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मैंने उस को मेल क्यों लिखी? [कहानी] - रचना श्रीवास्तव

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धूप को मै कोई चार साल से जानती हूँ; जब से वो इस यूनिवर्सिटी में आया है। मिलनसार, सब की सहायता को हर समय तैयार। सभी से उसकी अच्छी दोस्ती है। मुझसे अक्सर ही बात होती रहती है। किसी को कोई काम हो तो वो धूप को ही खोजता है। धूप के घर अक्सर ही बैठकी होती थी। उसका सब कुछ बहुत अच्छा था पर उसका व्यवहार उसकी बीवी के साथ मुझे कुछ अच्छा नही लगता। बाहर इतना अच्छा इन्सान धूप; पर घर में एकदम अलग। क्या धूप भी आम मर्दों की तरह है जो दो चेहरे लिए फिरते हैं?

साहित्य शिल्पीरचनाकार परिचय:-

रचना श्रीवास्तव का जन्म लखनऊ (यू.पी.) में हुआ।

आपनें डैलास तथा भारत में बहुत सी कवि गोष्ठियों में भाग लिया है। आपने रेडियो फन एशिया, रेडियो सलाम नमस्ते (डैलस), रेडियो मनोरंजन (फ्लोरिडा), रेडियो संगीत (हियूस्टन) में कविता पाठ प्रस्तुत किये हैं।

आपकी रचनायें सभी प्रमुख वेब-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।

उसके घर जब भी गई, एक बेचैनी सी रही। सुनीता, धूप की बीवी सब की कहीं करती रहती। अपनी अभिलाषा तो उसने कभी कही ही नही। यहाँ तक की वो किसी मेहमान के आने पर भी उन्ही की कही करती रहती। कभी कभी तो ये सब देख के लगता कि उसके घर जाना बंद कर दूँ। हम सभी तो बैठ के बातें करते, हँसते और वो खाना बना रही होती। बीच बीच मे यदि बच्चे को देखने को कहती तो अहसान सा जताता धूप बच्चे को लेता। फ़िर थोडी देर मे कहता, "ले जाओ। ये भूखा है।" या कभी कहता, "ले जाओ। ये सोने वाला है।" सुनीता बेचारी चुप से ले लेती। हम यदि कहते कि लाओ हम कुछ करवा लेते हैं, तो मना कर देती। खाना भी सभी से पूछती रहती। फ़िर धीरे से धूप से पूछती, "सुनो, ठीक है।" पर धूप हमेशा कुछ न कुछ कमी बता देता। सुनीता दुखी हो जाती और सारे समय इस गिल्ट मे रहती कि खाना ठीक नही बन पाया। ये सब देख मन खेद और आक्रोश से भर जाता। एक जीवन मिलता है और वो भी सुनीता यूँ ही बिताये दे रही थी। जब भी कभी कुछ कहती तो धूप उसको चुप कर देता, "तुम को मालूम नही तो क्यों बोलती हो। जाओ, अपना काम करो।" और वो अपनी खिसियाहट को मिटाने का भरसक प्रयास करती हुई मुस्कुराने की नाकाम कोशिश करती। फ़िर बच्चों के बहाने वहाँ से उठ जाती। फ़िर धूप कुछ फरमाइश करता और वो पूरा करती। कभी कभी तो ये लगता कि वो हम सभी के बीच होते हुए भी अलग है। कहीं चुप-चाप बैठी सभी को देखती रहती। कभी कोई बात उस से कहो तो कहती, "इन्ही से पूछो। मुझे कहाँ पता है इन सब चीजों का।" मुझे तो बहुत गुस्सा आती सुनीता पे भी कभी कभी। अमेरिका आए उसे ४ साल हो चुके हैं पर कार चलाना उसने अभी तक सीखा नहीं। अब यदि ये कंहूँ की उस को सिखाया नहीं तो ग़लत न होगा। सभी उसको पूछते कि "तुम क्यों नहीं सीखतीं?" तो कहती, "इनके पास टाइम नही है और फ़िर मै डरती भी हूँ।" सब झूठ बकवास.... मै जानती थी कि वो धूप को कोई कुछ न कहे बस इसीलिए ये सब कह रही थी। एक दिन मेरे हाथ सुनीता की डायरी लग गई। देख के मैं हैरान रह गई। इतनी चुप रहने वाली सुनीता शब्दों की इतनी धनी थी। अपने भावों को शब्दों में पिरो के कविता की माला बना दी थी। कविता भी इतनी सुंदर कि मन भावविभोर हो गया। मेरे पूछने पे बताया कि "मालूम नहीं कि मै कविता के साथ बड़ी हुई या कविता मेरे साथ। जब से लिखना सीखा, लिखा।" इतनी गुणवान लड़की और ये हाल! घर में धूप ने जो कुछ कह दिया, वही होगा। सुनीता की मर्जी क्या है, कभी धूप ने जानने की कोशिश नहीं की। कभी पूछा भी तो घुमा-फिरा के अपनी ही बात की हाँ करवा ली। मै कभी कभी ये सोचती कि कोई ऐसा जीवन कैसे जी सकता है। जीवन उसका और अधिकार किसी और का! उसकी अपनी जिंदगी में उस का कुछ भी नहीं। उस को कंहीं जाना भी हो तो उस की मर्जी नहीं चलती। धूप को ठीक लगेगा तो जायेगी। उफ़ ये क्या है; सांसे किसी की और अधिकार किसी का! धड़कन किसी की और पहरा किसी का! मुझे लगा मुझे सुनीता से बात करनी चाहिए। मैने उसको एक मेल लिख दी।

