
तकरीबन 1000 साल से भी पहले ग़ज़ल का जन्म ईरान मे हुआ और वहाँ की फ़ारसी भाषा मे ही इसे लिखा या कहा गया. माना जाता है कि ये "कसीदे" से ही निकली. कसीदे राजाओं की तारीफ मे कहे जाते थे और शायर अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए शासकों की झूठी तारीफ़ करता था और विलासी राजाओं को वही सुनाता था जिससे वो खुश होते थे.शराब , कबाब और शबाब के साथ राजा कसीदे सुनते थे और विलासी राजा औरतों के ज़िक्र से खुश होते थे तो शायर औरतॊं और शराब का ज़िक्र ही ग़ज़लों मे करने लगे वो चाहकर भी जनता का दुख-दर्द बयान नही कर सकते थे.तो ग़ज़ल का मतलब ही औरतों के बारे मे ज़िक्र हो गया.यही पर इसका बहर शास्त्र बना जो फारसी में था.
मुग़ल शासक जब हिंदोस्तान आए तो अपने साथ फ़ारसी संस्कर्ति भी लाए और जहाँ,-जहाँ उन्होने राज किया वहाँ की अदालती और राजकीय भाषा बदल कर फारसी कर दी इस से पहले यहाँ पर शौरसेनी अपभ्रंश भाशा का इस्तेमाल होता था जो आम बोलचाल की भाषा न होकर किताबी भाषा थी जो संस्कृत से होकर निकली थी.जब अदालती भाषा और सरकारी काम काज की भाषा फ़ारसी बनी तो लोगों को मज़बूरन फ़ारसी सीखनी पड़ी.यहाँ के कवियों ने भी मज़बूरन इसे सीखा और ग़ज़ल से हाथ मिलाया और इसका बहर शास्त्र सीखा जिसे अरूज कहा जाता था. इसका वही रूप जो इरान मॆ था यहाँ भी वैसा ही रहा.यहाँ एक बात का ज़िक्र और करना चाहता हूँ ये सब शासक मुस्लिम थे सो इन्होनें मुस्लिम धर्म और फ़ारसी का खूब प्रचार किया् ये सिलसिला सदियों चलता रहा.
अब बात करते हैं12वीं शताब्दी की, दिल्ली मे अबुल हसन यमीनुद्दीन ख़ुसरो देहलवी (1253-1325) ने लीक से हटकर साहित्य को खड़ी बोली (या आम बोली जो उस वक्त दिल्ली के आस-पास बोली जाती थी) मे लिखा और वे फ़ारसी के विद्वान भी थे इन्होंने फ़ारसी और हिंदी मे अनूठे प्रयोग किए उस वक्त बोली जाने वाली भाषा को खुसरो ने हिंदवी कहा.
रचनाकार परिचय:-
सतपाल ख्याल ग़ज़ल विधा को समर्पित हैं। आप निरंतर पत्र-पत्रिकाओं मे प्रकाशित होते रहते हैं। आप सहित्य शिल्पी पर ग़ज़ल शिल्प और संरचना स्तंभ से भी जुडे हुए हैं तथा ग़ज़ल पर केन्द्रित एक ब्लाग आज की गज़ल का संचालन भी कर रहे हैं। आपका एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशनाधीन है। अंतर्जाल पर भी आप सक्रिय हैं।
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल
दुराये नैना बनाये बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ न दारम ऐ जाँ
न लेहु काहे लगाये छतियाँ
चूँ शम्म-ए-सोज़ाँ, चूँ ज़र्रा हैराँ
हमेशा गिरियाँ, ब-इश्क़ आँ माह
न नींद नैना, न अंग चैना
न आप ही आवें, न भेजें पतियाँ
यकायक अज़ दिल ब-सद फ़रेबम
बवुर्द-ए-चशमश क़रार-ओ-तस्कीं
किसे पड़ी है जो जा सुनाये
प्यारे पी को हमारी बतियाँ
शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़
वरोज़-ए-वसलश चूँ उम्र कोताह
सखी पिया को जो मैं न देखूँ
तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ
यहीं से आधुनिक साहित्य का जन्म हुआ और आम भाषा का इस्तेमाल शुरू हुआ . खुसरो ने पूरे हिंदोस्तान मे फ़ारसी का प्रचार किया और फ़ारसी धीरे-धीरे फ़ैलती गई . जब ये अदालतों की भाषा बनी तो लोगों को इसे सीखना पड़ा.हम खुसरो को पहला गज़लगो भी कह सकते हैं.
अब बात करते हैं कि ये उर्दू क्या है ?
