयुक्त नहीं कि हिंदी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल से उन्नीस है। अच्छे–अच्छे हिंदी ग़ज़लकारों में भी कथ्य-अस्पष्टता और छंद-विधान की अनभिज्ञता अब तक बनी हुई है। अपनी पूरी पहचान बनाने के लिए इसे अभी लंबा सफ़र तय करना है। यह सफ़र तब तक चलता रहेगा जब तक सुधी पाठकों की यह धारणा नहीं बनती कि अमुक ग़ज़लकार हिंदी का ग़ालिब, ज़ौक़, दाग़ या फ़िराक़ है।
जवाब देंहटाएंआपके लेखन और उद्धरणों में स्पष्तवादिता प्रभावित करती है। आपके अन्य आलेखों की भी प्रतीक्षा रहेगी। गुरु अपने शिष्यों से दूर कैसे हो सकते हैं।
आपने बहुत ज्ञानवर्धन किया है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंअनुज कुमार सिन्हा
भागलपुर
आदरणीय प्राण शर्मा जी नें साहित्य शिल्पी को नयी उँचाईयाँ प्रदान की हैं। आपनें ग़ज़ल विधा और उसके हिन्दी में स्थान को ले कर जो शोध परक आलेख श्रंखला प्रस्तुत की वह अंतर्जाल पर सर्व-सुलभ होने के कारण लम्बे समय तक नव-लेखकों/शायरों का मार्गदर्शन करती रहेगी। आपका हृदय से आभार।
जवाब देंहटाएं***राजीव रंजन प्रसाद
sabhii posts qaabile tareef..bookmark kar ke sahej li hain aapki...aabhaar
जवाब देंहटाएंराजीव जी से मेरा अनुरोध है कि क्यों न इन सब लेखों के एक किताब का रूप दे दिया जाये.
जवाब देंहटाएंअगर कोइ publisher को तैयार हो जाये.
बाकी मै प्राण जी से सहमत हूँ कि कोई मिसरा उठा के लिखा जा सकता है लेकिन..एक बड़ा कटु सत्य है लोग
यहाँ पर ग़ज़ल की ज़मीनो को लेकर लड़ते हैं, मुझे याद है कि एक बार किसी महाशय ने मुझे कहा कि आपकि ये ग़जल...
लो चुप्पी साध ली माहौल ने सहमे शजर बाबा..ये ज़मीन आपने नज़ीर अकबराबादी की उठाई है .दरअसल किसी नज़्म मे नज़ीर ने बाबा का इस्तेमाल किया था और एक साहेब मिले उन्होंने एक शे’र पर आपत्ति जताई शे’र था..
एक जनाब तो बहस पड़े कि ये ग़ज़ल तो उनकी ज़मीन से है ये आपकी कैसे हो गई ये तो हाल है यहाँ पर. किसी का मिसरा उठाना तो ...
एक लड़ाई और एक शाय्र ने कहा
मैं घर मे सब से छोटा था मेरे हिस्से मे माँ आई
तो दूसरे ने कहा..
मेरे हिस्से मे अम्मा आई तो बवाल खड़ा हो गया एक कहे कि इसने मिसरा चोरी किया है तो माहौल बहुत खराब है.खुले दिमाग से सोचने बाले कम हैं एक साहेब कहने लगे शहर को आपने ग़ज़ल मे लिया तो 21 के वज़्न मे है लेकिन लिखा शहर इसे शह्र लिखो. बताओ..कौन समझाए इन्हें ये भाषा को ही बदलने की बात करते हैं. इन्होंने दुशयंत को नहीं छोड़ा...
