
मुझमे जब से कविता की समझ विकसित हुई है तब से ही मैं देख रहा हूँ कि श्रेष्ठ रचना और खराब लेखन के बीच की सीमा रेखा विलीनता की ओर है। कहना तो यह भी उचित होगा कि जो रचना हीनतर है वही श्रेष्ठता के दांभिक प्रयासों में देखी जाती है। यदि आप सहमत होना चाहेंगे तो इस अंधकूपीय चरित्र के निरन्तर विकास में किन इलेमेंट्स को क्रमवार रखेंगे जिन्हें कटघरे में खड़ा किया ही जाना चाहिए। आखिर हम कविता को किस मुकाम पर ले जाकर भटका देना चाहते हैं? कहीं यह रचना और विचारों के प्रति चौतरफा उदासीनता का संकेत तो नहीं जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है।
विश्वरंजन: - यह सच है। पर यह भी सच है कि हीनतर रचना या खराब रचना ही श्रेष्ठता के दांभिक प्रयास में हर युग में देखी गई है। वह तरह-तरह के हथकंडे अपनाती है। निराला और मुक्तिबोध को यह फ़िक्र कभी नहीं थी कि लोग उन्हें बडा कवि कहें। कुछ बड़े कवि यह समझ जाते हैं कि वे बड़े कवि हैं। पर यह मनवाने के लिए वे हथकंडे नहीं अपनाते। वे डंके की चोट पर कहते हैं कि वे महान है। ग़ालिब का मशहूर शेर हैं-
वैसे तो दुनिया में हैं सुखनवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज -ए -बयाँ और
या फ़िराक एक जगह कहते हैं-
ज़ालिम, मीरों, मुसह़फी हम भी फ़िराक़ कुछ कम नहीं
या फिर एक और जगह लिखते हैं-
सदके फ़िराक एज़ाजे-सुखन के कैसे उड़ा ली ये आवाज़
इन गजलों के पर्दो में तो मीर भी गजलें बोले हैं।
या फिर एक रूबाई में कहते हैं-
पैगम्बरे-इश्क हूँ समझ मेरा मुकाम
सदियों में फिर सुनाई देगा ये पयाम
वे देख कि आफ़ताब सिज़दे में गिरे
वो देख रुके देवता भी करने को सलाम।
यहाँ यह नहीं समझना चाहिए कि वे दंभ कर रहे हैं। दोनों ने कविता और शायरी की ज़मीन तथा मिज़ाज़ बदलने की कोशिश थी जो उस समय के कवि और आलोचक नहीं समझ पा रहे थे। उपरोक्त शेर या रूबाई में वे खुद को सम्बोधित कर रहे थे जिससे उनमें कुछ नया, कुछ बड़ा करने की ऊर्जा बरक़रार रहे। ग़ालिब, फ़िराक़ और निराला अपनी ज़िदंगी में ही आख़िरकार बड़े और महान शायर मान लिए गए। मुक्तिबोध के जैसे बड़े कवि को तो मृत्यु का इंतज़ार करना पड़ा। उनके निधन के बाद ही उनका सही आकलन हो सका।
हिन्दी की बात यदि हम करें तो इसका मुख्य कारण है गुटों से निकली आलोचना। कवि हमारे गुट का है कि नहीं, यही मुख्य आधार है कवि तथा उसकी कविता की आलोचना करते समय। आपको एक वाक़या सुनाता हूँ। हिन्दी के एक बड़े आलोचक पटना आए हुए थे। वे आलोचक एक गुट की भी नुमाइंदगी करते थे और जैसे राजनैतिक नेता कर्मठ कार्यकर्ताओं से घिरा रहता है, वे भी घिरे हुए थे नए लेखकों और कवियों से जो उनके गुट से संबंध रखते थे। मैं उन्हें स्टेंशन छोड़ने जा रहा था। आलोचक से उनके गुट के एक व्यक्ति ने कहा कि फ़लाँ कविता लिख रहा है और अपना ही आदमी है यानी अपने ही गुट का है। आलोचक ने कहा कि उन्होंने फ़लाँ की कविता तो नहीं पढ़ी है पर फिर भी उसकी आठ-दस कविताएं यदि उन्हें भेज दी जाए तो वे किसी लेख में उस पर अच्छी आलोचनात्म़क टीप कर देंगे। अपना आदमी है तो उसे बढ़ाना ही चाहिए। ऐसा मैंने बहुत से आलोचकों के साथ देखा है।
आज के ज्यादातर नए साहित्यकार बहुत कम पढ़ते हैं और बहुत कम सोचते हैं। फिर नाम कमाने की भी तीव्र इच्छा रहती है। लता की भाँति किसी मज़बूत वृक्ष को पकड़ ऊपर निकलना चाहते हैं। पर रीढ़ मह़बूत नहीं हुई तो बिना सहारे के बहुत दिन तक टिक भी नहीं सकते। फिर कुछ लोग फार्म और स्ट्रक्चर की नक़ल करते हैं। बहुतो ने धूमिल की कविताओं के फार्म तथा शब्दावली की नक़ल की पर धूमिल नहीं हो पाए। बहुतों ने रघुवीर सहाय की नकल की पर रघुवीर सहाय नहीं हो पाए।
फ़िराक़ के पास एक विद्यार्थी आया था, उसके द्वारा लिखा गया वर्ड्सवर्थ पर एक आलोचनात्मक लेख ले कर। उस लेख में उसने बहुत सारे विद्वान आलोचकों का उदाहरण भी दिया था। फ़िराक ने कहा – बरख़ुरदार मैं जानता हूँ फ़लाँ-फ़लाँ और फ़लाँ ने वर्डृसवर्थ की कविता के विषय में यह यह और यह कहा। प्रश्न यह है कि तुम्हें क्या कहना है। तुमने वर्ड्सवर्थ को कितना समझा है। फ़िराक़ का कहना था कि जब तक साहित्य की मौलिक तथा फ़न्डामेन्टल समझ कोई हासिल न कर ले उसे आलोचनात्मक लेखों से परहेज़ करना चाहिए। आलोचना की बैसाखी किसी लेखक या कवि के शुरूआती दिनों को और पंगु बना देती है। बाद में वही आलोचना उसे नई दृष्टि दे सकती है। फ़िराक़ कहते थे कि महान कवियों के 5000-10,000 शेरों को पहले हजम करना होता है तब जाकर कोई अच्छी कविता लिख सकता है। आज के ज्यादातर नए साहित्यकार बहुत कम पढ़ते हैं और बहुत कम सोचते हैं। फिर नाम कमाने की भी तीव्र इच्छा रहती है। लता की भाँति किसी मज़बूत वृक्ष को पकड़ ऊपर निकलना चाहते हैं। पर रीढ़ मह़बूत नहीं हुई तो बिना सहारे के बहुत दिन तक टिक भी नहीं सकते। फिर कुछ लोग फार्म और स्ट्रक्चर की नक़ल करते हैं। बहुतो ने धूमिल की कविताओं के फार्म तथा शब्दावली की नक़ल की पर धूमिल नहीं हो पाए। बहुतों ने रघुवीर सहाय की नकल की पर रघुवीर सहाय नहीं हो पाए। बहुतों ने विनोद कुमार शुक्ल की नक़ल की और विनोद जी को नकल करना आसान भी नहीं।
अब तो वैसे यह जटिल और दुष्कर प्रतीत होता है किन्तु साहित्य् का एक ईमानदार वातावरण किस तरह होना चाहिए? उसकी निर्मिति में स्वयं रचनाकार सहित आलोचक, लघुपत्रिका संपादक, प्रकाशक, साहित्यिक संगठन, सरकार उनके साहित्यिक उपक्रम और स्वयं पाठक समाज की कैसी भूमिका संभव हो सकती है?