'उर्दू' एक तुर्की लफ़्ज है जिसके अर्थ हैं : छावनी, लश्कर। 'मुअल्ला' अरबी लफ़्ज है जिसका अर्थ है : सबसे अच्छा। शाही कैंप, शाही छावनी, शाही लश्कर के लिए पहले 'उर्दू-ए-मुअल्ला' शब्द का इस्तेमाल शुरू हुआ। बाद में बादशाही सेना की छावनियों तथा बाज़ारों (लश्कर बाज़ारों) में हिन्दवी अथवा देहलवी का जो भाषा रूप बोला जाता था उसे 'ज़बाने-उर्दू-ए-मुअल्ला' कहा जाने लगा। बाद को जब यह जुबान फैली तो 'मुअल्ला' शब्द हट गया तथा 'ज़बाने उर्दू' रह गया। 'ज़बाने उर्दू' के मतलब 'उर्दू की जुबान' या अँगरेज़ी में 'लैंग्वेज ऑफ उर्दू'। बाद में इसी को संक्षेप में 'उर्दू' कहा जाने लगा। ये उस वक्त की एक मिली-जुली भाषा थी.फिर ये भाषा मुस्लिम समुदाये के साथ जोड़ दी गई ये काम 17 वीं शताब्दि मे अंग्रेजों के आने के बाद हुआ.इसी भाषा मे धर्म का प्रसार-प्रचार हुआ.इसी दौरान उर्दू अदालती भाषा बनी और आज तक हमारी अदालतों मे इसका इस्तेमाल देवनागरी लिपी मे होता है.
ये भाषा उस वक्त दिल्ली की साथ-साथ पूरे देश की भाषा थी जिसे उर्दू से पहले हिंदोस्तानी कहा जाता था और ये यहाँ के लोगों की आम बोल-चाल की भाषा थी जिसे सियासतदानों ने धर्म के साथ जोड़ दिया और ये मुस्लिमों की भाषा के रूप मे जानी जाने लगी. जबकि सच ये है कि खालिस हिंदुस्तानी भाषा थी जो दो लिपियों मे लिखी जाती थी. एक बोली की दो लिपियाँ थी.बोली एक थी लिपियाँ दो थी लेकिन सियासत ने इस मीठी ज़बान का गला घोंट दिया और हिंदी हिंदूओं की और उर्दू मुस्लिमों की भाषा बन गई और इसी आधार पर आगे जाकर मुल्क का बँटवारा हुआ.
खैर! वापिस चलते हैं 17 वीं सदी मे. जैसे दिल्ली मे फ़ारसी और इस्लाम का प्रचार-प्रसार हुआ वैसे ही दक्षिण भारत मे भी फ़ारसी और इस्लाम पनपे. यहाँ शासकों और फ़ारसी सूफ़ी संतों ने फ़ारसी का प्रचार किया. ये कोई थोड़े समय मे नहीं हुआ, सदियों मुस्लिम शासकों ने यहाँ राज किया. हमारी भाषा जिसे देवनागरी कहते थे वो हाशिए पर रही. लेकिन उसमे भी साहित्य की रचना होती रही. शाह वल्लीउल्ला उर्फ़ वली दक्कनी (1668 से 1744) औरंगाबाद के रहने वाले थे। वली का बचपन औरंगाबाद मे बीता, बीस बरस की उम्र में वो अहमदाबाद आए जो उन दिनों तालीम और कल्चर का बड़ा केंद्र हुआ करता था। सन 1700 मे वली दिल्ली आए। यहाँ आकर उनकी शैली की खूब तारीफ़ हुई. वली उर्दू के पहले शायर माने गए.
वली:
सजन तुम सुख सेती खोलो नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता।
कि ज्यों गुल से निकसता है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता।।
दिल को लगती है दिलरुबा की अदा
जी में बसती है खुश-अदा की अदा
यहाँ फ़िर ग़ज़ल गुलो-बुलबुल के फ़ारसी किस्से लेकर चलने लगी, जिनका हिंदोस्तान से कोई वास्ता न था. फ़ारसी मे लिखने की होड़ सी लग गई. मीर तकी मीर (जन्म: 1723 निधन: 1810 ) ने इस विधा को नया रुतबा बख्शा. हालाँकि मीर ने भाषा को हल्का ज़रुर किया और सादगी भी बख्शी.
पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है
जब दिल्ली खतरे मे पड़ी तो शायर लखनऊ की तरफ गए और शायरी के दो केन्द्र बने लखनऊ और देहली. लेकिन जहाँ दिल्ली मे सूफ़ी शायरी हुई वहीं लखनऊ मे ग़ज़ल विलासता और इश्क-मुश्क का अभिप्राय बन गई.