खैर प्राण जी का धन्यवाद
सादर
ख्याल
प्राण जी के सन्देश से पता चला कि आज गज़ल पर उनकी लेखमाला का अन्तिम भाग यहाँ आया है। अभी पढ़ा तो स्वाभाविक है कि अच्छा लगा। रोचक व जानकारीपूर्ण है। जो लोग इस विधा की ऐतिहासिकता से अज्ञ थे उनके लिए तो यह सुखद अनुभव जैसा है।
जवाब देंहटाएंकुछ बातों से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ। जैसे, हिन्दी में मिलते-जुलते शे’रों का अभाव या एक ही मिसरे पर अशआर कहने की प्रथा का न होना। मेरा विचार है कि, प्राण जी क्योंकि गत लम्बे समय से यूके में ही अवस्थित हैं, सम्भवत: इसलिए वे दुष्यन्त के बाद की,निरन्तर समृद्ध हुई हिन्दी गज़ल परम्परा को देख नहीं पाए हैं। तेवरी काव्यान्दोलन तथा उसके साथ/बाद की हज़ारों गज़लें (वस्तुत: तेवरियाँ) इस तथ्य का प्रमाण हैं। इसका अपना एक स्वतन्त्र शास्त्र निर्मित हो चुका है और अब कोई भी हिन्दी गज़ल को उर्दू गज़ल की अनुगामिनी या प्रशाखा के रूप में नहीं देखता। न तुलनात्मकता की दृष्टि से। हिन्दी में गज़ल का अपना पूरा व्याकरण है और वह व्याकरण वज़्न को सही बिठाने के लिए केवल अ व ए को गिराकर पढ़ने की छूट देता है, उर्दू की तरह ‘पर’ को ‘पे’ ‘की’ को ‘के’ ‘मेरे’ को ‘मिरे’ आदि प्रकार की छूट यहाँ नहीं है। भाषाई व्याकरण को ध्वस्त करने का पूर्णत: यहाँ निषेध है(उपर्युक्त २ को छोड़कर, वह भी केवल मंच पर उच्चरित पाठ के समय)। बोलचाल वाले उच्चारणों से वज़्न बराबर करने की छूट हिन्दी में नहीं है। कुछ लोग ऐसी छूट लेने के लिए झट से अपनी गज़ल को उर्दू गज़ल से अप्रूव और सिद्ध करने के लिए जूझते हैं। पर ऐसा होना नहीं चाहिए कि केवल छूट लेने के लिए तुरन्त २-४ उदाहरण खड़े कर दिए जाएँ। यदि उर्दु गज़ल के अनुपालन की इच्छा है तो पूरे नियम उसके माने जाएँ, या फिर हिन्दी में लिखें तो पूरे नियम हिन्दी के। कहने को ‘गज़ल’ एक विधा का नाम है किन्तु गज़ल का व्याकरण हिन्दी व उर्दू का किंचित भिन्न है। छन्दों की संख्या का बड़ा अंतर है। उर्दु की भाँति गिने चुने मीटर नहीं हैं।
और एक बात यह, कि ऐसे सैंकड़ों शे’र मिल जाएँगे, जो दूसरों की ज़मीन पर लिखे गए हैं. दूसरों के मिसरे पर शे’र कहने के कई सौ उदाहरण भरे पड़े हैं। यहाँ तक कि गीत तक में ऐसा हुआ है।स्वयं मेरी व अनेक मित्रों की रचनाएँ ही प्रमाण हैं।
रही समस्यापूर्ति की बात, तो समस्यापूर्ति का प्रचलन भारतेन्दु के समय से रहा है। स्वयं उन्होंने कई ऐसे आयोजनों में भागीदारी की। ध्यातव्य है कि समस्यापूर्ति हिन्दी में गज़ल विधा तक सीमित कभी नहीं थी। सवैये तक लिखे गए इस विधान से।
और हाँ, आज भी ऐसी पत्रिकाएँ हिन्दी में हैं जो लगभग १२५ पन्ने की सामग्री केवल दिए गए विषय पर(समस्यापूर्ति)आई हुई सैंकड़ों कवियों की रचनाएँ ही छापती हैं। यह बात दीगर है अच्छे कवियों की भागीदारी इनमें नगण्य होती जा रही है। वस्तुत: पत्र पत्रिकाओं व पाठकों के मध्य का अन्तराल इस प्रकार की जानकारियों को आधिकारिक होने में व्यत्यय बनता है।
शर्मा जी के प्रति आभारी हूँ कि उनके लेख ने विचार करने को बाध्य किया और लिखना भी सम्भव।
कुछ और भी बातें हैं, उन्हें लिखना फिलहाल टालना पड़ रहा है।
धन्यवाद।
मै कविता जी के बात से सहमत हूँ कि या तो इस तरफ़ या उस तरफ़ लेकिन हिंदी और उर्दू के बीच की रेखा बहुत पतली है माँ और मासी के लिये ये झगड़ा खड़ा करना सांप्रदायकिता है और ये हिंदी ग़ज़ल के लिए अलग से कौन सा शास्त्र बन गया है, शब्दों को लेकर तो चर्चा हो सकती है लेकिन नियम ही अलग हो गए हैं ये तो बाकई नई बात है . हमें भी बताएँ . मै तो ये समझता हूँ कि ग़ज़ल को अलग से हिंदी ग़ज़ल कहने की ज़रूरत क्या है.