ज़रूरत है परिमल जैसी संस्था की, जो एक ज़माने में इलाहाबाद में चलती था और जहाँ पर साहित्यिक गुट के लोग आते थे। बहुत दिनों तक इलाहाबाद साहित्य का केंद्र बना रहा। परिमल जैसी संस्था हर शहर हर क़स्बे में होनी चाहिए।
विश्वरंजन: - मुझे लगता है कि आज के युग में ईमानदार वातावरण की बात करनी ही बेमानी होता जा रहा है। ईमानदार वातावरण तो तभी निर्मित होगा जब स्वयं रचनाकार, आलोचक, लघु पत्रिका के संपादक, प्रकाशक साहित्यिक संगठन सभी ईमानदार हो जाएं। स्कूल-कालेज के अध्यापक ईमानदार हो जाएं और विद्यार्थियों को पढ़ने, सोचने और सार्थक और बुनियादी प्रश्नों को उठाने दें। सरकार या राजनैतिक पाटिर्यों के साहित्यिक संगठन से हम ये अपेक्षा नहीं कर सकते क्योंकि उनके निहित और संकीर्ण स्वार्थ भी होंगे। अशोक बाजपेयी ने पाठक-मंचों को तैयार किया था, हर शहर क़स्बों में। वह एक अच्छा प्रयास था पर सरकारी होने के कारण बहुत कुछ नहीं हो पाया। ज़रूरत है परिमल जैसी संस्था की, जो एक ज़माने में इलाहाबाद में चलती था और जहाँ पर साहित्यिक गुट के लोग आते थे। बहुत दिनों तक इलाहाबाद साहित्य का केंद्र बना रहा। परिमल जैसी संस्था हर शहर हर क़स्बे में होनी चाहिए।
आज के पाठक-समाज की सबसे बड़ी विशेषता है कि उसमें केवल साहित्यिक या प्रतिबद्व साहित्यानुरागी ही बच गए हैं। हाँ, कुछ मित्र धर्म निभाने वाले भी उसमें हम गिना सकते हैं। आखि़र कहाँ चले गए हमारे पाठक?
विश्वरंजन: - मैंने जो कारण ऊपर में दिए हैं उसके ही कारण हमारे पाठक कम हो रहे है। इसके साथ-साथ यह भी आज एक साहित्यिक दंभ देखा जा रहा है कि साहित्य या कविता सब के लिए नहीं लिखी जा सकती। यह बहुत ईलीटिस्ट् मानसिकता है। इससे बहुत हानि हो रही है। फि़राक़ कहा करते थे कि कविता ऐसी होनी चाहिए कि बहुत कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी कह पाए अरे ऐसा तो मैं भी लिख सकता हूँ। पर वह लिख नहीं सकता है क्योंकि अच्छी़ कविता बहुत तहदार होती है, मल्टी लेयर्ड होती है; मल्टी-डाइमेन्शनल।
आप बेस्ट सेलर्ज को ही ले लीजिए। मैं उनके कथ्य पर नहीं जा रहा हूँ। पर उनकी सरलता स्ट्रक्चर, फार्म और समझी जाने वाले शब्द ही उन्हें बेस्ट सेलर बनाती है। अंगरेज़ी में एलिस इन द वन्डर लैण्ड एक क्लासिक का दरजा रखती है। पर यह किताब आज तक बेस्ट सेलर है। यही बात आधुनिक अमेरिकी क्लासिक टु किल ए माकिंग बर्ड के विषय में कही जा सकती है। भारत में गीतकार, जैसे बच्चन या नेपाली कवि सम्मेलनों में वाह-वाह लूटते थे। उनमें कुछ तो था जो पकड़ लेता था मन को। पाठक-समाज को यदि बढ़ाना है तो हमें इलीटिज्म के नक़ाब को निकाल फेंकना होगा। हमें बेस्ट सेलर के लिजलिजे तथा सतही कथ्य को नहीं, उसके फार्म के उन बिन्दुओं को खोजना पड़ेगा जो उन्हें अधिक ग्रह्य और संप्रेषणीय बनाते है। यह भी आज एक साहित्यिक दंभ देखा जा रहा है कि साहित्य या कविता सब के लिए नहीं लिखी जा सकती। यह बहुत ईलीटिस्ट् मानसिकता है। इससे बहुत हानि हो रही है। फि़राक़ कहा करते थे कि कविता ऐसी होनी चाहिए कि बहुत कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी कह पाए अरे ऐसा तो मैं भी लिख सकता हूँ। पर वह लिख नहीं सकता है क्योंकि अच्छी़ कविता बहुत तहदार होती है, मल्टी लेयर्ड होती है; मल्टी-डाइमेन्शनल।
आज दो चार रचनाकार ही हो सकते हैं जो कि अपने अंतर्मन से कह सकता है कि यदि वह ज्ञानोदय, वागर्थ, हंस आदि बड़ी पत्रिकाओं में छपा तो वह उसकी अपनी रचना की आलोक के कारण ही संभव है। लगभग पत्रिकाओं में राग-अनुराग, विचारगत, आत्मसमर्पण, अनुचरी भाव, बाज़ारवादी तरीक़ो से हिडन प्रयासों से ही रचनाएं अपने लिए जगह ढूंढ पा रही हैं। बड़ी भूगोल वाली ऐसी कम ही साहित्यिक पत्रिकाएं बच गई हैं जिनके संपादक और रचनाकार इन संक्रामक व्याधियों से अछूते हैं। ऐसे में किन तर्कों के बल पर स्वींकारा जा सकता हैं कि किसी रचनाकार का स्तर अखिल भारतीय है या आंचलिक या फिर पास-पड़ोस के लायक ही। ठीक यही हाल क्या हमारे आलोचकों का भी नहीं है?