दिल्ली मे उर्दू के चार स्तंभ : मज़हर,सौदा, मीर और दर्द ने ग़ज़ल के नन्हें से पौधे को एक फ़लदार शजर बना दिया.
दिल्ली स्कूल के चार महारथी थे:
1)मिर्ज़ा मज़हर जान जानां: ( 1699-1781 दिल्ली)
न तू मिलने के अब क़ाबिल रहा है
न मुझको वो दिमाग़-ओ-दिल रहा है
खुदा के वास्ते उसको ना टोको
यही एक शहर में क़ातिल रहा है
यह दिल कब इश्क़ के क़ाबिल रहा है
2) मिर्ज़ा मुहम्म्द रफ़ी सौदा:(1713-1781दिल्ली): इनका निधन लखनऊ मे हुआ. इन्हें छ: हज़ार रुपए हरेक साल बतौर वजीफ़ा नवाब से मिलता था.
दिल मत टपक नज़र से कि पाया ना जाएगा
यूँ अश्क फिर ज़मी से उठाया न जाएगा.
3) मीर तकी मीर (जन्म: 1723 निधन: 1810 आगरा )
असल मे यही ग़ज़ल के पिता थे. इन्होंने ही ग़ज़ल को रुतबा बख्शा. इन्हें खुदा-ए-सुखन कहा जाता है और सब शायरों ने इनकी शायरी का लोहा माना और इन्हें सब शायरों का सरदार कहा गया. ज्यादातर फ़ारसी मे ही लिखा.
हमको शायर न कहो मीर कि साहिब हमने
दर्दो ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया
इब्तिदा-ऐ-इश्क है रोता है क्या
आगे- आगे देखिए होता है क्या
उलटी हो गई सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया
4) ख़्वाजा मीर दर्द:(1721-1785) सूफ़ी ख्यालात वाला शायर था.
मेरा जी है जब तक तेरी जुस्तजू है|
ज़बान जब तलक है यही गुफ्तगू है|
तुहमतें चन्द अपने जिम्मे धर चले ।
जिसलिए आये थे हम सो कर चले ।।
ज़िंदगी है या कोई तूफान है,
हम तो इस जीने के हाथों मर चले
जग में आकर इधर उधर देखा|
तू ही आया नज़र जिधर देखा|
जान से हो गए बदन ख़ाली,
जिस तरफ़ तूने आँख भर के देखा|
तुम आज हंसते हो हंस लो मुझ पर ये आज़माइश ना बार-बार होगी
मैं जानता हूं मुझे ख़बर है कि कल फ़ज़ा ख़ुशगवार होगी|
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दिल्ली मे दूसरे दौर के शायर:
अब ज़िक्र करते हैं दिल्ली में दूसरे दौर के शायरों का. जिनमे प्रमुख हैं मोमिन, ज़ौक़ और गालिब; इन्होंने ग़ज़ल की इस लौ को जलाए रखा. दिल्ली के आखिरी मुग़ल बहादुर शाह ज़फ़र खुद शायर थे सो उन्होंने दिल्ली मे शायरी को बढ़ावा दिया.
शेख़ मुहम्मद इब्राहीम ज़ौक:(1789-1854): ये उस्ताद शायरों में शुमार किए जाते हैं, जिनके अनेक शागिर्दों ने अदबी दुनिया में अच्छा मुक़ाम हासिल किया है.
कहिए न तंगज़र्फ़ से ए ज़ौक़ कभी राज़
कह कर उसे सुनना है हज़ारों से तो कहिए
रहता सुखन से नाम क़यामत तलक है ज़ौक़
औलाद से तो है यही दो पुश्त चार पुश्त
मोमिन खां मोमिन (1800-1851): दिल्ली मे पैदा हुए और शायर होने के साथ-साथ ये हकीम भी थे.
वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो के न याद हो
उम्र तो सारी क़टी इश्क़-ए-बुताँ में मोमिन
आखरी उम्र में क्या खाक मुसलमाँ होंगे
मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ 'ग़ालिब':जन्म: (27 दिसम्बर 1796 ,निधन: 15 फ़रवरी 1869 ): इस शायर के बारे मे लिखने की ज़रुरत नहीं है. हिंदोस्तान का बच्चा-बच्चा इन्हें जानता है. गा़लिब होने का अर्थ ही शायर होना हो गया है.
बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे
इस शायर ने ग़ज़ल को वो पहचान दी कि ग़ज़ल नाम हर आमो-खास की ज़बान पर आ गया लेकिन एक बात और है कि काफी कठिन ग़ज़लें भी इन्होंने कही जिसे समझने के लिए आपको डिक्शनरी देखनी पड़ेगी और गालिब ने भी समय रहते इसे महसूस किया और सादा ज़बान इस्तेमाल की और वही अशआर लोगों ने सराहे जो लोगों की ज़बान मे कहे गए. उस वक्त गा़लिब और मीर की निंदा भी की गई .
कलामे मीर समझे या कलामे मीरज़ा समझे
मगर इनका कहा यह आप समझें या ख़ुदा समझे
गा़लिब ने भाषा मे सुधार भी किया लेकिन गा़लिब भाषा से ऊपर उठ चुका था. वो एक विद्वान शायर था. एक बात तो तय है कि भाषा से भाव बड़ा होता है लेकिन भाषा भी सरल होनी चाहिए ताकि लोग आसानी से समझ सकें.
दिल्ली के हालात खराब हुए तो कई शायरों ने लखनऊ का रुख किया. जिनमे मीर और सौदा भी शामिल थे. वहाँ के नवाब ने लखनऊ सकूल की स्थापना की. फिर लखनऊ और दिल्ली दो केन्द्र रहे शायरी के. फिर नाम आता है इमामबख्श नासिख का (1787-1838) लखनऊ से थे और आतिश (1778-1846-लखनऊ) का. इन दोनो शायरों ने खूब नाम कमाया. लखनऊ स्कूल का नाम इन दोनो ने खूब रौशन किया.
नासिख:
साथ अपने जो मुझे यार ने सोने न दिया
रात भर मुझको दिल-ए-ज़ार ने सोने न दिया
आतिश:
ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते
अमीर मिनाई: (1826-1900 )
सरक़ती जाये है रुख से नक़ाब, आहिस्ता-आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़ताब, आहिस्ता-आहिस्ता
और बहुत से शायर आगे जुड़े जैसे:हातिम अली,खालिक, ज़मीर, आगा हसन, हुसैन मिर्ज़ा इश्क इत्यादि. उधर दिल्ली मे गा़लिब, ज़ौक़, मिर्ज़ा दाग ने दिल्ली सकूल को संभाला. यहाँ पर अगर हम दाग़ का ज़िक्र नहीं करेंगे तो सब अधूरा रह जएगा.
मिर्ज़ा दाग (1831-1905) ; मै तो ये मानता हूँ कि दाग़ सबसे अच्छे शायर हुए. उन्होंने ग़ज़ल को फ़ारसी ने निजात दिलाई. इकबाल के उस्ताद थे दाग़. ग़ज़ल को अलग मुहावरा दिया इन्होंने और कई लोगों ने आगे चलकर दाग़ के स्टाइल मे शायरी की. दाग देहलवी एक परंपरा बन गई. 1865 मे बहादुर शाह जफ़र की मौत के बाद ये राम पुर चले गए. दिल्ली स्कूल को दाग से एक पहचान मिली ..
रंज की जब गुफ्तगू होने लगी
आप से तुम तुम से तू होने लगी
नहीं खेल ऐ 'दाग़' यारों से कह दो
कि आती है उर्दू ज़ुबां आते आते
दाग़ इसीलिए सराहे गए कि वो ग़ज़ल की भाषा को जान गए थे और आम भाषा और सादी उर्दू मे उन्होंनें ग़ज़लें कही, यही एक मूल मंत्र है कि ग़ज़ल की भाषा साफ और सादी होनी चाहिए.
ये जो है हुक्म मेरे पास न आए कोई
इस लिए रूठ रहे हैं कि मनाए कोई
इस शे'र को पढ़के कोई क्या कहेगा कि उर्दू का है या हिंदी का. बस हिंदोस्तानी भाषा मे लिखा एक सादा शे'र है. हिंदी और उर्दू कि बहस यही खत्म होती है कि एक बोली की दो लिपियाँ है देवनागरी और उर्दू.