जवाब देंहटाएंसही कहा आपनें कि "क्या पता भविष्य में ये सभी ग़ज़लकार ग़ालिब, ज़ौक़, दाग़ या फ़िराक़ की तरह उस्ताद शायर के रूप में उभर कर सामने आएं। कहते हैं न कि उम्मीद पर दुनिया कायम है।"
जवाब देंहटाएंbahut achha lekh laga,udharan ke taur liye sher bahut achhe lage.
जवाब देंहटाएंइस आलेख में बहुत कुछ नई और हट कर बातें जानने को मिलीं। शायद कहीं निदा जी के साक्षात्कार में सुना/पढा था कि गज़ल गज़ल होती है-हिंदी गज़ल या उर्दू गज़ल नहीं। लेकिन प्राण जी और कविता जी की बातों से लगा कि गज़ल अब बँट चुकी है।
जवाब देंहटाएंमैं बस यह जानना चाहूँगा कि किस गज़ल को उर्दू कहेंगे और किसे हिंदी। और ऎसे तो उर्दू भी शुद्ध नहीं तब तो अरबी , फारसी और न जाने कितनी तरह की गज़लें हो गईं। तो क्या किसी गज़ल को उर्दू गज़ल तब हीं कहेंगे जब उसमें बस उर्दू के हीं शब्द हों और उर्दू लिपि में हों और हिंदी गज़ल तब जब हिंदी के अलावा किसी भी भाषा के शब्द न हों।
कृप्या मेरी शंका का निवारण करें। और राजीव जी से निवेदन करूँगा कि इस विषय पर खुलकर लिखने के लिए वे कविता जी से भी आग्रह करें और हाँ प्राण जी! कृप्या आप इसे अंतिम कड़ी घोषित न करें। आपका लिखा पढकर बहुत कुछ सीखने को मिलता है।
-विश्व दीपक
प्राण जी आपने गजब का आलेख प्रस्तुत किया । कई जानकारिया भी मिली । जहां तक हिन्दी और उर्दू की समानता की जाये तो जाहिर सी बात है कि हिन्दी जरूर पीछे रह जाती है । वर्तमान में तो दोनों ही क्षेत्र से बहुत अधिक आशाये नहीं है । साहित्य से कम होता लगाव इसका प्रमुख कारण है । जो कुछ नये नाम आपने ने गिनाये है उन्ही नामों से उम्मीद है ।
जवाब देंहटाएंAAJ SAHITYA SHILPI PAR MERE LEKH
जवाब देंहटाएंKEE ANTIM KADEE HAI.AAP SABNE GAT
KUCHH SAPTAON SE JO MERAA SAATH DIYA HAI VAH NISSADEH MERE LIYE
PRERAK SHAKTI RAHAA HAI.AAP SABKAA
SAATH AVISMARNIY RAHEGAA.
MAIN SHRI RAJIV RANJAN
AUR UNKE SAATHION KAA AABHAAREE
HOON JINHONE MERE LEKH KO APNE
E-MAGAGINE "SAHITYA SHILPI" PAR
LAGAAYAA.UNKE AUR UNKE SAHITYIK
SATHION KEE SAAHITIK KARMATHAA KEE BHARPOOR PRASHANSHAA
KARTAA HOON MAIN.AADARNIY MAHAVIR
SHARMA JEE KAA BHEE AABHAAREE HOON.
UNKE PROTSAAHAN AUR SAHYOG KE BINAA
MAIN YAH KAARYA POORA NAHIN KAR PAATAA.