विश्वरंजन: - मैंने ऊपर एक उदाहरण दिया हैं कि कैसे साहित्यिक गुटों से संबंद्व आलोचक नये कवियों और लेखकों को आगे करते हैं। तो भाई ऐसे माहौल में आत्म-समर्पण, अनुचरी भाव, बाज़ारवादी तरीक़ों के हिडन प्रयास सभी कुछ आ जाएगा। रहा यह पता लगाने की बात कि रचना अखिल भारतीय है या आंचलिक या पास-पड़ोस के लायक है तो बात सिर्फ इतनी सी है कि यदि रचना सशक्त हैं, रचना और साहित्य की बुनियादी शर्तों का अपने अंदर सही मायनों में निर्वाह कर रही हैं तो यह विश्व स्तरीय होगी। प्रेमचंद की बहुत सारी कहानियां और उपन्या्स, रेणु की कुछ कहानियां और मैला आंचल विश्वस्तरीय है। अब रेणु का कथ्य तो बिलकुल आंचलिक है, पर जब आप मैला आंचल को उसकी संपूर्णता में देखेंगे तो निश्चित ही विश्वस्तरीय कृति है। हमारी बहुत सारी अन्य कृतियाँ भी विश्वस्तरीय हैं। बहुत बार ऐसा भी होता हैं कि कुछ साहित्यकारों की कुछ-एक रचना ही विश्वस्तरीय हो पाती है। क्लासिक कथ्य और भूगोल दोनों का अतिक्रमण कर जाती है हौले से।
अधिकांश रचनाकारों का विश्वास है कि यदि दुनिया में कोई विज्ञान सम्मत सार्थक दर्शन और प्रगतिशील विचारधारा है तो वह मार्क्सवाद ही है, आपका अभिमत क्या है? अन्य आदर्शों, वादों, विचारधाराओं की कितनी उपस्थिति साहित्य में आप देखते हैं?
मैं मार्क्सवाद को आज के वैज्ञानिक परिवेश और समझ के कारण पूरी तौर पर वैज्ञानिक नहीं मानता। मार्क्स ने जिस विज्ञान को अपने दर्शन का आधार बनाया था वह उन्नीसवीं सदी की वैज्ञानिक समझ थी और यह भी सच है कि मार्क्स चीज़ों को वैज्ञानिक समझ के साथ देखते परखते थे। परंतु 20वीं सदी ने विज्ञान में अजीबो-ग़रीब फेरबदल कर दी। रिलेटिविटी की थ्योरी, क्वांटम की थ्योरी ने समझ के नए आयाम जोड़ दिए हैं। जहाँ एक ओर ये सब चीज़ों को बहुत ही अस्थिर कर देता है वही कवि, लेखक और चिंतक के लिए नई संभावनाओं के द्वार भी खोलता है। हम किसी भी पुरानी विचारधारा जिसका सत्य आज आंशिक ही हो सकता है, उसके चश्मे से नया न ही देख सकते हैं न ही समझ सकते है।
विश्वरंजन: - मैं मार्क्सवाद को आज के वैज्ञानिक परिवेश और समझ के कारण पूरी तौर पर वैज्ञानिक नहीं मानता। मार्क्स ने जिस विज्ञान को अपने दर्शन का आधार बनाया था वह उन्नीसवीं सदी की वैज्ञानिक समझ थी और यह भी सच है कि मार्क्स चीज़ों को वैज्ञानिक समझ के साथ देखते परखते थे। परंतु 20वीं सदी ने विज्ञान में अजीबो-ग़रीब फेरबदल कर दी। रिलेटिविटी की थ्योरी, क्वांटम की थ्योरी ने समझ के नए आयाम जोड़ दिए हैं। अनिश्चितता का सिद्वांत अब आखि़री सत्य या रैशनलिज्म कर भी अतिक्रमण करता है। क्वासर्क की खोज, एस्ट्रोफिजिक्स की खोजें, होलाग्राम, होलोमूवमेन्ट और केऔस सिद्वांतों की समझ ने एक तऱफ नई दृष्टि दी है वहीं दूसरी तऱफ चीज़ों को हक़ीक़तों को अधिक अस्थिर निर्णयों को अधिक तदर्थ बना दिया। ऐसे में एक महा-दर्शन का होना संभव नहीं। विज्ञान ने, माइक्रो-चिप्स आंदोलन ने रोबोऔनिक के आंदोलन ने, जैनेटिक इंजीनियरिंग की संभावनाओं ने पुरानी व्य्वस्थाओं, मूल्यों पर जबरदस्त आघात करना शुरू कर दिया है। रोबोऔनिक के कारण आज यह बिलकुल संभव है कि प्लांट-लेस कारखाने बन जाएं और लोग घर में काम करें। यह भी बिलकुल संभव है कि एक समय में ही एक व्यक्ति एक से ज्यादा फर्मों में घर बैठे काम करें। यह संभव है कि लोहा की जगह पालिमर ले ले और लोहा जमीन के नीचे पड़ा रह जाए, लोह संयंत्र और फ़ैक्ट्रियां बंद हो जाए। जहाँ एक ओर ये सब चीज़ों को बहुत ही अस्थिर कर देता है वही कवि, लेखक और चिंतक के लिए नई संभावनाओं के द्वार भी खोलता है। हम किसी भी पुरानी विचारधारा जिसका सत्य आज आंशिक ही हो सकता है, उसके चश्मे से नया न ही देख सकते हैं न ही समझ सकते है।