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नया दौर:
अल्ताफ़ हुसैन हाली (1837-1914) पानीपत, दुरगा सहाय सरूर (1873-1910) और बहुत सारे शायरों ने ग़ज़ल को हम तक पहुँचाया. ये सफ़र खत्म करने से पहले "फ़िराक़ गोरखपुरी (जन्म" 1896 ,निधन: 1982) का ज़िक्र बहुत लाजिमी है. इनका का असली नाम रघुपति सहाय था। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिला में हुआ था। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रध्यापक थे। यहीं पर इन्होंने "ग़ुल-ए-नग़मा" लिखी जिसके लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। उन्होंनें "भारत सरकार की उर्दू केवल मुसलमानों का भाषा" इस नीति को पुर्जोर विरोध किया। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनको संसद में राज्य सभा का सदस्य मनोनित किया था ।
रस में डूब हुआ लहराता बदन क्या कहना
करवटें लेती हुई सुबह-ए-चमन क्या कहना
शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
बेख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो
कूछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
कुछ फ़िज़ा, कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो
और आज के दौर के सभी शायर इस विधा को नये आयाम दे रहे हैं. ग़ज़ल अब गुलो-बुलबुल के किस्सों से बाहर आ चुकी है. ग़ज़ल मे अब महबूब का ही नहीं माँ का भी ज़िक्र होता है, बेटी का भी। सो अब ये उन हवेलियों और कोठों से निकल कर घरों मे सज रही है और हिंदी उर्दू का झगड़ा कोई झगड़ा नही है. भाषा और भाव मे भाव बड़ा रहता है लेकिन भाषा की अहमीयत भी अपनी जगह है. ग़ज़ल एक कोमल विधा है। यहाँ साँस लेने से सफ़ीने डूब जाते हैं; सो ग़ज़ल की नाज़ुक ख्याली का ख्याल रखना पड़ता है. दुश्यंत के इन शब्दों के साथ इस बहस को यहाँ खत्म करता हूँ: "उर्दू और हिन्दी अपने—अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के बीच आती हैं तो उनमें फ़र्क़ कर पाना बड़ा मुश्किल होता है. मेरी नीयत और कोशिश यही रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब ला सकूँ. इसलिए ये ग़ज़लें उस भाषा में लिखी गई हैं जिसे मैं बोलता हूँ."
47 टिप्पणियाँ
ग़ज़ल के इतिहास से परिचय कराने का आपका प्रयास सराहनीय है। कुछ भूली बिसरी पंक्तियों को भी आपने ताजा किया।
जवाब देंहटाएंआपके आलेख का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है दुष्यंत की ये पंक्तियाँ - "उर्दू और हिन्दी अपने—अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के बीच आती हैं तो उनमें फ़र्क़ कर पाना बड़ा मुश्किल होता है. मेरी नीयत और कोशिश यही रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब ला सकूँ. इसलिए ये ग़ज़लें उस भाषा में लिखी गई हैं जिसे मैं बोलता हूँ."
जवाब देंहटाएंgazal ka itihaas janke bahut achha laga,sundar lekh.
जवाब देंहटाएंएक बहुत बड़ी कमी को पूरा कर रहे हैं आप। बधाई।
जवाब देंहटाएंसतपाल जी यह लेख महत्व का है चूंकि गज़ल विधा को समझना है तो उसकी जडोँ को समझना भी आवश्यक है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख है। बधाई।
जवाब देंहटाएंग़ज़ल का इतिहास बताया करम है आपका हमारे ऊपर...होली की शुभ्कामानावों के साथ ढेरो बधाई...
जवाब देंहटाएंअर्श
ग़ज़ल को जानने के लिये इसके इतिहास में जाना जरूरी है। सतपाल जी आपका आलेख संग्रह कर रखेने योग्य तो है ही अमीर खुसरों की पंक्तियाँ पढवा कर अपने आलेख का महत्व आपने और बढाया है।
जवाब देंहटाएंग़ज़ल के इतिहास को देखें तो इसमें एक भाषा के विकास की परते नज़र आती हैं। एक विधा जो प्रेमिका की जुल्फ से निकल कर दुष्यंत की आवाज में ढली उसे विवादों की आवश्यकता नहीं है। ग़ज़ल को आगे बढाने की आवश्यकता है, इससे क्या फर्क पडता है कि वह गालिब की परंपरा है या दुष्यंत की। इससे क्या फर्क पडता है कि किस लिपि में लिखी गयी और इससे भी क्यों फर्क पडे कि किस परंपरा से बहरें बनीं या मात्रायें गिनी गयीं। व्याकरण के साँचे को समझ कर कथ्य को इस विधा में गूँथा जाना आवश्यक है, लगातार प्रयास के साथ। इस विधा में एक अलग बात है और अपने तरीके की संप्रेषणीयता है जो पद्य की अन्य विधाओं में कम देखने को मिलती हैं।
जवाब देंहटाएंसतपाल साहब!
जवाब देंहटाएंनमस्ते!
