
सूखा घाट
और तालाब
पत्ते पीपल के
सूख चुके हैं सारे
’बरमबाबा’ की डालें
हिलती हैं जब हवा से,
सुनायी देती है मुझे
रुनझुन ....
तुम्हारी नयी पायल की आवाज
अब भी ....
खड़कते हुये पत्तों में
कैथे का पेड़
अब हो गया है
बहुत बड़ा,
सींचा था जिसे अक्सर
कलश की बची बूंदों से
तुमने .....
हर जेठ की तपती दोपहर को
’शिव जी महाराज’ ..
बच्चों से कभी
होते नहीं नाराज
यही तो कहते थे
हर बार ….
सामने की पगडंडी
खो जाती है अब भी
इक्का दुक्का पलाश,
और 'ललटेना'’ की झाड़ियों में
आधुनिकता के प्रतीक
'लिप्टस' के जंगलों में
देखता हूँ अदृश्य पटल पर
तुम्हारी ...
पलाश के दोनों में
करौंदे के प्रसाद वाली
दोपहर की दावत को
बरमबाबा का ...
लबालब भरा तालाब
चहचहाती चिडियाँ
हरा भरा जंगल
अंकुरित आम की गुठलियाँ
और उन्हें यहाँ वहां गाड़ते
एक साथ हमारे नन्हे हाथ
अपने नाम को
अक्षुण करने की चाह में
श्रीकान्त मिश्र 'कान्त' का जन्म 10 अक्तूबर 1959 को हुआ। आप आपात स्थिति के दिनों में लोकनायक जयप्रकाश के आह्वान पर छात्र आंदोलन में सक्रिय रहे। आपकी रचनाओं का विभिन्न समाचार पत्रों, कादम्बिनी तथा साप्ताहिक पांचजन्य में प्रकाशन होता रहा है। वायुसेना की विभागीय पत्रिकाओं में लेख निबन्ध के प्रकाशन के साथ कई बार आपने सम्पादकीय दायित्व का भी निर्वहन किया है। वर्तमान में आप वायुसेना मे सूचना प्रोद्यौगिकी अनुभाग में वारण्ट अफसर के पद पर कार्यरत हैं तथा चंडीगढ में अवस्थित हैं।
बड़े हो चुके हैं अब आम
फल आते हैं इन पर
हर साल…..
बँटवारे मारकाट
और वलवे के
ढूंढ़ रहा हूँ
वर्षों बाद आज फिर
अस्ताचल से उठती
गोधूलि के परिदृश्य में
अपने विलोपित खेत खलिहान
और उसमें से झांकता
स्नेहिल आँखों से लबालब
ग्रामदेवी सा दमकता
तुम्हारा चेहरा ...
जो खो गया है शायद
बीते युग के साथ
इसी सूखे तालाब के
वाष्पित जल की तरह
18 टिप्पणियाँ
तुम्हारा चेहरा ...
जवाब देंहटाएंजो खो गया है शायद
बीते युग के साथ
इसी सूखे तालाब के
वाष्पित जल की तरह
sunder prstuti
तुम्हारा चेहरा ...
जवाब देंहटाएंजो खो गया है शायद
बीते युग के साथ
इसी सूखे तालाब के
वाष्पित जल की तरह
कोमल अहसास।
यादों की पूरी बारात है श्रीकांत जी। बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंढ़ रहा हूँ
जवाब देंहटाएंवर्षों बाद आज फिर
अस्ताचल से उठती
गोधूलि के परिदृश्य में
अपने विलोपित खेत खलिहान
और उसमें से झांकता
स्नेहिल आँखों से लबालब
ग्रामदेवी सा दमकता
तुम्हारा चेहरा ...
जैसे कोई पेंटिंग है
कविता आपने लिखी तो बहुत सुन्दर है ही ..आपकी आवाज़ में सुनना और भी अच्छा लगा .शुक्रिया
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा श्री कान्त साहब .. क्या तस्वीर खींची है .. सबसे खूबसूरत बात ये कि गाँव और यादो को जिस तरह आपस में पिरोया गया है | बस यूँ समझ लीजिये कि हरे रंग के गोटे में सफ़ेद रंग का रेशम | अपना बचपन अपना गाँव कभी छोड़ नहीं पाते और वो हमारे साथ चलते हैं | हमारे दिलों में | बचपन का परिवेश भले ही बदल जाये पर याद एक ही रंग ही होती है |
जवाब देंहटाएं"अस्ताचल से उठती
गोधूलि के परिदृश्य में
अपने विलोपित खेत खलिहान
और उसमें से झांकता
स्नेहिल आँखों से लबालब
ग्रामदेवी सा दमकता
तुम्हारा चेहरा ..."
