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मेरी माँ लुटेरी थी [कविता] - समीर लाल




रचनाकार परिचय:-


पेशे से चार्टड एकाउन्टेन्ट समीर लाल, जबलपुर (म.प्र.) के मूल निवासी हैं। वर्तमान में आप कनाडा में रह रहे हैं और वहीं के एक बैंक में तकनीकी सलाहकार के तौर पर कार्यरत हैं।

आप उड़न तश्तरी के नाम से चिट्ठे पर लिखते हैं जो कि २००७ में "तरकश स्वर्णकलम" विजेता एवं इंडी ब्लॉगिज द्वारा विश्व का सर्वाधिक लोकप्रिय चिट्ठा है।

इसी माह आपका नया काव्य संग्रह ’बिखरे मोती’ भी प्रकाशित हुआ है।

माँ!!
तेरा
सब कुछ तो दे दिया था तुझे
विदा करते वक्त
तेरा
शादी का जोड़ा
तेरे सब जेवर
कुंकुम,मेंहदी,सिन्दूर
ओढ़नी
नई
दुल्हन की तरह
साजो
सामान के साथ
बिदा
किया था...
और हाँ
तेरी छड़ी
तेरी एनक,
तेरे नकली दांत
पिता
जी ने
सब कुछ ही तो
रख दिये थे
अपने हाथों...
तेरी
चिता में|

लेकिन
फिर भी
जब से लौटा हूँ घर
बिठा कर तुझे
अग्नि रथ पर
तेरी छाप क्यों नजर आती है?

वह धागा
जिसे तूने मंत्र फूंक
कर दिया था जादुई
और बांध दिया था
घर
मोहल्ला,
बस्ती
सभी को एक सूत्र में
आज
अचानक लगने लगा है
जैसे टूट गया वह धागा
सब कुछ
वही तो है
घर
मोहल्ला
बस्ती
और वही लोग
पर घर की छत
मोहल्ले का जुड़ाव
और
बस्ती का सम्बन्ध
कुछ ही तो नहीं
सब कुछ लुट गया है न!!
हाँ माँ!
सब कुछ
और ये सब कुछ
तू ही तो ले गई है लूट कर
मुझे पता है
जानता हूं न बचपन से
तेरा लुटेरा पन|

तू ही तो लूटा करती थी
मेरी पीड़ा
मेरे दुख
मेरे सर की धूप
और छोड़ जाती थी
अपनी लूट की निशानी
एक मुस्कान
एक रस भीगा स्पर्श
और स्नेह की फुहार
अब सब कुछ लुट गया है!!

स्तम्भित हैं
पिताजी तो
यह भी नहीं बताते
आखिर
कहां लिखवाऊँ
रपट अपने लुटने की
घर के लुटने की
बस्ती और मोहल्ले के लुटने की
और सबसे अधिक
अपने समय के लुट जाने की....

एक टिप्पणी भेजें

34 टिप्पणियाँ

  1. बहुत खूब समीर भाई। कहे हैं कि-

    माँ फितरत की मौसमें माँ कुदरत के राज।
    माँ हर्फों की शायरी माँ साँसों का साज।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

    जवाब देंहटाएं
  2. स्तम्भित हैं
    पिताजी तो
    यह भी नहीं बताते
    आखिर
    कहां लिखवाऊँ
    रपट अपने लुटने की
    घर के लुटने की
    बस्ती और मोहल्ले के लुटने की
    और सबसे अधिक
    अपने समय के लुट जाने की....

    अत्यंत भावपूर्ण कविता है।

    जवाब देंहटाएं
  3. तू ही तो लूटा करती थी
    मेरी पीड़ा
    मेरे दुख
    मेरे सर की धूप
    और छोड़ जाती थी
    अपनी लूट की निशानी
    एक मुस्कान
    एक रस भीगा स्पर्श
    और स्नेह की फुहार
    अब सब कुछ लुट गया है!!
    कविता के शीर्षक से मैं अधिक सहमत नहीं समीर जी यदि बदलने पर विचार करें तो अच्छा। कविता बहुत भावभरी है और द्रवित करती है।

    जवाब देंहटाएं
  4. आपकी यह कविता भावुक करती है।

    जवाब देंहटाएं
  5. रचने वाली माँ पर भाव-प्रवण रचना...!