आपके लेख ने ज़ेह्न में ये पुरमानी शेर फिर ताज़ा कर दिये! सुभान-अल्लाह! ग़ज़ल के क्रमिक विकास(बदलाव) को खूबसूरत अन्दाज़ में पेश किया गया है! समकालीन साहित्य की द्रष्टी से शायरी के लहज़े और ज़बान का बदलना लाज़मी है. अन्तिम वाक्य पर हफ़िज़ का एक शेर याद आ गया!
न हिन्दी , न उर्दु , न हिन्दोस्तानी,
"हफ़िज़" अपनी बोली मुहब्बत मुहब्बत!
इस लेख के लिये आभार!
धीरज आमेटा "धीर"!
bahut hi sundar pryas. gazal ka itihas padhkar achha laga.
जवाब देंहटाएंआप तो जानकारी का खजाना हैं भाई। बहुत जबर्दस्त अध्ययन है आपका। बहुत कुछ पता चल गया इस एक लेख से। आज झूठ-फरेब के इस दौर में आप जैसे जानकारी बांटनेवाले लेखकों की भारी किल्लत हो गयी है। अभियान जारी रखिये, हमलोग साथ हैं। असल में आपके लिखने का फायदा तो हम लोगों को ही मिलेगा...साधुवाद...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है -कई भूली बिसरी यादें ताजा हो आयीं !
जवाब देंहटाएंसिलसिले बार गजल का इतिहास पढना एक सुखद एहसास है.. इस तरह के लेख बहुत मेहनत और लग्न से लिखे जाते हैं और आसानी से किसी किताब या अन्तर्जाल पर उपलब्ध नहीं हैं...
जवाब देंहटाएंआभार सतपाल जी
Satpal jee ka lekh ek mehtavapoorana lekh hai jo ki ghazal ke itihaas ko ek paarkhi nazar se dekhta hai. JahaN tak Urdu aur Hindi ka sawaal hai, meri soch thodi alag hai. Aaj Literary Hindi aur Literary Urdu 2 alag alag zabaneiN ban chuki hain jinka grammar aur sentence structure ek hai but the vocabulory is widely different. After partition Urdu has been influenced by Persian and Arabic while Hindi (literary) has become more Sanskritised. Jab koyee urdu ka lekhak Hindi crowd ke saamney kehta hai Khawateeno Hazraat, Hindi waley ek doosrey ka munh dekhtey hain. Ye basic shabda hain Urdu ke. Mujhey lagta hai ki hamara prayaas hona chahiye ki in dono bhashaoN ke beech kee khayee paatni hogi jaisa pryaas London mein Zakia Zubairi aur unkee sanstha Asian Community Arts kar rahi hai.
जवाब देंहटाएंTejendra Sharma
London
हिन्दी और उर्दू को ले कर बहुत सार्थक चर्चा इस मंच पर हुई है। मेरा राजीव जी से अनुरोध है कि कविता वाचक्नवी जी नें अपनी टिप्पणी में ग़ज़ल पर हिन्दी व्याकरण की बात कही थी। इस विषय पर उनका भी एक लेख सम्मिलित करें। यह एक मुक्त परिचर्चा के लिये बेहद जरूरी है। भाई सतपाल आपकी पठनीयता को नमन करता हूँ।
जवाब देंहटाएं१७ वीं सदी मे उर्दू के वजूद मे आने से पहले ये एक बोली थी या कहो कि मिली-जुली तहज़ीब का संगम थी जिसमे हिंदी,अवधी,अरबि, फ़ारसी और अनेकों बोलियां समाई हुईं थीं और ये वो भाषा थी जो आवाम बोलता था लेकिन जब सियासतदानों ने इसे धर्म से जोड़ा ते ये सिमट गई और आज अब अगर कोई उर्दू अलफ़ाज़ हिदी महफ़िल मे इस्तेमाल करता है तो लोग हैरानी से देखते हैं क्योंकि तब से, जब से ये धर्म से जुड़ी इसका विकास रुक गया.
जवाब देंहटाएंलेकिन ये वही भाषा है जो आवाम की भाषा थी. दोनो ज़बानों के बीच बहुत कुछ सांझा है, आप अक्सर "दोस्त" कहते हैं मित्र नहीं क्यों ?
क्योंकि ये मेरी भाषा है आवाम की भाषा हिंदू या मुस्लिम की नहीं. गा़लिब, खुसरो कबीर ये हमारे हैं किसी और मुल्क के नहीं. ये बिल्कुल सहि के बीच कि खाई भर जानी चाहिये.धीर ने सही शे’र कहा...
न हिन्दी , न उर्दु , न हिन्दोस्तानी,
"हफ़िज़" अपनी बोली मुहब्बत मुहब्बत!