मार्क्सवाद कई बार क्या भारतीयता के मूल को ध्वस्त नहीं करता है? आप इससे तो सहमत होंगे कि भारतीय धरती, आकाश, आबो-हवा, पानी और तापमान में विशुद्व मार्क्सवाद स्वींकृत नहीं है। यहाँ बहुत कुछ हमारी परम्पराएं, हमारे मिथक, हमारे विश्वास और कुछ अंधविश्वा्स भी तय करते हैं जिससे निरक्षर समाज ही नहीं, साक्षर और अतिशिक्षित, यहां तक कि उत्तर आधुनिक कहलाने वाले लोग भी मुक्त नहीं होते या नहीं होना चाहते। फिर भारतीय जीवन पद्वति में धार्मिक आस्थाओं का भी स्थायी पेंच होता है।
जयप्रकाश मानस देश-विदेश में विभिन्न सम्मानों से अलंकृत एक प्रख्यात साहित्यकार हैं। कविता, कहानी व निबंध आदि विधाओं में इनकी तीस से अधिक पुस्तकें अब तक प्रकाशित हैं। स्कूल शिक्षा विभाग, छत्तीसगढ़ में कार्यरत मानस जी की अनेक रचनायें प्राय: सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। आकाशवाणी व दूरदर्शन से भी इनकी रचनायें प्रसारित हुई हैं।
विश्वरंजन: - मेरे लिए ज़रा भी महत्व नहीं रखता कि मार्क्सवाद भारतीयता की मूल भावना, जिसमें एक प्रकार का धार्मिक स्वभाव है, उसे ध्वस्त करता है। धर्म मनुष्य की मूल संरचना का अंग शताब्दियों से बनता आया है। उसके मूल भाव मनुष्य के जीन्स में समाहित हो गए हैं। यही कारण है कि रूस इतने सालों के कम्युनिष्ट शासन के बाद भी धर्म को नहीं हटा पाया अपनी धरती से, न ही चीन हटा पाया। पर यहाँ धर्म को उसके सामूहिक तथा गुटपरस्ती के रूप में नहीं देख रहा हूँ जिसके कारण फि़करे बने, एक समूह दूसरे समूह से कट गया, लड़ाईयां हुई धर्म के नाम पर। मैं धर्म को उस रूप में देख रहा हूं जो उसका असल मतलब है। धर्म यानी "ळॉ" यानी शाश्वत नियम। जिसकी खोज मनुष्य आज तक कर रहा है ध्यान के ज़रिए, दर्शन के ज़रिए या विज्ञान के ज़रिए। यह चाह बहुत भीतरी चीज़ है, और विज्ञान की भाषा बोलें तो यह चाह मनुष्य की जीन में समाहित है, जिसे कोई भी बाहरी ताक़त, आर्गनाईजेशन, संघ नहीं हटा सकता। कविता में; साहित्य में या कला में भी हम उसी चीज़ को आंशिक रूप से ही सही सम्रझने, देखने और परखने की कोशिश करते हैं। इसके लिए कभी हम मार्क्सवादी समझ का सहारा लेते हैं। कभी गैर मार्क्सवादी समझ का सहारा। तुलसी ने राम चुना, कबीर ने निर्गुण, सूरदास ने कृष्ण, विद्यापति ने कृष्ण और गोपियों के बीच प्रणय और शरीर की खुबसूरती में छुपा एरौटिसिज्म। आज मज़दूर की मशक्कत में भी उसकी आंशिक झलक देख पाते हैं, फूलों, पौधों और आकाश की सेन्सुएलिटी में भी। जैसे विज्ञान किसी भी जगह इति नहीं कह सकता है, इस धार्मिक चाह, प्यास, तड़प का भी कभी इति नहीं किया जा सकता।
आज सारी दुनिया से मार्क्सवाद कम से कम राजनीतिक तौर पर ढह चुका है या छीजने की ओर है, स्वयं मार्क्स - गोत्रीय भी अपनी उदार सहभागिता के लिए अपनी जि़दों को छोड़ने लगे हैं, ठीक दूसरी ओर पूंजीवादिता और बाज़ारवादिता समूचे विश्व को अपनी गिरफ़्त में लेने के लिए कमर कसने लगी है। मनीषा का रूख भी बदलने लगा है, ऐसे में कम से कम भारतीय साहित्य में इसकी निरंतरता कब तक संभव है?
विश्वरंजन: - देखिए, भारत से जो साहित्य भी निकलेगा उसमें भारत या भारतीयता का होना हम चाह कर भी नहीं टाल सकते। जब कभी (और मैं अभी तक नहीं सोचता यह आने वाले कल में संभव है) वैश्वीकरण और बाज़ारवाद पूरी तरह से फैल जाएगा, तब भी वह वैश्वीकरण और बाज़ारवाद जोड़ भारतीय रहेगा भारत में। तो भाई, जो चारों तरफ हो रहा है उसका असर तो आएगा पर भारतीय तत्व जो ख़ालिस भारतीय है वे फिर भी रह जाएंगे, भाषा के ज़रिए, मुहावरों के ज़रिए, बिम्बों के ज़रिए, भारत की ज़मीन की मिट्टी के ज़रिए, भारत के आसम़ान के जरिए ।
साहित्यकार की प्रतिबद्वता को लेकर ख़ूब हो-हल्ला होता रहा है, साहित्यकार किसके प्रति प्रतिबद्व हो, साहित्य के प्रति या विचारों-वादों के प्रति। हम देखते रहे हैं कि वैचारिक रूप से प्रतिबद्व साहित्यकारों का साहित्य धीरे-धीरे सायास लेखन-सा लगने लगता है, एकांगी होने लगता है और इस रूप में अक्सर वह अपने शाश्वत मूल्यों से भी दूर चला जाता है। साहित्य में कलावादियों और कथ्यानुग्राहियों के बीच लगातार द्वंद्व चलता रहा है, आप साहित्य में शिल्प और कथ्य को किस हद तक तवज्जो देना चाहते हैं?
