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यादों की धरती पर [कविता] - सुभाष नीरव

तुमने
मेरी यादों की धरती पर
अपना घर बना रखा है
घर कि
जिसके द्वार
खुले रहते हैं सदैव।

जब जी चाहता है
तुम आ जाते हो इस घर में
जब जी चाहता है
चले जाते हो इससे बाहर।

तुम्हारे आने का
न कोई समय तय है
न जाने का।

तुम्हारे आते ही
जीवंत हो उठता है यह घर
तुम्हारे चले जाने से
पसर जाता है इसमें
मरघटों-सा सन्नाटा।

तुम्हें हाथ पकड़ कर
रोक लेने की
चाहत भी तो पूरी नहीं होती
क्योंकि
न जाने कहाँ छोड़ आते हो
तुम अपनी देह
इस घर में आने से पहले।
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28 टिप्पणियाँ

  1. सुभाष नीरव एक अच्छे कथाकार के साथ एक अच्छे कवि और गजलकार हैं. उनकी प्रस्तुत कविता मन में उथल-पुथल मचा देती है.

    चन्देल

    जवाब देंहटाएं
  2. सुभाष नीरव एक अच्छे कथाकार के साथ एक अच्छे कवि और गजलकार हैं. उनकी प्रस्तुत कविता मन में उथल-पुथल मचा देती है.

    चन्देल

    जवाब देंहटाएं
  3. तुम्हें हाथ पकड़ कर
    रोक लेने की
    चाहत भी तो पूरी नहीं होती
    क्योंकि
    न जाने कहाँ छोड़ आते हो
    तुम अपनी देह
    इस घर में आने से पहले।

    सुन्दर संवेदना

    जवाब देंहटाएं
  4. बधाई के साथ एक सुझाव

    कि घर में खिड़कियां भी

    लगवा लें, वह भी आने

    जाने के काम में आएंगी

    और घर को सुंदर बनाएंगी।

    जवाब देंहटाएं
  5. कोमल कविता बहुत अच्छी तरह बुनी गयी।

    जवाब देंहटाएं
  6. तुम्हारे आते ही
    जीवंत हो उठता है यह घर
    तुम्हारे चले जाने से
    पसर जाता है इसमें
    मरघटों-सा सन्नाटा।

    मन को छू गयी लाईनें।

    जवाब देंहटाएं
  7. महादेवी के जन्मदिवस को इस तरह मनाया जाता देख मन प्रफुल्लित हो गया है। साहित्य शिल्पी सही दिशा में आगे बढ रही है।

    सुभाष नीरव जी की कविता बहुत प्रभावित करती है।

    जवाब देंहटाएं
  8. एक भावभीनि रचना...

    तुम्हें हाथ पकड़ कर
    रोक लेने की
    चाहत भी तो पूरी नहीं होती
    क्योंकि
    न जाने कहाँ छोड़ आते हो
    तुम अपनी देह
    इस घर में आने से पहले।

    सचमुच तन पर तो अधिकार हो सकता है.. मन को पकडना मुशकिल है..

    जवाब देंहटाएं
  9. मन को पकड़ना सचमुच बहुत मुश्किल होता है ...बहुत अच्छी रचना पढ़वाई आपने

    मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  10. कविता का माध्यम विभिन्न तरीके से मन के भाव प्रगट कर सकता है
    खूबसूरत है आपका माध्यम, नवीन शब्दों में सजा

    जवाब देंहटाएं
  11. तुम्हें हाथ पकड़ कर
    रोक लेने की
    चाहत भी तो पूरी नहीं होती
    क्योंकि
    न जाने कहाँ छोड़ आते हो
    तुम अपनी देह
    इस घर में आने से पहले


    संवेदनशील रचना


    जैसा कि अविनाश जी ने सुझाव दिया है कि आप घर में खिड़कियाँ लगवा लें...तो सस्ती और टिकाऊ खिड़कियों के लिए मेरी सेवाएँ हाज़िर हैँ

    जवाब देंहटाएं
  12. aap ki sari rachnaye bahut sunder hoti hai .
    ye kavita bhi bhi bahut sunder hai
    saader
    rachana

    जवाब देंहटाएं
  13. सुंदर भावपूर्ण रचना है। बधाई स्वीकारें।

    जवाब देंहटाएं
  14. सुभाष भाई बहुत ही अच्‍छी कविता लिखी है आपने मजा आ गया पढकर बहुत धन्‍यवाद

    जवाब देंहटाएं
  15. सुभाष जी की रचना हृदय की गहराईयों तक उतर गई.
    तुम्हें हाथ पकड़ कर
    रोक लेने की
    चाहत भी तो पूरी नहीं होती
    क्योंकि
    न जाने कहाँ छोड़ आते हो
    तुम अपनी देह
    इस घर में आने से पहले।
    बधाई

    जवाब देंहटाएं
  16. ..........