सबको होली मुबारक
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंTejender ji ka yahan aakar tippni karna hamare liye ek aashirvaad hi hai.ye bahut baRee baat hai ki unhone is pryaas ko saraahaa, ab unse guzarish hai ki is pryaas ko kitaab ke roop me laane ke liye hamara marg darshan karen.
जवाब देंहटाएंवाह वाह सतपाल जी , कमाल कर दिया आपने. बहुत सधे और सरल शब्दों में ऐसी बात सम्झाई है और एक यात्रा कराई है गजल के जीवन की. कि क्या कहूं दिल में उतर गई. इतना अच्छा आलेख गजल और उर्दू पर पहले कभी नहीं पढा... आपका अभिवादन है इतनी सुंदर रचना के लिये... बधाई..
जवाब देंहटाएंSATPAL JEE NE GAZAL KAA ITIHAAS JIS
जवाब देंहटाएंJAANKAREE SE PRASTUT KIYAA HAI VAH
NISSANDEH SARAAHNIY HAI.MEREE
BADHAAEE.
जानकारी पूर्ण आलेख और संग्रह करने योग्य। भाषा पर तो बाद में बात होगी बल्कि कदम दर कदम चलेंगे तो हर शंशय स्वत: मिट जायेंगे। सतपाल जी का आभार।
जवाब देंहटाएं"व्याकरण के साँचे को समझ कर कथ्य को इस विधा में गूँथा जाना आवश्यक है, लगातार प्रयास के साथ"
जवाब देंहटाएंरंजन जी,यही छोटी सी बात है जिसे समझने की ज़रूरत है..बस.बाकि सब बातें व्यर्थ हैं
महत्वपूर्ण आलेख.. क्रम की सटीकता के लिये विशेष बधाई.. ग़ज़ल और ग़ज़ल के संदर्भ में जो लोग काम कर रहे हैं, उनमें आपके काम की महत्ता विशिष्ट है.. बधाई सतपाल जी..
जवाब देंहटाएंबहुत श्रम और शोध से तैयार किया गया आलेख है। गज़ल के इतिहास पर अच्छी जानकारी है साथ ही अनमोल उदाहरण आपनें प्रस्तुत किये हैं।
जवाब देंहटाएंWah Satpal ji
जवाब देंहटाएंAapke is lekh ko teen baar padha aur itni sari jaankari ( sari hi nayi ) padh kar man bhaut khush hua
ye bahut rochak prasang cheda hai aage ki srinkhla ka bhi intezaar rahega
सतपाल जी आपका बहुत धन्यवाद इस जानकारी के लिये।
जवाब देंहटाएंजानकारी से भरा हुआ एक सुंदर लेख! आभार सतपाल जी!
जवाब देंहटाएंअरे भाई आप अच्छा काम कर रहे हैं , हम पढते रहेंगे
जवाब देंहटाएंपहले तो साहित्य-शिल्पी की समस्त टीम और सतपाल जी कोटिशः धन्यवाद इस श्रृंखला को जारी रखने के लिये....और सतपाल जी का ये अप्रतिम आलेख तो संग्रहणीय है विशेष कर हम जैसे छात्रों के लिये।
जवाब देंहटाएंएक शोधपरक लेख और इन तमाम जानकारियों के लिये शुक्रिया सतपाल जी। हमने तो अपनी प्रति बचा ली है।
सदियों के सफ़र को चाँद सतरों में उतारना वाकई मिहनत का काम है. अर्ज़ यह करना है कि गजल शब्द की उत्पत्ति गिजाला (हिरनी) से हुई है. किसी हिरनी के गले से निकले आर्तनाद की कारुणिक ध्वनि को सुनकर उस उतार-चढाव के आधार पर पहली गजल कही गयी. कालांतर में हिरनी की पीडा माशूकाओं की विरह-व्यथा बन गयी. समय का साथ आये बदलावों ने माशूका के हुस्न की तारीफ में कहे गए कसीदों का भी गजल में शुमार कर लिया. फारसी में गजाला-चश्म (मृगनयनी = हिरनी जैसी आंखोंवाली) कही गयी गजल को एक नाम 'तशीब'' भी मिला. १०० ई. पू. में शेख सादी ने प्यार-मुहब्बत से भरपूर गजलें कहीं. शुरुआती दौर में नाज़ुक-खयाली (नजाकत-नफासत) गजल की खासियत रही.गजल को पसंद न करने वालों ने इसे 'औरतों की बातें' कहकर इसकी निंदा की. खुद मिर्जा गालिब ने 'तंग गली' तथा उनके शागिर्द आफ़ताब हुसैन अली ने 'कोल्हू का बैल' कहकर गजल के लिए अपनी नापसंदगी का इज़हार किया. समय की बलिहारी कि गालिब की विद्वतापूर्ण फारसी रचनाएं नहीं, सहज भाषा में कही गयी गजलें ही उनकी अमरता का कारन बनीं.