विश्वरंजन का जन्म 1 अप्रैल 1952 को गया बिहार में हुआ। आपने पटना विश्वविद्यालय से बी.ए ऑनर्स की डिग्री हासिल की जिसके पश्चात आपका चयन भारतीय पुलिस सेवा में हो गया। आप मशहूर शायर फ़िराक गोरखपुरी के नाती हैं। आप देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में समादृत हैं। आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं – स्वप्न का होना बेहद ज़रूरी है (काव्य संग्रह), एक नयी पूरी सुबह (एकाग्र)। आपने अनेक कविताओं का अंग्रेजी, बांग्ला व तेलुगु से अनुवाद भी किया है। वर्तमान में आप छतीसगढ के पुलिस महानिदेशक हैं।
विश्वरंजन: - मैं इसमें शरीक नहीं हूँ, न होना चाहता हूँ। साहित्यकार की प्रतिबद्वता मूलरूप में साहित्य के उन तत्वों से होनी चाहिए जिसके कारण उसका लेखन साहित्य का दर्जा हासिल करता है। परंतु क्योंकि साहित्यकार एक सामाजिक-राजनैतिक-मनोवैज्ञानिक प्राणी भी है – उसका एक मन भी है, जो सोचता है, समझने की कोशिश करता है, गढ़ता है, गुनता है, बनता है तो कहीं न कहीं उसको राजनैतिक दर्शन भी लुभाएंगे। यह दर्शन मार्क्सवाद भी हो सकता है और गैर-मार्क्सवादी दर्शन भी हो सकता है और इसकी छाप उनके साहित्य पर पड़ेगी। पर मार्क्सवादी और कलावादी दोनों बहुत घटिया सृजन भी कर सकते हैं और दोनों ऐसा सृजन भी कर सकते हैं, जो क्लासिक का दर्जा रखते हों। इसीलिए मैं कलावादियों और मार्क्सवादियों के बीच जो द्वंद्व है, उसको नकारता हूँ। मैं मानता हूँ कि दोनों के बीच से अच्छां साहित्य निकला है। सिर्फ ज़मीन से कविता नहीं निकल सकती। जमीन पर खड़े मनुष्य की आँखें न सिर्फ ज़मीन की उबड़-खाबड़ देख लेती हैं, परंतु उड़ानों के सपने भी संजोती हैं। वहीं कहीं आसपास से कविता निकलती है, साहित्य सिजता है, कलाओं का सृजन होता है ।
फि़राक़ का एक शेर है:-
कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर-सा
कुछ फ़ज़ा कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो ।
यानी जेलख़ाने की सलाखों से रोशनी छन कर आ रही है। आओ, कुछ आसमान और कुछ पक्षियों की उड़ानों की बात करें। यदि सलाखों से रोशनी नहीं भी आ रही हो तब भी आसमानों और उड़ने के स्वप्नं देखे जा सकते हैं क्योंकि दोनों ही संभव है, यदि इरादा ठीक हो।
इधर कुछ कहानीकार कला के नाम पर अश्लीलता और वीभत्सता की सभी सीमाएं लाँघने को तत्पर दिखाई देते हैं। यह रचनाकार व उसके समाज की किस दशा और दिशा की कथा है। ये रचनाएं आखि़र किन पाठकों के लिए लिखी जा रही हैं? क्या साहित्य और कलोन्मुखी अभिव्यक्ति के नाम पर कुछ भी निषिद्व नहीं होता?
विश्वरंजन: - अश्लीलता और वीभत्सता पर एक कहानी याद आई। एक बार एक महिला ने बरनार्ड शा की दीवाल पर एक पेंटिंग देख कर एतराज़ किया – कितनी अश्लील पेंटिंग है। आप इसे कैसे टाँग सकते हैं। शा ने उत्तर दिया – मैडम अश्लीलता आपके दिमाग़ में है, पेंटिंग में नहीं। आस्कर वाइल्ड कहा करते थे कि टेलीफ़ोन डायरेक्टरी के सिवाय हर किताब में कुछ न कुछ अश्लील हम पाएंगे। हमारे यहाँ यदि आप खोजे तो अश्लील और वीभत्स प्रसंग पुराणों में भी पाएंगे और महाभारत में भी। इससे न पुराणों का महत्व कम होता है न महाभारत का। ये आज भी हमारे महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। अत: साहित्य में आप अश्लीलता और वीभत्सता का पूर्ण निषेध नहीं कर सकते। अगर अश्लीलता और वीभत्सता समाज में है तो उसका चित्रण साहित्य में आएगा ही। यदि हम एक ऐसे पात्र को खड़ा क़र रहे हैं, जो बात-बात में गाली देता है तो हम हर जगह गाली बदल कर ईश्वर का नाम नहीं डाल सकते। हाँ, यदि हम साहित्य में अश्लीलता और वीभत्सता सिर्फ इसलिए डाल रहे हैं क्योंकि ऐसा करना फैशनेबल है, या सिर्फ "शॉक" करने के लिए कर रहे हैं, या बाज़ारवाद के दबाव के कारण कर रहे हैं तो ज़रूर कहीं कुछ खोट है। यह हो सकता है कि लेखक के अंदर कामुकता, अश्लीलता और वीभत्सता का टेनशन हो, दबाव हो जिसका निराकरण, रेजूल्यूशन वह न कर पाया हो।
दूसरी ओर नामवर आलोचकों द्वारा अतिमहत्वतपूर्ण कवि सिद्व (?) किए जाने वाले कवियों की पहुँच उनकी अमूर्तता और शिल्पगत चकाचौंध के कारण समझ से परे भी जा रही है। ज़ाहिर है वहाँ कविता के जिस रस के लिए पाठक बार बार जाता है, उसका एक अकाल सा है, और वे हैं कि लगातार अपनी जि़द से कविता को शिल्पकेंद्रित बनाने पर अड़े हुए हैं। क्या, आप भी ऐसा महसूस करते हैं?
