काश! मैं कोई परिंदा होता
बहुत सी शाखाओं पर
बैठता
इतराता
गीत गाता
रिमझिम बरसात में
पंख भिगोता
पिहू-पिहू करता
बच्चों के हाथ न आता
फर्र से उड़ जाता
नदिया-नाले पार करता
पहाड़ों पर उड़ान भरता
ढूंढ ही लेता आश्रय अपना
कर लेता साकार
प्रकृति पाने का सपना।
11 मार्च 1959 को (बीकानेर, राजस्थान) में जन्मे मुकेश पोपली ने एम.कॉम., एम.ए. (हिंदी) और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर किया है और वर्तमान में भारतीय स्टेट बैंक, दिल्ली में राजभाषा अधिकारी के पद पर कार्यरत है|
अनेक पुरुस्कारों से सम्मानित मुकेश जी की रचनायें कई प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं| इनका एक कहानी संग्रह "कहीं ज़रा सा..." भी प्रकाशित है। आकाशवाणी, बीकानेर से भी इनकी कई रचनाओं का प्राय: प्रसारण होता रहा है।
ये अंतर्जाल पर भी सक्रिय हैं और अपना एक ब्लाग "स्वरांगन" चलाते हैं।
दुनिया मेरी होती निराली
नहीं कोई देता
धर्म की गाली
अजान कर लेता
कहीं भी
किसी दर माथा
टिका देता
श्रद्धा रखता
मन में जीवित
मजहब के ताने
कपूर बना देता
हज करने की इच्छा है
मगर वो
मेरा देश नहीं है
गुरुद्वारे में सेवा
के लिए
सिर पर
पगड़ी
केश नहीं है।
उस दिन भी तो जलाई गई थी
एक मोटर-गाड़ी
पति और बच्चों के शव
देखती रह गई थी अबला बेचारी
इंसानी जुनून कैसे कोई माने
यह तो थी
धर्म के नाम पर
दानवी चिंगारी
आग की ताकत से अनजान
तमाशा
देख झूम रही थी
भीड़ सा॥
काश।! उस भीड़ में से
दो-चार परिंदे बन जाते
पहुंच जाते बादलों के पार
सारे नभ से जल भर लाते
मगर वहां तो सब इंसान(?) थे
डरपोक
कायर
उनमें कहां परिंदों जैसा प्यार निर्मल
उनमें कहां वो प्रेम का बहता जल
वो तो एक दूसरे को छलना जानते हैं
नहीं हो पाता और कुछ
मासूमियत का कत्ल कर डालते हैं।
आएगा कहीं दूर आकाश से
जब कोई परिंदा मुझसे मिलने
पूछूंगा
मानवीय जमीन का पता
जानता हूं
नहीं बता पाएगा
प्रतीक्षा करुंगा
अगले जनम की
फिर बनकर आऊंगा
एक परिंदा
शाखाओं पर फुदकूंगा
इतराऊंगा
मुस्कराऊंगा
इस दुनिया
के भविष्य को
प्यार से भरे
मीठे गीत सुनाऊंगा।
13 टिप्पणियाँ
बहुत खूब। मुन्नवर राणा साहब कहते हैं कि-
जवाब देंहटाएंयह देखकर पतंगे भी हैरान हो गयीं।
अब तो छतें भी हिन्दु मुसलमान हो गयीं।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com:
परिन्दें का उपमान ले कर आपने बहुत बढिया रचना गढी है..सचमुच धर्म ही इन्सान न हो कर हिन्दू या मुस्लमान बनाता है..
जवाब देंहटाएंआपकी रचना पढ कर एक गाना याद आ गया
मालिक ने तो हर इन्सान को इन्सान बनाया
हमने उसे हिन्दू या मुस्लमान बनाया
मालिक ने तो बक्शी थी हमें एक ही धरती
हमनें कहीं भारत कहीं ईरान बसाया..
साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती अच्छी रचना है।
जवाब देंहटाएंप्रतीक्षा करुंगा
जवाब देंहटाएंअगले जनम की
फिर बनकर आऊंगा
एक परिंदा
शाखाओं पर फुदकूंगा
इतराऊंगा
मुस्कराऊंगा
इस दुनिया
के भविष्य को
प्यार से भरे
मीठे गीत सुनाऊंगा।
सुन्दर अभिव्यक्ति।
आपकी इच्छा पूरी हो।
जवाब देंहटाएंकविता आज के यथार्थ से उद्वेलित भावुक कवि की मनोभावना को भली प्रकार प्रस्तुत कर रही है।
जवाब देंहटाएंपरिंदों की इर्द गिर्द ताने बाने बुनती हुयी सुन्दर रचना...........
जवाब देंहटाएंबहूत कुछ कह गयी है ये कविता
Nice Poem.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
सही बिम्ब लिया है आपनें।
जवाब देंहटाएंsunder bimb ke sath umda kavita
जवाब देंहटाएंsaader
rachana
सशक्त-सामयिक रचना
जवाब देंहटाएंकाश हम सब परिंदे हो पाते, हम इनसान भी कहाँ रह गये? सशक्त कविता।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ..... भावप्रवण रचना
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.