प्रिया सुनीता,

तुम सोचती होगी कि मैं तुम को मेल क्यों कर रही हूँ। जानती हो मै तुम से बात करना चाहती हूँ। प्यार में डर नहीं होना चाहिये और प्यार मे गुलामी नहीं होनी चाहिए। तुम धूप से प्यार करो पर उसकी शर्त पे नहीं। समर्पण करो पर डर के नहीं। अपना दिमाग बंद मत करो, उसका इस्तेमाल करो। जीना सीखो। तुम विलक्षण प्रतिभा की मालकिन हो। अपने आप को किसी से कम न समझो। अपना सम्मान ख़ुद करो तभी सब तुम्हारा सम्मान करेंगे।

तुम हमेशा धूप की बात को क्यों सच और सही मानती हो? बहुत बार तुम सही होती हो। तुम जानती हो पर फ़िर भी... उफ़ सुनीता! अपना दायरा तोड़ो। बाहर निकलो। दुनिया में न सही पर अपने घर में अपनी जगह बनाओ। बच्चों की निगाह मे ख़ुद को कमजोर माँ मत बनाओ। 

मेरी बात पे सोचना।

प्यार,
निशा


मेल लिखने के बाद मन कुछ हल्का लगा। मैं आराम से सो गई। लैब में धूप से मुलाकात हुई। पर उसने बात नहीं की। थोडी देर बाद वो आया तो मैंने पूछा क्या बात है, बस फ़िर क्या था; ज्वालामुखी सा फूट पड़ा। "तुम अपने आप को समझती क्या हो? ख़ुद का घर तो तोड़ के बैठी हो। अब मेरा घर है निशाने पे... तुम कौन होती हो, ये सब कहने वाली। मै कसाई हूँ, यही कहना चाहती हो। जीवन त्याग से चलता है। पर तुम क्या जानो... आइंदा यदि तुम ने कुछ कहा तो ठीक नहीं होगा, कह के धूप चला गया। मै ठगी सी सोचने लगी, किस त्याग की बात कर रहा था ये? जो सिर्फ़ औरत करती है। घर चलने के लिए क्या मात्र औरतों को सोचना चाहिए। मुझे जो बोला वो तो सुनने की आदत हो गई है। मेरा बस इतना कसूर है कि मैंने अपना जीवन किसी को सौंपा तो था पर उस पे उसे अधिकार करने की इजाजत नहीं दी। उस की गालियाँ नही सुनीं। घुट के जिंदा रहना नहीं स्वीकार किया। तो सब को लगने लगा कि मै ग़लत हूँ। यदि एक लड़की अपने लिए जीना चाहती है तो क्या ग़लत है? क्यों उसे कुलटा, बदमाश समझा जाता है? क्यों अकेली लड़की को सब अपनी जायजाद समझते हैं? मैंने ऐसा क्या कह दिया था कि धूप ने मुझे भला-बुरा सुना दिया? जीवन की सच्चाई पे लंबा भाषण दे डाला। क्या इस लिए की मैंने बस उस को उसका आइना दिखा दिया था या जो कुछ अपने घर मे करता था, उस बात को उसकी बीवी को समझा दिया था? सुनीता, उसकी बीवी को अपने लिए कुछ सोचने को कह दिया था? क्या ग़लत किया था, यदि मैंने सुनीता को अपना आसमान ढूँढने को कहा था? अपने लिए भी एक जमीं माँगने की ख्वाहिश जगाई थी? मैं ये सब सोच ही रही थी कि सुनीता का फोन आया "निशा जी! जानती हैं, इन्होंने आप की मेल पढ़ ली थी।"

"मुझे मालूम है। तुम को कुछ कहा क्या?"

