
पर सच्ची होगी...
अभी छौंक रही होगी हरी चिरी मिर्चें...
खट्टे करौंदों के साथ...
या कच्ची आमी के...
या नींबू के...
या ना भी शायद...
नाप रही होगी अपना कंधा...
बाबू जी के कंधे से...
या भाई से...
और एड़ियों के बल खड़ी तुम्हारी बेईमानी
बड़ा रही होगी तुम्हारे पिता की चिंता...
तुम भी बतियाती होगी छत पर चढ़ चढ़
अपने किसी प्यारे से...
और रात में कर लेती होगी फोन साइलेंट...
कि मैसेज की कोई आवाज पता न चल जाए किसी को...
तुम्हें भी है ना... ना सोने की आदत...
मेरी तरह...
या शायद तुम सोती होगी छककर... बिना मुश्किल के...
जब आना...
मुझे भी सुलाना...
गणित से डर लगता होगा ना तुम्हें
जैसे मुझे अंग्रेजी से...
या न भी लगता हो शायद...
तुम भी लड़ती होगी ना मम्मी से... भैया से... कभी कभी
मेरी तरह...
शायद तुम्हें आता होगा मनाना...
मुझे नहीं आता...
बताना...
जब आना...
तुम खट्टी होगी...
चोरी से फ्रिज से निकालकर मीठा
खाने में तुम्हें भी मजा आता होगा ना
जैसे मुझे...
तुम भी बिस्किट को पानी में डुबोकर खाती होगी...
जैसे मैं...
या शायद तुम्हें आता होगा सलीका खाने का...
मुझे भी सिखाना...
जब आना...
17 टिप्पणियाँ
वह ग़ज़ल याद आ गयी -
जवाब देंहटाएंरंज़िश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ।
आ फिर से मुझे छोड के जाने के लिये आ।
बडी मीठी कवित है खबरी जी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना है।बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता देवेश जी, बधाई।
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना!!
जवाब देंहटाएंबचपन की अठखेलियों का अच्छा मानचित्र खींच दिया आपने इस रचना के माध्यम से
जवाब देंहटाएंवास्तव में मीठी कविता खबरी जी,
जवाब देंहटाएंघर से दूर रह रहे नायक का ख्वाब- कैसी होगी उसकी नायिका... और उसके बाद उसकी जिंदगी में क्या बदलाव आयेगा... सबसे अच्छी बात इस कविता के साथ कि नायक को नहीं मालूम कि उसकी नायिका कौन होगी... वो सिर्फ अनुमान लगा रहा है... यानी यहां कोई चलती हुई प्रेम कथा नहीं है-- अनुमान भर है उसके घर का--
नाप रही होगी अपना कंधा...
बाबू जी के कंधे से...
या भाई से...
और एड़ियों के बल खड़ी तुम्हारी बेईमानी
बड़ा रही होगी तुम्हारे पिता की चिंता...
एक और साफगोई मुझे बहुत पसंद आई... अनूठी भी लगी--- नायक को मालूम है कि अल्हड जवानी में प्रेम न होना संभव नहीं है-- इसलिए उसे कोई मलाल नहीं है कि नायिका किसी और से प्रेम करती रही होगी--- हां ये जरूर पता कि संगम के बाद वो उसी की होगी---
तुम भी बतियाती होगी छत पर चढ़ चढ़
अपने किसी प्यारे से...
और रात में कर लेती होगी फोन साइलेंट...
कि मैसेज की कोई आवाज पता न चल जाए किसी को...
कविता के हर छंद के बाद का सवाल सबसे ममस्पर्शी है और नायक के सुलझे हुए मन को बताता है---
तुम्हें भी है ना... ना सोने की आदत...
मेरी तरह...
या शायद तुम सोती होगी छककर... बिना मुश्किल के...
जब आना...
मुझे भी सुलाना...
या
मेरी तरह...
शायद तुम्हें आता होगा मनाना...
मुझे नहीं आता...
बताना...
जब आना...
या शायद तुम्हें आता होगा सलीका खाने का...
मुझे भी सिखाना...
जब आना...
देवेश जी, बिना शब्द शिल्प के ज्यादा झंझटों वाली ये सीधी सरल कविता भावपूर्ण है... बधाई
प्रेम सरस सतसंगी
सीधे दिल की गहराईयो तक़ उतर जाने वाली सादगी से भरी सच्ची और अच्छी कविता।बधाई देवेश जी औ आभार राजीव व साहित्य शिल्पी का।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना है।
जवाब देंहटाएंअनूठी कविता देवेश जी...मन मोह गयी और क्या गज़ब की शैली
जवाब देंहटाएंसाहित्य शिल्पी पर आपकी हर प्रस्तुति एक ताजगी ले कर आती है।
जवाब देंहटाएंतुम सही होगी
जवाब देंहटाएंसच्ची होगी -अन्त्यानुप्रास
मुझे भी सिखाना
जब आना... -अन्त्यानुप्रास
devendra ji ,
जवाब देंहटाएंmaza aa gaya boss , kavita padhkar , waah kya likha hai , main to kahin beete hue dino me chala gaya yaar.
dil se badhai ..
विजय
http://poemsofvijay.blogspot.com
देवेश जी !
जवाब देंहटाएंअल्हड़ प्रेम के साथ अनाम नायिका के स्नेहिल कल्पनालोक में विचरती भावपूर्ण सुंदर एवं सशक्त रचना - बधाई
superb.one of the best post.i read today...
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.