जिस ने भी गाँव की सांझ को महसूस किया हो उसे ये कविता अपनी कविता लगेगी.. अपने दिल की कविता लगेगी ...
शुक्रिया :-)
तुम्हारा चेहरा ...
जवाब देंहटाएंजो खो गया है शायद
बीते युग के साथ
इसी सूखे तालाब के
वाष्पित जल की तरह
मधुर अभिव्यक्ति, नर्म एहसास........
सुन्दर रचना है
हमेशा की तरह एक और सुंदर प्रस्तुति के लिये श्रीकांत जी को बधाई!
जवाब देंहटाएंNice Poem, Thanks.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
आदरणीय श्रीकांत जी की कविता बहुत से अर्थों को स्वयं में समाहित किये उस नदी की तरह है जो पाठक के हृदय में उतर कर निर्झर हो जाती है।
जवाब देंहटाएंतुम्हारा चेहरा ...
जवाब देंहटाएंजो खो गया है शायद
बीते युग के साथ
इसी सूखे तालाब के
वाष्पित जल की तरह
श्रीकांत जी !
बहुत सुन्दर...
आपकी आवाज़ में सुनना
और भी अच्छा लगा ....
बधाई...
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है। इसमें बहुत कुछ है जो दिल को छूता है। आवाज़ मैं नहीं सुन पाई। अवश्य ही और अच्छी और प्रभावी बन पड़ी होगी। बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंग्रामीण परिवेश में लिखी गयी सुन्दर कृति के लिए श्रीकांत जी को बधाई. सस्वर सुनना भी एक सुखद एहसास है.. रचना सीधे दिल में उतर जाती है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ... पढा भी और सुना भी ... गांव के सांझ की सुंदर तस्वीर खींची गयी है इस रचना में ... बहुत बढिया लगा ... श्रीकांत मिश्र 'कांत' जी को बधाई दें।
जवाब देंहटाएंबड़े हो चुके हैं अब आम
जवाब देंहटाएंफल आते हैं इन पर
हर साल…..
बँटवारे मारकाट
और वलवे के
ढूंढ़ रहा हूँ
वर्षों बाद आज फिर
अस्ताचल से उठती
गोधूलि के परिदृश्य में
अपने विलोपित खेत खलिहान..
..... बहुत दिनो बाद आज फ़िर से आपको पढना, सुनना बहुत अच्छा लगा. बचपन से जानती हूं, आपको पृ्क्रति और गांवों से बहुत लगाव है किन्तु समय के साथ बदलाव नैसर्गिक नियम भी तो है. ....
सारे देश में यही दशा है क्या देश को आजाद कराने में अपना जीवन देने वाले भगत सिंह और क्रांतिकारियों ने आजादी के पेड़ लगाते समय यह सोचा होगा. राजनीतिकों ने फ़ूट के बीज सब जगह बो दिये हैं.
जवाब देंहटाएंबड़े हो चुके हैं अब आम
फल आते हैं इन पर
हर साल…..
बँटवारे मारकाट
और वलवे के
सच्ची और सुन्दर पंक्तियां
आपकी आवाज में सुनना और भी अच्छा लगा.
जवाब देंहटाएंकविता में आज के युग की सच्चाई झलकती है.
जो खो गया है शायद
बीते युग के साथ
इसी सूखे तालाब के
वाष्पित जल की तरह
वाह ..... सुंदर ....
'जो खो गया है शायद
जवाब देंहटाएंबीते युग के साथ
इसी सूखे तालाब के
वाष्पित जल की तरह .
बहुत ही सुन्दर कविता है.
और चित्र चयन भी हमेशा की तरह कविता को बताता हुआ .
आप के स्वर में कविता सुनना और भी achcha लगा.
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.