    तुम्हें हाथ पकड़ कर
    रोक लेने की
    चाहत भी तो पूरी नहीं होती
    क्योंकि
    न जाने कहाँ छोड़ आते हो
    तुम अपनी देह
    इस घर में आने से पहले।

    अति सुंदर .....

    जवाब देंहटाएं
  17. TUM HAATH PAKAD KAR
    ROK LENE KEE
    CHAAHAT BHEE TO
    POOREE NAHIN HOTEE
    KYON KI
    N JAANE KAHAN
    CHHOD AATE HO
    TUM APNEE DEH KO
    IS GHAR MEIN
    AANE KE PAHLE
    KYAA SUNDAR AUR KOMAL BHAV
    KEE ABHIVYAKTI HAI!SAADGEE KE SAATH-SAATH HIZAAB BHEE CHHIPAA
    HAIN IN PANKTIYON MEIN.MUBAARAK

    जवाब देंहटाएं
  18. Neerav Saheb...iss khoobsurat nazam ke liye aapko mubarakbaad bhej rahi hoon...

    तुम्हें हाथ पकड़ कर
    रोक लेने की
    चाहत भी तो पूरी नहीं होती
    क्योंकि
    न जाने कहाँ छोड़ आते हो
    तुम अपनी देह
    इस घर में आने से पहले।
    Inn satron ne kavi-man par gehra parbhav chhorha hai. Pls keep it up.

    Best Regards
    Tandeep Tamanna
    Vancouver, Canada
    punjabiaarsi.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  19. भाई अविनाश और राजीव जी के सुझाव के लिए धन्यवाद । सचमुच इस घर में एक खिड़की लग जाती तो घर और सुन्दर हो जाता। भाई राजीव जी, मालूम हुआ है कि आपका खिड़कियों –दरवाजों का कारोबार है, एक ठौ खिड़की उपहार में ही भिजवा दें तो लगवा दूँ, आभारी होऊँगा। मंदी के चलते नहीं लगवा पाया हूँ।

    जवाब देंहटाएं
  20. राजीव जी कह रहे हैं

    ले जाने के लिए आइए

    स्‍वागत है।

    जवाब देंहटाएं
  21. Yadon kee dhatee par bahut bhavpoorN kavita hai. maraghat ka sannta
    upma pathak ke samne ek udasee ka chitra kheenchtee hai.badhaee!
    Rekha Maitra
    rekha.maitra@gmail.com

    जवाब देंहटाएं
  22. अब ये कविया के बीच खिड़कियाँ कहाँ से आ गयी नीरव जी...?

    तुम्हें हाथ पकड़ कर
    रोक लेने की
    चाहत भी तो पूरी नहीं होती
    क्योंकि
    न जाने कहाँ छोड़ आते हो
    तुम अपनी देह
    इस घर में आने से पहले।

    बहुत सुंदर रचना...गहरे भाव लिए .बधाई...!!

    जवाब देंहटाएं
  23. हरकीरत जी, अब कवि-मित्रों का कहना है कि घर बनाया है तो सिर्फ़ दरवाजे से काम नहीं चलेगा, सुन्दर घर के लिए खिड़की भी होनी चाहिए। मैंने कहा -इस घर में जो खिड़की की जो कमी है, आप ही लगवा दो। खैर ! मैं उन सभी का हृदय से आभारी हूँ कि जिन्होंने मेरी इस प्रेम कविता को पढ़कर अपनी टिप्पणियों से मुझे और अन्य पाठकों को अवगत कराया।

    जवाब देंहटाएं
  24. subhash jee der se hi sahi aapki ek achhi kavita padne ko mili vaakei jo log karm bhumi se gayab ho jate hain, yaad aate hain lekin unki rachnae apne hone kaa ehsas krati hain yahi unki saphalta ka raj hai jiske karan ve kabhi bhi hamse door nahi hote hain isiliye deh ka koi aarth nahi rehta hai lekin deh ko jis tarah aapne kavita me prayogatmak sawarup deker prastut kiya hai uske liye aapko badhai deta hoon

    ashok andrey

    जवाब देंहटाएं
  25. तुम्हें हाथ पकड़ कर
    रोक लेने की
    चाहत भी तो पूरी नहीं होती
    क्योंकि
    न जाने कहाँ छोड़ आते हो
    तुम अपनी देह
    इस घर में आने से पहले।

    Wah subhash ji in panktiyon ne man moh liya bhaut khoonsurat

    जवाब देंहटाएं

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