    जवाब देंहटाएं
  6. @नंदन जी, यदि शीर्षक सामान्य सा होता तो फिर लोग माता जी की इतनी कद्र तो अब करते नहीं हैं घर में पुराने फ़र्नीचर की तरह के कोने मे जगह घेरे पड़ी रहती हैं,अब चूंकि समीरलाल जी जैसे अत्यंत संवेदनशील रचनाकार की रचना है तो शीर्षक तो चित्ताकर्षक होना ही चाहिए सो है....। अब आप आगे आगे देखिये कि इस प्रेरणास्पद शीर्षक से प्रेरित होकर चिरकुट किस्म के लोग कैसे कैसे शीर्षक लिखने वाले हैं जैसे माताजी चोर हैं, माताजी हत्यारिन हैं,माताजी बलात्कारिन हैं,माताजी आतंकवादिन हैं आदि आदि इत्यादि। आप इतनी गहन संवेदनशीलता नहीं उपजा सकते।

    जवाब देंहटाएं
  7. समीर जी रचना को दुबारा पढ़वाने के लिए आभार।बहुत भाव पूर्ण रचना है।

    जवाब देंहटाएं
  8. मां और भगवान एक ही रूप हैं.
    भावुक कर दिया आपने मां पर इतनी भावभीनि कविता पढवा कर.. आभार

    जवाब देंहटाएं
  9. एसी सुन्दर कविता को पढवाये जाने के लिये विषय यह रखा गया होगा मैं नहीं मानती। कवि अपनी बात को बहुत खूबसूरती से कह रहा है और पढने वालों के दिलों पर खूबसूरती से पैठ भी बना पा रहा है। समीर जी का इस कविता को पढवाने के लिये धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत आच्छा भाव लिखा है मां का जब तकमां है सब कुछ है मां नही तो सारा जहां ही लुटा सा लगता है
    पढकर आंसू आ गये दिल को झिंझोङ दिया

    जवाब देंहटाएं
  11. आदरणीय समीर लाल जी की यह कविता संवेदनाओं की गंगा सी है और एक कवि के रूप में वे भागीरथ की तरह सफल हुए हैं। कविता माँ की रिक्ति को एक दृश्य बना देती है और पाठक स्वत: भावुक हो उठता है। कविता की अंतिम पंक्तिया प्राण हैं:-
    स्तम्भित हैं
    पिताजी तो
    यह भी नहीं बताते
    आखिर
    कहां लिखवाऊँ
    रपट अपने लुटने की
    घर के लुटने की
    बस्ती और मोहल्ले के लुटने की
    और सबसे अधिक
    अपने समय के लुट जाने की....

    जवाब देंहटाएं
  12. समीर जी को प्रभावी कविता पढवाने के लिये धन्यवाद। उडनतश्तरी का साहित्य शिल्पी के आकाश में हृदय से स्वागत।

    जवाब देंहटाएं
  13. संवेदना उकेरती हुई कविता।

    जवाब देंहटाएं
  14. माँ विषय ही एसा है कि उस पर लिखी कोई भी कविता केवल महसूस की जा सकती है, रचना की कोई समीक्षा नहीं हो सकती। समीर लाल जी प्रभावी लिखते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  15. समीर भाई की इतनी मार्मिक, भाव पूर्ण कविता, दिल को छूते हुवे...............इतनी गहरी कविता की बरबस दिल भर आता है ..........जितनी भी बार पढो मन में गहरी वेदना भर जाती है ...................नतमस्तक हूँ इतनी भावोक रचना के लिए

    जवाब देंहटाएं
  16. वह धागा
    जिसे तूने मंत्र फूंक
    कर दिया था जादुई
    और बांध दिया था
    घर
    मोहल्ला,
    बस्ती
    सभी को एक सूत्र में
    ..........
    वही लोग
    पर घर की छत
    मोहल्ले का जुड़ाव
    और
    बस्ती का सम्बन्ध
    कुछ ही तो नहीं
    सब कुछ लुट गया है न!!
    ........
    मुझे पता है
    ........