गज़ल पर प्राण शर्मा जी के लेखों की यह अंतिम कड़ी है। इन लेखों से बहुत कुछ सीखा है और आशा है कि शर्मा जी आगे भी ऐसे लेखों से जिज्ञासु पाठकों की ज्ञान-वृद्धि करते रहेंगे।
जवाब देंहटाएंटिप्पणियों का एक लाभ यह भी है कि यदि किसी को कोई आशंका होती है तो लिख कर अपने विचार प्रकट कर सकते हैं और उत्तर देने का अवसर भी मिल जाता है।
कविता वाचक्नवी जी के प्रश्न विचारनीय हैं।
पहली बात तो यह है कि आपने कहा है कि प्राण जी गत लम्बे समय से यू के में रहने के कारण दुष्यंत के बाद की, निरन्तर समृद्ध हुई हिन्दी ग़ज़ल परम्परा को देख नहीं पाए हैं। मैं इससे सहमत नहीं हूं। आज इन्टरनेट और प्रकाशकों की भरमार के कारण पूरा विश्व व्यक्ति के एक कमरे में समा गया है। साहित्य और ज्ञान किसी भौगोलिक सीमाओं में सीमित नहीं होता। भारत में रहने वाले भारतीय क्या पाश्चात्य साहित्य की परम्परा से अनभिज्ञ रहते हैं? सच कहा जाए तो कुछ भारतीय विद्वान भारत में रहते हुए भी पाश्चात्य साहित्य के बारे में अंगरेजों से भी
अधिक जानते हैं। अत: भौगोलिक सीमा का प्रश्न भ्रमात्मक है, यह सही नहीं है कि विदेश में रहने वाले हिन्दी साहित्य की गति-विधि से अवगत ना हों।
दूसरे आपने लिखा है कि हिन्दी ग़ज़ल का शास्त्र निर्मित हो चुका है। पहले तो यह कहूंगा कि ग़ज़ल का कोई शास्त्र नहीं होता है, शास्त्र काव्य का होता है जैसे काव्य-शास्त्र। वही काव्य-शास्त्र दोहा,
कविता, ग़ज़ल आदि में लागू होता है। इसलिए ग़ज़ल का शास्त्र कहना अनुचित है। हां, शायरी का शास्त्र कहें तो अधिक उचित लगेगा।
वैसे कोई हिन्दी ग़ज़ल का शास्त्र बन गया हो तो मैं इससे अनभिज्ञ हूं, आप किसी ऐसी मान्य पुस्तक से अवगत कराएं तो आपका आभार होगा।
तीसरे, शर्मा जी ने इस लेख में जो उदाहरण दिए हैं, वे दुष्यंत के बाद के शायरों के अशआर दिए हैं।
जहां तक 'मेरा' को 'मिरा' आदि में छूट की बात की है, उसके बारे में शर्मा जी ने पिछली कड़ियों में स्पष्टीकरण कर दिया है जैसे भक्तिकालीन कवियों नें भी इस प्रकार मात्राओं को गिराया है और तुलसी,कबीर आदि के उदाहरण भी दिए हैं।
यदि शर्मा जी के सारे लेखों का अध्ययन किया जाए तो बहुत से प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं।
जहां तक हिन्दी ग़ज़ल में उर्दू के शब्दों के प्रयोग की बात है, कुछ उर्दू या यहां तक कुछ अंग्रेजी शब्दों से भी छुटकारा नहीं हो सकता। जैसे आपने ही 'दीगर' शब्द का प्रयोग किया। ऐसे ही रेल,
स्टेशन आदि अंग्रेजी शब्दों से कहां तक बच पाएंगे?
अंत में, कविता जी के हम आभारी हैं कि आपके कुछ प्रश्नों से शर्मा जी के पिछले अंकों को दोबारा पढ़ने की उत्सुक्ता हो गई है।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि कविता वाचक्नवी जी आधुनिक हिन्दी साहित्य की स्तरीय लेखिका हैं।
धन्यवाद।
YAH BAAT MAIN BHEE MAANTAA HOON KI
जवाब देंहटाएंGAZAL GAZAL HOTEE HAI AUR MAINE
APNE LEKH KE PRARAMBH MEIN ISKA
VARNAN BHEE KIYAA HAI.LEKIN MAINE
HAMESHAA PADHAA HAI KI GAALIB YAA
DAAG URDU KE USTAAD GAZALGO THE .
MAINE HAMESHA PADHA HAI KI MANTO
YAA RAJENDRA SINGH BEDI URDU KE
BEHTREEN AFSAANA NIGAAR THE.HAAL HEE MEIN MUJHE EK SAJJAN MILE.