मेरी सोच में कविता एक स्तर पर तुरंत संप्रेषणीय होनी चाहिए। ज़िंदगी कितनी भी जटिल हो, कविता के एक स्तंर ख़ास कर जो बाहरी आवरण है उस स्तर पर सरल होनी चाहिए और क्योंकि हर अच्छी कविता बहुत से तहों में छुपी होती है, बहुत से स्तरों पर आयाम लेती है तो बहुत अंदर से वह जटिल भी होती है। यदि बाहरी आवरण या स्ट्रक्चर एवं फार्म में कविता बहुत अमूर्त हो गई तो ज्यादातर पाठक उसे छोड़ देंगे या उसके शिल्पगत चकाचौंध में ही फंस कर रह जाएंगे। पर यह सब आपको कवियों पर छोड़ना होगा। आप कविता को किसी फा़र्मूला में नहीं बाँध सकते। न ही कविता के क्षेत्र में तानाशाही चलाई जा सकती है। न आलोचक की तानाशाही, न ही पाठक की। पर यदि कवि कविता के स्ट्र्क्चर को जानबूझ कर अमूर्त बनाता है और फिर यह दंभ भरता है कि कविता हर ऐरू-गैरू-नत्थू–खैरू के समझने की चीज़ नहीं तो वह एलीटिस्ट हो रहा है। उसके मानसिक संरचना में कही कोई खोट हैं, कैच हैं, पेंच है।
विश्वरंजन: - यह कवि का बहुत निजी मामला है। यह बहुत कुछ कवि या रचनाकार के सौन्दर्यशास्त्रीय दर्शन और समझ पर निर्भर करता है। मेरी सोच में कविता एक स्तर पर तुरंत संप्रेषणीय होनी चाहिए। ज़िंदगी कितनी भी जटिल हो, कविता के एक स्तंर ख़ास कर जो बाहरी आवरण है उस स्तर पर सरल होनी चाहिए और क्योंकि हर अच्छी कविता बहुत से तहों में छुपी होती है, बहुत से स्तरों पर आयाम लेती है तो बहुत अंदर से वह जटिल भी होती है। यदि बाहरी आवरण या स्ट्रक्चर एवं फार्म में कविता बहुत अमूर्त हो गई तो ज्यादातर पाठक उसे छोड़ देंगे या उसके शिल्पगत चकाचौंध में ही फंस कर रह जाएंगे। पर देखिए, यह मेरी सोच है। कोई ज़रूरी नहीं हर कवि ऐसा ही सोचे। हर कविता में एक अमूर्त या ऐबस्ट्रेक्टर अंग भी होता है। वह ऊपरी सतहों पर भी रह सकता है और भीतरी सतहों पर भी। कला में भी ऐसा ही होता है। दा विन्सी के द्वारा बनायी गयी मोनालिसा की पेंटिंग एक स्तर पर मूर्त है पर एक और स्तर पर बिल्कुल अमूर्त। बहुत से ऐबस्ट्रेक्ट पेंटर्स की पेंटिंग बाहरी स्तर पर अमूर्त होते हुए भी किसी और स्तर पर बिल्कुल मूर्त हो सकते हैं। मेरा मानना है कि यदि कविता अच्छीं है तो रस तो मिलेगा ही। हाँ, जब कविता के बाहरी आवरण में अमूर्तता ज्यादा हो तो बहुत बार समझने में दिक्कतें आती हैं। पर यह सब आपको कवियों पर छोड़ना होगा। आप कविता को किसी फा़र्मूला में नहीं बाँध सकते। न ही कविता के क्षेत्र में तानाशाही चलाई जा सकती है। न आलोचक की तानाशाही, न ही पाठक की। पर यदि कवि कविता के स्ट्र्क्चर को जानबूझ कर अमूर्त बनाता है और फिर यह दंभ भरता है कि कविता हर ऐरू-गैरू-नत्थू–खैरू के समझने की चीज़ नहीं तो वह एलीटिस्ट हो रहा है। उसके मानसिक संरचना में कही कोई खोट हैं, कैच हैं, पेंच है।
फ्रायड पूरे तौर पर सही नहीं थे। पर कुछ फि़क्सेशन्स की तरफ जो उन्होंने इशारा किया था वे सही हैं। सब कुछ संदर्भ पर निर्भर करेगा। इन्हें हम क़ानूनी दायरों में ला नहीं सकते। पर यदि कोई किताब या कोई लेख समूहों के बीच ख़ून-ख़राबा करा दे या जिसके कारण का़नून व्यवस्था इस क़दर बिगड़ जाए तो शासन को हस्तक्षेप करना ही होगा। हम यह नहीं कह सकते कि विलायत में यह होता है तो यहाँ भी होनी चाहिए। दोनों समाज, विलायत या अमेरिकी या यूरोपीय समाज और भारतीय समाज में हमें फ़र्क करना पडे़गा। हो सकता है कल भारतीय समाज बिलकुल पाश्चात्य समाज की तरह हो जाए। ऐसा होना मैं निकट भविष्य में तो नहीं देखता तब चीज़ें बदल जाएंगी। पर साहित्य और कला से जुड़ा पुलिस अधिकारी होने के कारण मैं यह नहीं चाहूँगा कि हर जगह पुलिस का सहारा लिया जाए। मैं चाहूँगा कि साहि्त्यकार को ही इतना सतर्क रहना चाहिए कि बहुत चीज़ों, तथ्यों को यह इशारा मात्र से ही समझा ले।
यह भी एक सच है कि उदारीकरण के साथ सहसा राजनीति को साहित्य से खदेड़ा जाने लगा है। आज युवा पीढ़ी जितनी कला सजग हुई, उतनी ही राजनीति-विमुख भी हुई है। हिन्दी का भक्ति साहित्य केवल आध्यात्मिक विषयों पर लिखा गया सर्वश्रेष्ठ साहित्य नहीं है, वह राजनीति पर लिखा गया सर्वश्रेष्ठ साहित्य़ भी है। साहित्य में राजनीति का अर्थ है असहमति और प्रतिरोध। क्या ऐसे में राजनीति से परहेज़ का अर्थ यह तो नहीं कि साहित्य अपने उद्गम स्त्रोत समाज के प्रति उदासीन तो नहीं होता जा रहा है?
विश्वरंजन: - यह आंशिक रूप से सच है। साम्यवादी या समाजवादी विचारों के तरह दो बड़े राष्ट्र वैश्वीकरण तथा उदावादी ताक़तों के सामने टिक नहीं पाए। सोवियत यूनियन तो टूट ही गया। चीन तो तेज़ी से डिक्टेटोरियल कैपटिलिज्म की तरफ़ बढ़ रहा है। तो ऐसे में एक मोहभंग की स्थिति निर्मित हुई है। ऐसा मोहभंग पहले विश्वयुद्व के बाद भी हुआ था। बहुत दिनों तक यूरोपीय कविता राजनीति से विमुख रही। पर क्योंकि राजनीति का मनुष्य से हमेशा से रिश्ता रहा। तुलसी और कबीर भी हैं। पर उनकी कविता नहीं है। एक सम्मिलित दृष्टि है, इन कवियों की जो मेरी निजी दृष्टि और समझ और अनुभवों के साथ मिलजुल कर एक विशिष्ट संवेदना को विकास देती है, भाषा की समझ है, एक लय की समझ देती है, मुझे मेरी कविता देती है ।
फि़राक जी को दुनिया पढ़ती है। उनकी ऐसी कौन सी बात हो सकती है जिसे अब तक दुनिया नहीं पढ़ सकी है जिसे पढ़ा जाना चाहिए।
विश्वरंजन: - फि़राक ने कुछ नहीं छुपाया वे खुली किताब थे।
फि़राक जी को आज कैसे याद करते हैं? कोई मधुर प्रसंग भी बतायें।
विश्वरंजन: - मैं फि़राक को उनकी शायदी के माध्यम से याद करता हूँ मुख्यत:। वैसे मैं फि़राक की बायोग्राफ़ी पर काम कर रहा हूँ। उसके लिए आपको कुछ रूकना पड़ेगा।
अभी आपने बताया कि आपने कविता की अपनी समझ पाश्चात्य कवियों से भी विकसित की है। यूरोपीय और अंगरेज़ी साहित्य से भारतीय साहित्य किन कोणों से बेहतर है और किन कारणों से वहाँ बेहतरी दिखाई देती है, विशेषत: हिंदी साहित्य की तुलना में। आज कहानी और ख़ासकर कविताओं का शिल्प तो संपूर्ण पाश्चात्य सा लगता है। यह रचनाकारों की कैसी देशीयता है?