"नही कुछ नहीं (पर उस के रोने की आवाज मुझे सुनाई दी)"

मैं सोचने लगी, मेल तक पर पहरा... जब मुझे इतना कुछ कहा तो उसको तो............... मुझे मालूम था कि उसका कम से कम एक हफ्ता अब बहुत बुरा बीतने वाला है। घर में रहेगा चुप्पी का माहौल और सुनीता की शामत! कुछ दिनों तक सुनीता से कोई बात नहीं हुई। एक दिन पता चला कि सुनीता को उसकी माँ के पास भेज दिया धूप ने। बच्चों को अपने ही पास रखा है। कहा गया सुनीता से कि ये उस की सजा है। 6 महीने बच्चों से दूर रहो, जब दिमाग ठंडा हो जाए तो बताना| मैं सुन के हैरान रह गई। क्या हमारा देश आजाद हो गया है? या ये आज़ादी मात्र कुछ लोगों के लिए ही है? सुनीता को उस गुनाह की सजा दी गई जो उस ने किया ही नही... और ये सब हुआ मेरी एक मेल की वजह से... मैं बहुत पछता रही थी कि मैंने उस को मेल क्यों लिखी?????

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11 टिप्पणियाँ

  1. रचना जी !
    एक सामायिक और सुन्दर कथा

    कथानक सामयिक है. शैली में सहजता और प्रवाह है. बस अंत में मुख्य चरित्र द्वारा मानसिक द्वंद में पश्चाताप सदृश यह सोचना कि 'मैंने मेल क्यों लिखी' पलायनवादी सन्देश है.

    रचनाकार का एक उत्तरदायित्व समाधान और संघर्ष के लिए उत्प्रेरण भी है. कथानक की समस्या महिलाओं के लिए नयी नहीं है. किन्तु इसके विपरीत उठने वाली आवाजों की संख्या में वृद्धि ही एक दिन इसका समाधान भी होगी - शुभकामनायें

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  2. सुंदर और और प्रभावी कहानी........अच्छी लगी।

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  3. सुनीता की कहानी कई महिलाओं की कहानी है.. शायद उनका भी कुछ कुछ हाथ है इसमें.

    सिर झुकाने से कुछ नहीं बनता
    सिर उठाओ तो कोई बाते बने
    अपना हक संग दिल जमाने से
    छीन पाअओ तो कोई बात बने...

    पहल की जरूरत है और उसके लिये थोडी हिम्मत की.
    धूप जैसे व्यक्तियों का सामाजिक बहिष्कार भी एक उपाय है

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  4. बहुत ही मार्मिक कहानी दिल को छू गई
    बधाई
    महेश

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  5. aap sabhi ka bahut bahut dhanyavad ki aap ne kimti vichar mujhe likhe .
    isse mujhe likhne ka protsahan milta hai
    aap sabhi ka abhar
    rachana

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  6. aap likhe gaye sansmarnaatmak aalekh ke maadhyam se apni baat kahne men safal hui hain, lekin ye kahaani ke formate men nahi hai, aapke paas abhivyakti ki kshamta hai, ek din avashy achchhi kahaniyan likhengi ...
    - vijay

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  7. क्या खूब लिखा है कितने सुंदर तरीके से लिखा है .मुझे कहानी बहुत पसंद आई
    सादर
    दिव्या

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  8. रचना जी अगर ये कहानी सच है तो आपने अपना फर्ज पुरा किया है हकीकत में महिलाओं के साथ इतना ही अत्याचार हो रहा है किचना शोषण हो रहा है की मेल तक को चैक करके .......
    आपकी एक बात से सभी महिलाओं को शिक्षा लेनी चाहिए समर्पण करो मगर डर से नही

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  9. kahani padhna shuru kiya to ek sans me puri padh hai .sach bahut sunder likha hai aur sach bhi
    badhai
    sudha

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  10. कहानी बढिया लगी लेकिन मेरे ख्याल से इसका अंत नायिका के पछताने वाला नहीं होना चाहिए था।

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  11. रचना जी आपकी यह कहानी पढ़ कर मैं रो पढ़ी कितनी अच्छी तरह आप सच्चाई को सामने लती हैं. आपका येही प्रयास मुझे बहुत अच्चा लगता है. अमिता

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