POOCHHNE LAGE --SHARMA JEE,"TUSSEE,
AJMER COVENTRY DAA SUNIYE HAI,BADEE
SOHNIAN PUNJAABEE DIAN GAZALAAN
LIKHDE HAN" MANA KI GAZAL GAZAL HAI
LEKIN VAH JIS LIPI YAA BHAASHA MEIN
KAHEE JAA RAHEE HAI TO US LIPI AUR
BHASHA KAA GAZAL SE SAMBANDH JODNE
MEIN HARZ HEE KYAA HAI.Dr.KUNWAR
BECHAIN NE BAADAA STEEK KAHAA HAI-
"GAZAL HEE KYON,KYA GEET KE SAATH
YE SHABD NAHIN LAGTE?YADI YAH UCHIT
NAHIN HOTA TO BHASHA VISHESH KO
VIDHAA VISHESH KAA VISHESHAN BANAA KAR "BANGLA GEET", "MARAATHI GEET",
"GUJRATEE GEET", 2PUNJAABI GEET"
AADI NAAM KYON DIYAA JAATAA?YAHAN TAK KI HINDI KEE UPBOLIYON KE
VISHESHAN LAGAAKAR "BHOJPOOREE GEET", "AVADHEE GEET" ,"BRAJ GEET"
AADI VISHESHAN BHEE LAGAAYE JAATE
RAHE HAIN.ISKAA AASHAY YAHEE HAI KI BHASHAGAT VISHESHAN LAGAANE SE KISEE BHASHAA MEIN PANAPTEE HUEE KISEE SAHITYA VIDHAA KEE VAASTVIK
AUR GAHREE PAHCHAAN KO DHOONDHAA JAA SAKTA HAI AUR DOOSREE BHASHAAON
MEIN STHAAPIT KISEE SAHITYA-VIDHAA SE TULNAATMAK ROOP MEIN USE JAANAA
AUR PARKHA JAA SAKTA HAI--------"
प्राण जी !
जवाब देंहटाएंआभार आपका.... पूरी श्रंखला ही अति-उत्तम है....अंतिम कड़ी ना कहें....चुनिंदा गज़ल, शेर....अगर पढवा सकते हैं तो.....अवश्य पढवाइयेगा..... ध्न्यवाद...
mai Mahavir ji ki baat se sahmat hoon ki hame bhi pata chale ki vo kaun sa shast'r hai jo hindi vidha ke liye alag se bana hai.
जवाब देंहटाएंhindi aur urdu ko aap chah kar bhi alag nahi kar sakte.bhasha identify karne ke liye to sahi hai lekin jhagaRne ke liye nahi.dono hindustan ki bhaashayen hain. Buraee hindi ghazal ya urdu ghazal kahne me nahi hai, soch me hai. Ab alag se kaun se niyam izaad huee aur kisne kiye ye jan'na zarooree hai.Kavita ji se anurodh hai ke vo jaankaarii pesh kareN.
saadar
khyaal
Pran ji aapne Bhojpuri geet, avdhi geet ka udaharn dekar bhaut sari baat ko apne aap hi suljha diya
जवाब देंहटाएंshbad ehsaas bayan karne ka madhyam hai bus baat saral shabdon main kahi jaaye taki sabhi ke samjh main aa sake
phir wo urdu ka shabad ho yaa hindi ka kya farq padta hai
Zayada kathin hindi bahut se logon ko nahi samjh ayegi
aise hi zayada kathin urdu ke saath hai
mere khyaal se hamara main concern apne ehsaas ko saral shabdon mein bayani ka hona chahiye
Respected kavita ji,
जवाब देंहटाएंAap internet ki duniya main jaha hum sabhi door rahne wale log isi ke zariye sahitya ko padh rahe hain
shayad mujhe lagta hai ki internet hi zayada behatr madhyam hai
kitaaben to bhaut kam achhe shayron ki publish hoti hai