जवाब देंहटाएंउक्त चर्चा किसी विवाद के लिए नहीं, जानकारी बाँटने के लिए कर रहा हूँ. अच्छे लेख के लिए पुनः बधाई
सही कहा सलिल जी ---लेखक को ग़ज़ल के इतिहास का अधूरा ज्ञान है-----ग़ज़ल का ईरान में नहीं अपितु अरब में जन्म हुआ ----अरबी भाषा का साहित्य है ग़ज़ल ----गजल शब्द की उत्पत्ति अरबी शब्द ---गिजाला (छोटी हिरनी - जो अरब के रेगिस्तान व भारतीय थार में पाई जाती है ) से हुई |
हटाएंye bhi ek manyata hai ki ghazal..ghazala se banee hai, jiska arth hirnee jaisee ankhon wali. khair khushi hai log door -door se aa rahe hain aur hum naye hi nahi vidwan logon tak bhi pahunch rahe haiN. Ranjan ji badhaii sweekareN.
जवाब देंहटाएंhloi ki mubarak baad sab ko.
बहुत ही उम्दा और संग्रहणीय लेख । इतना विस्त़ृत
जवाब देंहटाएंगज़ल का इतिहास पहली बार पढा ।
प्रिय सतपाल जी आपका ग़ज़ल पर आलेख पढ़ा .शोधपरक है बधाई.
जवाब देंहटाएंbahut achha prayas gajl likhne ka padhkar bahut khushi hue.mai sahitya shilpi priwar ko thanks kahna chahunga.unke athak prayas se hum pathko ko hindi ki anek kavitaye khani gajl aur anek achhi jankari milti hai.
जवाब देंहटाएंBishnu Kant Madhubani
सतपाल जी कोटिश: बधाई केपात्र हैं !! बहुत सुन्दर आलेख !!
जवाब देंहटाएंसतपाल जीइस अर्थपूर्ण विधा वुज्ञान स्वरूप सामाग्री निश्चित ही ग़ज़ल लेखन काला के लिए एक उपयुक्त औज़ार बनेगा॥ शुभकमनयें
जवाब देंहटाएंAs for I know you have written very impressive article.You have collected whole history of urdu ghazal in very short pattern.Thank you very much.
जवाब देंहटाएंmain gazal par Ph.D kar raha hu aur apka yaha diya huwa gazal sahitya hame behad faydemand sabit huwa aisa aur kuch ho to please mere e.mail pe send kare. Apka Dipak Patil, Dhule Maharashtra
जवाब देंहटाएंgazal ka janm iran s hua hai ki arab s?
जवाब देंहटाएंis tathya par prakash dale!
बहुत ही उम्दा जानकारी।
जवाब देंहटाएंgazal ke bare main etni satik jankari mil pana kathin karya hai, jo bhi milti o kitabo main se uthayi gayi hoti hai arthar o pahle padhi ja chuki hoti hai isliye yah jankari mujhi baght acchi lagi. dhanyawad sir
जवाब देंहटाएंdr. deepak patil
सतपाल जी का ग़ज़ल-ज्ञान अधूरा है ..ग़ज़ल मूलतः अरब की काव्य विधा है जो फारस में आई फिर हिन्दुस्तान में ....फारसी के शेर को अरबी में दोहा कहा जाता है , अर्थात यह विधा हिन्दी के दोहा एवं संस्कृत के अनुष्टुप छंद से विक्सित हुई है ....गज्ज़ल नमः छोटी हिरनी जो अरब में एवं भारत में भी पाई जाती है उसकी अदाओं-नखरों पर ग़ज़ल का नामकरण हुआ है |
जवाब देंहटाएंफ़िक्र है हमें जमाने की, जो जमाना हमें जानता ही नहीं है. गजल का इतिहास एक उपहार है जो पाठकों को सत्य और संदर्भ से ताद्म्य स्थापित करवाने में सहायक है. साधुवाद
जवाब देंहटाएंडॉ दीपेन्द्र शर्मा भोज शोध संस्थान धार
I am glad to read the blog.
जवाब देंहटाएंThank you...
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very nice dear i am searching the history of ghazal in english or hindi book so kindly info me thanks
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.