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इकहरी सड़क [कविता] - दिव्यांशु शर्मा



रचनाकार परिचय:-


दिव्यांशु शर्मा का जन्म सितम्बर 1984 को छत्तीसगढ मे हुआ था। उपकरण नियंत्रण प्रौद्योगिकी मे बी.ई. की उपाधिधारक दिव्यांशु की साहित्य मे बचपन से ही रूचि रही है। उनका विश्वास है कि समाज को एक सोच और दिशा देने में साहित्य की बडी भूमिका है।
सामयिक कवियों में वे गुलज़ार एवम निदा फ़ाज़ली से उत्प्रेरित है।

रेत के टीले लग कर जो इकहरी सड़क,
तुम्हारे दर तक जाती है,
उसे देखकर मुझे अपने हाथ की,
लकीर याद आती है,
लकीर भी वो जो जिंदगीनामा कहती है,
कितनी मासूम है ये सड़क,
जब बूढ़े बरगद के नज़दीक से होकर गुज़रती है,
तो यों लगता है कि,
कोई छोटी बच्ची
दादा से साथ चलने की ज़िद करती हो,

ऐसी एक मासूम ज़िद मैंने भी की थी तुमसे,
पर तुम तो बस बरगद होकर रह गई हो,
और मै शायद सड़क...

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20 टिप्पणियाँ

  1. कम शब्दों में गहरी बात कह गये आप दिव्यांशु जी.

    ऐसी एक मासूम ज़िद मैंने भी की थी तुमसे,
    पर तुम तो बस बरगद होकर रह गई हो,
    और मै शायद सड़क...

    ये अन्तिम पक्तियां रचना की जान हैं.

    न तो पेड (बरगद) चलते हैं.. न ही कोई बडा (बरगद) किसी छोटे/नाकारा/आवारा (सडक- जिसकी अपनी कोई मंजिल नहीं होती) का हाथ थामता है

    जवाब देंहटाएं
  2. ऐसी एक मासूम ज़िद मैंने भी की थी तुमसे,
    पर तुम तो बस बरगद होकर रह गई हो,
    और मै शायद सड़क...
    वाह वाह क्या बात है। बहुत सुन्दर।

    जवाब देंहटाएं
  3. दिव्यांशु,
    मुझे कविता की शुरूआत ने बहुत अपील किया-
    जो इकहरी सड़क,
    तुम्हारे दर तक जाती है,
    उसे देखकर मुझे अपने हाथ की,
    लकीर याद आती है,
    लिखते रहें- पढ़ाते रहें-

    जवाब देंहटाएं
  4. कितनी मासूम है ये सड़क,
    जब बूढ़े बरगद के नज़दीक से होकर गुज़रती है,
    तो यों लगता है कि,
    कोई छोटी बच्ची
    दादा से साथ चलने की ज़िद करती हो

    ...... बहुत सुंदर दिव्यांशु जी. शुभकामना

    जवाब देंहटाएं
  5. ऐसी एक मासूम ज़िद मैंने भी की थी तुमसे,
    पर तुम तो बस बरगद होकर रह गई हो,
    और मै शायद सड़क...

    अंत बहुत अच्छा है कविता का।

    जवाब देंहटाएं
  6. दिव्यांशु,
    तुम्हारी इस कविता की खासियत है प्रयुक्त बिम्ब जो न केवल दृष्य उपस्थित कर रहे हैं अपितु संवेदना का सही प्रस्तुतिकरण भी कर रहे हैं :-

    उसे देखकर मुझे अपने हाथ की,
    लकीर याद आती है

    तो यों लगता है कि,
    कोई छोटी बच्ची
    दादा से साथ चलने की ज़िद करती हो

    तुम तो बस बरगद होकर रह गई हो,
    और मै शायद सड़क...

    बहुत खूब।

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत अच्छी कविता है दिव्यांशु जी। बधाई।

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  8. रेत के टीले लग कर जो इकहरी सड़क,
    तुम्हारे दर तक जाती है,
    उसे देखकर मुझे अपने हाथ की,
    लकीर याद आती है

    बहुत अच्छी कविता। पढ कर मन प्रसन्न हो गया।

    जवाब देंहटाएं
  9. दिव्यांशु जी आपकी यह कविता बताती है कि आप बहुत अच्छे कवि हैं । आपको और भी पढना चाहूंगी।

    जवाब देंहटाएं
  10. नयी कविता में कोमल भाव जैसे पिरोये गये हैं, बस कमाल है।

    जवाब देंहटाएं
  11. ऐसी एक मासूम ज़िद मैंने भी की थी तुमसे,
    पर तुम तो बस बरगद होकर रह गई हो,
    और मै शायद सड़क...

    अच्छी कविता है।

    जवाब देंहटाएं
  12. आप "उसे" देख कर हाँथों की लकीर ही नहीं कविता की नब्ज भी पकड कर चले हैं।

    जवाब देंहटाएं
  13. बहुत अच्छी रचना है दिव्यांशु....भई बहुत बढ़िया

    खास कर अपने क्लाईमेक्स पे ले जाकर आप जो कहते हैं "पर तुम तो बस बरगद होकर रह गई हो,
    और मै शायद सड़क..."...कुछ धक्क सा रह जाता है

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  14. एक बहुत अच्छी कविता के लिए बधाई !

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  15. गहरी बात कम शब्दों में ....

    ऐसी एक मासूम ज़िद मैंने भी की थी तुमसे,
    पर तुम तो बस बरगद होकर रह गई हो,
    और मै शायद सड़क...


    सुन्दर रचना ....
    बधाई ...

    जवाब देंहटाएं
  16. humey na malum the ke aap itney badey kavi hai.aaj pahle baar aapki es kavita ko padney ke baad hum kah saktey hai k hum ek acchey kavi ke mitra hai.

    जवाब देंहटाएं

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