विश्वरंजन: - बेहतर और कमतर का प्रश्न नहीं उठता। दोनों दो अलग-अलग ज़मीन से निकली चीज़ें हैं। हिन्दी में भी विश्व स्तर के लेखक और कवि हैं। यूरोप और अमेरिका के साहित्यकार ज्यादातर आर्थिक रूप से ज्यादा मज़बूत हैं। हिन्दुस्तान में ऐसा कम देखने को मिलता हो कि कोई ख़ाली साहित्यकार हो। जिंदा रहने के लिए उसे कुछ और काम भी करना पड़ता है। जिससे कुल मिलाकर उसे लिखने-पढ़ने और सोचने का कम समय मिलता है। जिसका असर उसके लेखनी पर पड़ेगा ही। पर यह भी सही है कि हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाओं में विश्व स्तरीय साहित्य और कला का सृजन भी हो रहा है ।
लेखन एक सामाजिक कर्म है, जो कवि के निजी जीवन को भी प्रभावित करता है। क्या आपको इससे असुविधा नहीं होती?
विश्वरंजन: - मुझे कोई असुविधा नहीं होती। मैंने पहले भी बताया था कि मनुष्य बहुत से स्तरों पर एक साथ जी सकता है। पर जो बुनियादी बातें हैं उनमें मैं एक ही स्तर पर जीता हूँ, चाहे वह किसी भी स्तर पर हो।
23 टिप्पणियाँ
टू द प्वाईंट बातचीत है। विश्वरंजन जी से प्रभावित हुआ उनकी राय जान कर। साहित्य के खेमें उसके सबसे बडे दुश्मन हैं। विश्वस्तरीय साहित्य का पैमाना कोई वाद विशेष नहीं हो सकता। साथ ही यह भी मानना होगा कि नव लेखकों की पठनीयता पर जो सवाल खडे किये हैं वे भी सही हैं। कुल मिला कर एक बहुत ही अच्छा साक्षात्कार।
जवाब देंहटाएंहिन्दी आलोचना का स्टिंग ऑपरेशन है -
जवाब देंहटाएंहिन्दी की बात यदि हम करें तो इसका मुख्य कारण है गुटों से निकली आलोचना। कवि हमारे गुट का है कि नहीं, यही मुख्य आधार है कवि तथा उसकी कविता की आलोचना करते समय। आपको एक वाक़या सुनाता हूँ। हिन्दी के एक बड़े आलोचक पटना आए हुए थे। वे आलोचक एक गुट की भी नुमाइंदगी करते थे और जैसे राजनैतिक नेता कर्मठ कार्यकर्ताओं से घिरा रहता है, वे भी घिरे हुए थे नए लेखकों और कवियों से जो उनके गुट से संबंध रखते थे। मैं उन्हें स्टेंशन छोड़ने जा रहा था। आलोचक से उनके गुट के एक व्यक्ति ने कहा कि फ़लाँ कविता लिख रहा है और अपना ही आदमी है यानी अपने ही गुट का है। आलोचक ने कहा कि उन्होंने फ़लाँ की कविता तो नहीं पढ़ी है पर फिर भी उसकी आठ-दस कविताएं यदि उन्हें भेज दी जाए तो वे किसी लेख में उस पर अच्छी आलोचनात्म़क टीप कर देंगे। अपना आदमी है तो उसे बढ़ाना ही चाहिए। ऐसा मैंने बहुत से आलोचकों के साथ देखा है।
आज का लेखक न तो यह सच लिखता है न बोलता है। शायद इस विषय पर बोला गया सच घातक हो सकता है? पत्रिकायें नहीं छापेंगी, लेखक संघ मान्यता नहीं देंगे और लेखक पर दोयम दर्जे का होने का लेबल लग जायेगा। यह साक्षात्कार पढते ही मैं उछल पडा कि चलिये सवेरा हुआ। इन विषयों पर बारीकी से सोचा जा रहा है बेबाकी से बोला जा रहा है। साहित्य में ठेकेदारी बंद होनी चाहिये और एसे विचार प्रसारित होने चाहिये।
जवाब देंहटाएंEye Opener.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
बड़ी बेबाक बातचीत रही - शुरूआत ही धमाकेदार रही - मैं देख रहा हूँ कि श्रेष्ठ रचना और खराब लेखन के बीच की सीमा रेखा विलीनता की ओर है...
जवाब देंहटाएंनई रचनाओं में पठनीयता रेहन रख दिया गया है शायद....
बात बार बार दिमाग में आती थी कि साहित्य समुदाय मौन क्यों है? तानाशाही के खिलाफ बोलता क्यों नहीं? कविता मरती जा रही है..कमसे कम इस सच के इनकार नहीं किया जाना चाहिये कि कविता की लोकप्रियता समाप्त हो गयी है और इसके लिये खेमेबाजी भी जिम्मेदार है। अंधेरे में दीपक हैं आपके विचार।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा आपके विचारों को पढना।
जवाब देंहटाएंअच्चा साक्षातकार -कई पुराने नये मुद्दों और आधुनिक परिप्रेक्ष्यों को समेटे हुए ! शुक्रिया !!