    तू ही तो लूटा करती थी
    मेरी पीड़ा
    मेरे दुख
    मेरे सर की धूप
    और छोड़ जाती थी
    अपनी लूट की निशानी
    एक मुस्कान
    एक रस भीगा स्पर्श
    और स्नेह की फुहार
    अब सब कुछ लुट गया है!

    समी्र लाल जी !

    टि्प्पणियां तो बहुत पढ़ीं आपकी लगभग हर ब्लाग पर ... किन्तु सच यह है कि आज आपने मर्म भेद डाला ... आखॆं स्वयमेव ही नम हो गयीं सबके मन की बात आज मां के इस बेटे ने कह डाली - नमन मां की स्मृतियों को - आभार आपका

    जवाब देंहटाएं
  17. श्री समीर भाई जी की सशक्त अभिव्यक्ति पढकर यही कहती हूँ ...
    " माँ "ये एक शब्द "ॐ " की तरह पूर्ण है !

    स्नेह,
    - लावण्या

    जवाब देंहटाएं
  18. हर दृष्टि से परिपुर्ण और सम्पुर्णता को प्राप्त रचना. सशक्त रचना. मां शब्द की महानता के नजदीक.

    रामराम.

    जवाब देंहटाएं
  19. आपकी कविता पढ़ते-पढ़ते आंखें नम हो गईं।

    जवाब देंहटाएं
  20. समीर जी मैंने पहली बार अद्युतीय कविता पढ़ी है... सच में, मां लुटेरी ही होती है...

    तू ही तो लूटा करती थी
    मेरी पीड़ा
    मेरे दुख
    मेरे सर की धूप
    और छोड़ जाती थी
    अपनी लूट की निशानी
    एक मुस्कान
    एक रस भीगा स्पर्श
    और स्नेह की फुहार
    अब सब कुछ लुट गया है!

    आह! ये लुटेरन चली क्यों जाती है...

    जवाब देंहटाएं
  21. स्तम्भित हैं
    पिताजी तो
    यह भी नहीं बताते
    आखिर
    कहां लिखवाऊँ
    रपट अपने लुटने की
    घर के लुटने की
    बस्ती और मोहल्ले के लुटने की
    और सबसे अधिक
    अपने समय के लुट जाने की....

    aise jajbaat ko lafz diye jaha sare lafz ek saath simat ker baith jate hai......
    maun ko swer dena aasan nahi hota

    aapki rachna ko pranam hai mera

    जवाब देंहटाएं
  22. वाह समीर जी मार्मिक हृदय स्पर्शी रचना के लिए
    अंतर्मन की गहराईओं से अभिनन्दन --
    रुला दिया इस रचना ने --
    तू ही तो लूटा करती थी
    मेरी पीड़ा
    मेरे दुख
    मेरे सर की धूप
    और छोड़ जाती थी
    अपनी लूट की निशानी
    एक मुस्कान
    एक रस भीगा स्पर्श
    और स्नेह की फुहार
    अब सब कुछ लुट गया है!!
    बहुत -बहुत बधाई!

    जवाब देंहटाएं
  23. संवेदनाओं से परिपूर्ण रचना के लिए समीर लाल जी को बहुत-बहुत बधाई...


    साहित्य शिल्पी पर आपका स्वागत है

    जवाब देंहटाएं
  24. लेकिन
    फिर भी
    जब से लौटा हूँ घर
    बिठा कर तुझे
    अग्नि रथ पर
    तेरी छाप क्यों नजर आती है?
    समीर जी की सुंदर रचना पढ़वाने के लिए आभार।

    जवाब देंहटाएं
  25. sahitya ke prati aapke lagav aur reach out karne kee aapki spirit se main prabhavit hoon aur harshpoorvak vismit bhi. Keep up this spirit!

    जवाब देंहटाएं
  26. bas itna hi kahungi pad kar aasu aaye aur aakhon me sookh gaye...


    Anupama

    जवाब देंहटाएं
  27. समीर जी !

    सुन्दर, भाव पूर्ण रचना के लिए

    आभार।

    जवाब देंहटाएं
  28. सभी के स्नेह का बहुत बहुत आभार!!

    जवाब देंहटाएं

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