blog main aur site main aaj kal ke naye logon ko hi padha jaa raha hai
to mujhe lagta hai jo log net se jude hain wo adhunik samaaj se apne aap jude hain
Pran ji ki bahut padhne ki aadat ne hamesha hi mujhe bhaut preit kiya hai
unke jitne udaharhan aur alag alag shayar ka ek saath usi tarah ka sher likhna saral nahi hai
Ye Pran ji jaise Guru aur bhaut padhne wale vayakti hi kar sakte hain
Krpiya hindi gazal ke nayi vidha ka vistaar mein ullekh karen aur kaha kis prakashan se kitaab uplabdh ho sakti hai wo bhi batayiyega
main zarur padhna chahungi
mere jaise alpgyaani ke liye ye bhaut badhi madad hogi
bahut bahut dhanyvaad
Shrddha
प्राण जी की इस ज्ञान वर्धक श्ह्रंख्ला के लिए शुक्रिया, आगे भी ऐसे ही मार्गदर्शन की उम्मीद है
जवाब देंहटाएंसचमुच पहले सिर्फ ग़ज़ल सुनी ही थी, पर इस श्रृंख्ला के बाद उसकी आलोचना भी करने की औकात हो गई हमारी
जवाब देंहटाएंप्राण जी को इस हृदय सागर से धन्यबाद
किसी एक विषय पर विचार भिन्न होने का यह अर्थ कतई नहीं होता कि दो लोग परस्पर विरोधी या अलग अलग खेमे के हैं. जो लोग झट से चीजों को ऐसा रूप देकर आगे बढ़ते हैं, उन लोगों से बातचात को आगे बढ़ाने की सम्भावनाएँ नहीं रहतीं क्योंकि वे तथ्य के लिए नहीं अपितु अपने तर्क को अन्तिम प्रमाणित करने के लिए जुटे हुए होते हैं। प्राण जी मेरे अच्छे मित्र हैं, अतीव स्नेह करते हैं व मैं भी उनका मान करती हूँ। साहित्यिक परिदृश्य को खंगाल कर देखिए तो लोग जम कर बहसें किया करते थे, और बिना परस्पर वैमनस्य के।
जवाब देंहटाएंमहावीर जी ने मेरी टिप्पणी को इसी अर्थ में लिया प्रतीत होता है। अस्तु!
इंटरनेट के कारण विश्व के कमरे में समाने की बात हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में कितनी बेमानी है, यह सब जानते हैं। इंटरनेट पर हिन्दी की आयु क्या है? जुम्मा जुम्मा आधा दर्जन वर्ष भी नहीं। उस पर हिन्दी की नेट वस्थिति के गति पकड़ने का काल? कुल जमा २ वर्ष भी नहीं। उस पर जितना कुछ नेट पर हिन्दी में है,उसमें ‘साहित्य’ का प्रतिशत क्या है? कुल जमा १० प्रतिशत भी पूरा नहीं।
अब आई प्रकाशकों की बात।
क्या यह किसी से छिपा हुआ है कि प्रकाशकों द्वारा हिन्दी में कितने प्रतिशत साहित्य छापा जा रहा है।
जो व जितना हिन्दी में छापा जा रहा है, उसमें काव्य विधा का कितना है? साहित्य का प्रत्येक विद्यार्थी जानता है कि कविता हिन्दी साहित्य की केन्द्रीयविधा नहीं है, कविता कब से हाशिए पर जा चुकी है। खैर आगे बढ़ते हैं... जितना काव्य छापा भी गया हो उसमें काव्य की पुस्तकों में से कितने प्रतिशत छान्दसिक व कितनी अछान्दसिक हैं? छान्दसिक में कितनी मुक्तक, कितनी गीत, कितनी दोहे, कितनी गज़ल?