जवाब देंहटाएंकविता में गुटबाजी और किसी विशेष मानसिकता वाले लोगों के लिये कविता लिखने (या ऐसा प्रचारित करने) से कविता का निश्चय ही सर्वाधिक अहित हुआ है। रचनाकारों को ऐसी संकीर्ण गुटबंदी की हदों से बाहर आकर जन-सामान्य के लिये उसकी भाषा में कविता लिखनी चाहिये जो निस्संदेह लोकप्रिय होगी और तभी शायद साहित्य के आम-आदमी से दूर होते जाने की यह दुखद स्थिति समाप्त होगी।
जवाब देंहटाएंविश्वरंजन जी से यह बातचीत बहुत अच्छी रही। प्रश्न और उनके उत्तर दोनों ब्हुत स्पष्ट और बेबा्क रहे।
बडी बेबाकी से विश्वरंजन जी ने अपनी राय रखी है. इसमें कोई दो राय नहीं कि लेखन में रूची जितनी अधिक बढी है उसके मुकाबले पढने वाले बहुत कम हैं. स्वंय लेखक भी इसका उधाहरण हैं.. स्तरीय लेखन के लिये बहुत सा पठन तथा विभिन्न विचार धाराओं से परिचित होना अत्यन्त आवश्यक है.
जवाब देंहटाएंजय प्रकाश मानस जी का आभार जिन्होनें इतना अच्छे साक्षात्कार से हमे दो-चार किया
यह प्रसन्नता की बात है कि साहित्य के क्षेत्र में और सोच में बदलाव देखा जा रहा है। यह साधारण बात नहीं है। विश्वरंजन जी नें जिस तरह आलोचना, कविता और पंथ तथा उनकी प्रतिबद्धताओं पर बात की है यह आहट है कि तानाशाही नहीं चलेगी।
जवाब देंहटाएंअच्छा साक्षात्कार है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा साक्षात्कार है, जयप्रकाश जी का धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंकविता में; साहित्य में या कला में भी हम उसी चीज़ को आंशिक रूप से ही सही सम्रझने, देखने और परखने की कोशिश करते हैं। इसके लिए कभी हम मार्क्सवादी समझ का सहारा लेते हैं। कभी गैर मार्क्सवादी समझ का सहारा। तुलसी ने राम चुना, कबीर ने निर्गुण, सूरदास ने कृष्ण, विद्यापति ने कृष्ण और गोपियों के बीच प्रणय और शरीर की खुबसूरती में छुपा एरौटिसिज्म। आज मज़दूर की मशक्कत में भी उसकी आंशिक झलक देख पाते हैं, फूलों, पौधों और आकाश की सेन्सुएलिटी में भी। जैसे विज्ञान किसी भी जगह इति नहीं कह सकता है, इस धार्मिक चाह, प्यास, तड़प का भी कभी इति नहीं किया जा सकता।
जवाब देंहटाएंसंपूर्ण सत्य।
अति-महत्व का साक्षात्कार है।
जवाब देंहटाएंअनुज कुमार सिन्हा
भागलपुर
जितने सुलझे हुए और असरदार प्रश्न थे , उतने ही बेबाक जवाब ...
जवाब देंहटाएंविश्वरंजन खुल कर सामने आये हैं ... उन की हर विषय में पकड़ है और साहित्य के प्रति एक गहरी सोच .
Elitism पर उन के विचार क्रांतिकारी हैं और उन का दावा कि elitism एक नकाब की तरह है जो जन सामान्य को साहित्य से दूर ले जा रहा है , काफी हद तक तार्किक है | बशीर बद्र , मुन्नवर राणा , राहत
इंदोरी जैसे कई शायर हैं जो elitism के दायरों से बाहर आये और जन प्रिय हुए |
साहित्य में कामुकता और वीभत्सता को ले कर भी उन के विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जा सकता |राही मासूम रज़ा कहा करते थे कि एक साहित्य कार को उस की कहानी के पात्र के चरित्र को ले कर लज्जित या गौरवान्वित नहीं होना चाहिए | पात्र अगर गालियाँ देता है तो वो गाली ही देगा और यदि वह गीता के श्लोक कहता है तो निसंदेह वही कहे ...
पर यदि कामुकता के लिए एक जगह बनानी पडे तो रचनात्मक कोण चला जाता है और सिर्फ बाज़ार रह जाता है |
वैसे मार्क्सवाद पर एक ही सवाल काफी था | :-)
साहित्य से जुडे कई पहलुओं पर प्रकाश डालता एक बेहतरीन साक्षात्कार ..
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंek achchhaa saakshaatkaar aur achchhee prastutee. paRh kar sochne ke liye majboor kartaa hai.
जवाब देंहटाएंmeree badhaai!
ek jagah shaa'id typo ho gayee hai. truTee door kar leejiyegaa.
ज़ालिम, मीरों, मुसह़फी हम भी फ़िराक़ कुछ कम नहीं
uprokt sher meN 'zaalim' naheeN 'Ghaalib' hai.
asl meN sher hai!
Ghalib o mir o mushafee,
ham bhee firaq kam naheeN!
dhanyavaad!
JAIPRAKASH MANAS JEE KAA AABHAAR.
जवाब देंहटाएंVISHVARANJAN JEE KAA EK-EK VAKYA
KUCHH N KUCHH SOCHNE KE LIYE
MAJBOOR KARTAA.
Jai prakash ji ke madhyam se maine Ek achhe varisth kavi ke vichar jane bahut bahut shukriya
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रश्न और उतने ही प्रभावशाली उनके उत्तर! इस बेबाक बातचीत को पढ़वाने के लिये जयप्रकाश मानस जी धन्यवाद के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंजब प्रश्न करनेवाला और उत्तर देनेवाला दिनोँ ही प्रबुध्ध होँ तब एक स्तरीय वार्तालाप सामने आता है
जवाब देंहटाएंयही आज साहित्य शिल्पी पर देख रही हूँ - फिलहाल इसे " सेव " कर लिया है
कई बार-- शाँति से,
पढने लायक है
बहुत अच्छा लगा -
स स्नेह,
- लावण्या
कविता बेरस हो गई है
जवाब देंहटाएंअच्छी और खराब कविता के बीच की रेखा विलीन नहीं हो रही अपितु यह कहा जा सकता है कि अच्छी कविता ही विलीन होती जा रही है।
पाठकों का आजकल खुद ही कविता लिखने लगना भी कविता के पाठकों की कमी का कारण है। कविता लिखने के बाद वे स्वयं की कविता ही बारंबार आत्ममुग्ध होकर पढ़ते रहते हैं। यह प्रवृत्ति भी घातक है।
एक ऐसी बातचीत जो साफ बतला रही है कि हमारी आंखें बंद क्यों हैं ?
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.