और एक सबसे बड़ा प्रश्न प्रकाशक किन हिन्दी लेखकों को छापते हैं? हिन्दी के असल लेखक की स्थिति किसी से छिपी है क्या? कि प्रज्काशक केवल उन्हें छापते हैं जिनसे बदले में उनके प्रकाशन आदि की खरीद का विश्वविद्यालयों आदि में निर्गम हो सके। या उसे जो उन्हें किसी न किसी रूप में प्रमोट कर सके, आय के स्रोत में सहायक बन सके। तिस पर लेखकों की जमात का भी राजनीति के मोहरे बदलने के साथ पद, पुरस्कार,पुस्तक और प्रकाशन में गिरना-चढ़ना।
ऐसे में कितने प्रकाशकों ने कितना साहित्य, किस रचनाकार का व किस विधा का कब छापा, यह निस्सन्देह पाठकीयचेतना वालों के लिए शर्म की बात है। ऐसे में कितना साहित्य देश-विदेश में बैठे लोगों तक पहुँचा, इसका अनुमान लगाना कोई कठिन नहीं है। असली लेखक तक पहुँचने के लिए बरसों खाक छानने के बाद भी कोई पहुँच ही जाएगा - यह सन्दिग्ध है।
कोई भी साहित्यिक परिदृश्य को जानने वाला सहज ही इसका अनुमान लगा सकता है कि स्थिति कितनी भयावह है. भारत में बैठे तथाकथित पढ़े-लिखे लोग तक इस पाठकीय साहस के अभाव में चर्चा चर्वण करते हुए ज्ञान की खोज में श्रम करते हैं...। उलटे जब कोई असली तस्वीर दिखाने का यत्न करे तो उसे ही लताड़ कर चुनौती देते हैं कि अगर आपकी बात सच है तो आईये हमें प्रमाण दिखाईये।
अन्य टिप्पणियों के सन्दर्भ में कहना है कि यदि वास्तव में चुनौती देने वालों को ज्ञान की पिपासा है तो वे स्वयं थोड़ा श्रम करें। कष्ट उठाएँ, खोज-खोज कर पढ़ने की आदत डालें। इसे मेरी विनम्र प्रार्थना समझा जाए। न शास्त्रार्थ में रुचि है, न मुझे उसकी आवश्यकता लगती है। जिन्हें मेरे विचार पसन्द न हों, वे उन्हें यहीं छोड़ दें, आगे बढ़ें।
यदि प्राण जी अथवा किसी को कष्ट पहुँचा है तो उसका मुझे खेद है।
आलेख की प्रस्तुति और शेरों का संकलन रोचक लगा .
जवाब देंहटाएं-विजय तिवारी ' किसलय '
GEETA PANDIT JEE,
जवाब देंहटाएंACHCHHE GAZALON KO
PADHVAANE KEE MAIN AAPKEE
AAKANGSHA AVASHYA HEE POOREE
KARUNGAA BHAVISHYA MEIN.SHREE RAJIV
RANJAN JEE KAA AADESH CHAAHIYE.
लेखमाला तो रोचक रही ही, इससे उभरे प्रश्न भी विचारोत्तेजक रहे.
जवाब देंहटाएंलेखन ,प्रकाशन और और पाठकीय चेतना विषयक मुद्दे गहरे और सघन मंथन की अपेक्षा रखते हैं.
रही बात हिन्दी में ग़ज़ल की परंपरा की , तो इससे इनकार नहीं किया जाना चाहिए कि उर्दू की नयी ग़ज़ल तक ने उससे बहुत कुछ सीखा है.
माना कि ग़ज़ल अंततः ग़ज़ल है लेकिन जिस भाषा और देशकाल में उसे रचा जाता है ,उनकी अपनी विशिष्टताओं की उपेक्षा नहीं की जा सकती. इस सन्दर्भ में देखें तो आप पायेंगे कि हिंदी की गज़लियत उर्दू से काफी फर्क है क्योंकि वह अपनी जड़ें जिस ज़मीन में तलाशती है,उर्दू की परंपरा उससे छिटकती दिखाई देती है.हाँ, जहाँ यह ज़मीन एकसी है वहाँ तमाम भाषाओँ की ग़ज़ल भी एक सी है.
किस्सा कोताह कि किन्हीं भी दो भाषाओँ की किसी समान काव्यप्रवृत्ति में समानताओं के साथ ही भिन्नताओं का मिलना स्वाभाविक है-- यह भिन्नता ही उन्हें स्वतंत्र पहचान प्रदान करती है अतः इसका सम्मान किया जाना चाहिए. हिंदी की ग़ज़ल में भी वस्तु और शिल्प के स्तर पर परंपरागत उर्दू की ग़ज़ल से जो भिन्नता है,उसे स्वीकारने में संकोच कैसा!
जैसे ही आप इस भिन्नता को स्वीकार करेंगे , इसका शास्त्र भी स्वतः उद्घाटित हो जायेगा.
पहले तो ये जान कर उअदास हूँ कि ये इस कड़ी का आखिरी पन्ना था। राजीव जी आप ऐसा नहीं कर सकते...प्राण जी से कहिये और बढ़ायें इस श्रींखला को। अभी तो प्यास के ’प’ भी नहीं पहुँच पाये थे हम ’याचक-गण’....
जवाब देंहटाएंएक बेमिसाल आलेख रहा ये और टिप्पणियॊं में भी जारी रहा है...
प्राण जी हम सब आपके बहुत आभारी हैं कि अपनी ग्यान-गंगा में हमें भी डूबकी लगाने का अवसर दिया आपने\ महज इतनी विनती है कि इस गंगा के रूख को मोड़िये नहीं अभी---बहने दिजिये इसे और और और और
श्री प्राण शर्मा जी ने गजल विधा पर हमेँ विस्तार से और गहरी से बतलाया आभारी हैँ और सहेजकर पढेँगे -
जवाब देंहटाएंसाहित्य शिल्पी का ये प्रयास
बहुत दिनोँ तक याद रहेगा
विनीत,
- लावण्या
क्या हिंदी और उर्दू की गज़ल को या अन्य किसी भी लेखनी को उन्नीस-बीस की तराज़ू में तोल कर देखना चाहिए। कभी मार्क ट्वेन ने कहा था-EAST IS EAST AND WEST IS WEST AND NEVER THE TWAIN SHALL MEET. इसी प्रकार हर भाषा की अपनी शैली, अपनी मिठास और अपना व्याकरण! भी हो सकते हैं।
जवाब देंहटाएंArsh jee,
जवाब देंहटाएंjab Shakeel badayunee,shayaryar
aur sohan rahi jaese shayar kramsha Daag,Ram Prashad Bismil
aur Mir ke misron par gazalen kah
sakte hain to aap kyon nahin?Agar
aapne kisee anya shayar kaa misra
liyaa hai to uskaa sdhanyawaad ullekh karnaa chahiye aapko.
सब गुणी जनो से आस है कि वो नेट पर साहित्य का प्रतिशत बढ़ायेंगे और ..
जवाब देंहटाएंजो जिस भावे नानका ताहि गल्ल चंगी..
सुबह-सुबह इस शब्द ने आंखे खोल दी और हर बात का उत्तर दे दिया.
लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है
सब गुणी लोगों से अनुरोध है कि संवाद जारी रखें विवाद नही.
एक महत्वपूर्ण आलेख के लिए प्राण जी बधाई के पात्र हैं और उसे प्रकशित करने के लिए आप भी.मिलती जुलती गज़लों को पढ़कर बहुत अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंचन्देल
hindi gajal ke bare me jo apne chinta vyakt kari veh har gajal lekhak ko sochne ke liye majboor karegi aesa mera manna hai
जवाब देंहटाएंyeh bhee sach hai ki apka yeh lekh bhavishya me naya aate hue gajal karon ko nai disha va iss vidha ke liye samarpit hone ke liye bhi prerit karengi me apko iss lekh ke liye badhai deta hoon tatha vishvas karta hoon ki bhavishya me bhi iss tarah ke lekh likh kar aane vaali pidion ko prerit karte rahenge
iske saath hi aanya lekhkon ko sahitya shilpi me padna kafi sukhad laga
ashok andrey
उर्दू वाले-हिन्दी वाले, लुत्फ़ से महरूम हैं,
जवाब देंहटाएंपर ग़ज़ल वाला, ग़ज़ल में खो गया पीने के बाद
ye waali tippanni bhi anonymous kar rahaa hoon
pran ji ko dikha kar ise bhi deleat kar dena ,pahle ki tarah
गज़ल को सीखने-जानने के इच्छुक सभी व्यक्तियों के लिये यह श्रंखला बहुत उपयोगी साबित हो रही है। प्राण जी ने अपने लेखों में हिन्दी और उर्दू गज़ल पर विस्तार से चर्चा कर इसे और भी लाभप्रद बना दिया है।
जवाब देंहटाएंमैं इस बात से सहमत हूँ कि हिन्दी और उर्दू गज़ल अपने आप में अलग नहीं हैं परंतु देश-भाषा और समय का असर हमेशा साहित्य की हर विधा पर पड़ता रहा है और गज़ल भी इससे अछूती नहीं रह सकती। शायद यही बताने के लिये आदरणीय कविता वाचक्नवी जी ने हिन्दी गज़ल के कुछ भिन्न नियमों का यहाँ ज़िक्र किया है। इसे मैं साहित्य पर देश-भाषा के इसी प्रभाव के परिप्रेक्ष्य में देखता हूँ। इससे किसी को भी आहत या परेशान होने की ज़रूरत मुझे प्रतीत नहीं होती वरन यह तो साहित्य की सतत जीवंतता का प्रमाण है।
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.