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लावारिस लाश [लघु-कथा] - संदीप कुमार


सेठ गंगाप्रसाद की हवेली के पिछवाडे में एक छोटा सा बगीचा था,जिसे सेठ गुप्त और व्यक्तिगत मसलो के लिए इस्तेमाल करता था। सेठ का मानना था कि यह दुनिया की सबसे सुरक्षित ज़गह है, जहाँ परिंदा भी उसकी मर्ज़ी के खिलाफ दाखिल नहीं हो सकता है। वो बात अलग थी कि कभी कभी कुछ कबूतर सेठ की बगैर मर्ज़ी दाखिल हो जाते थे। यहाँ पर सेठ कुछ खास किस्म के लोगों से ही मिलता था। इस बगीचे में सेठ के गुप्त वार्तालाप में उनका नौकर रामुडा भी मौजूद रहता था जिसकी सूरत देखने से ही पता चलता था कि उसे सेठ ने भगवान को विशेष तौर पर रिश्वत देकर अपने लिये बनवाया है, क्योंकि वो सेठ के हर आदेश को उनकी आँखों से समझ लेता था। सेठ कभी कभार मजाक में कहा करता था कि रामुडा और मेरी आँखों के कनेक्शन एक हैं जिसे दुनिया में हम दोनों के अलावा कोई नहीं समझ सकता है। सेठ की दुनियाँ भी तो उसी कस्बे तक सीमित थी और उसका मानना था कि इस कस्बे को लूटने का पट्टा उसे खुद भगवान ने दिया है जिसका कोई लिखित दस्तावेज नहीं है और अगर है भी तो भगवान की भाषा आम आदमी के समझ में नहीं आती। वो तो सिर्फ दुनिया के चंद सेठ जैसे ज्ञानियों के ही समझ की बात है। 

रचनाकार परिचय:-


अंतर्राष्ट्रीय संबन्धों पर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से एम.ए. कर रहे संदीप कुमार को अध्ययन के साथ-साथ सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का भी शौक है।

अपनी भावनाओं को आप प्राय: कहानी और कविताओं के माध्यम से कागज पर उतारते रहते हैं।

फिर भी सेठ दिखने में बहुत ही सज्जन लगता था और उसके चेहरे की चमक को देख कर तो एक बार रात में चाँद की चमक भी फीकी पड़ गयी थी जिसे पंडितों ने चंद्रग्रहण की संज्ञा दी थी। इसलिए सेठ आजकल चाँद पर रहम करके रात को अपने कमरे से बाहर नहीं निकलते और अगर निकलते भी है तो चेहरे पर नकाब लगा कर ताकि दुनियाँ को रोटी मिले या न मिले कम से कम चाँद तो नसीब हो जाये। जिसे भूखे बच्चे मामा समझ कर रोटी माँगें और रात भर इंतजार करके सो जायें क्योंकि रोटी तो सेठ की तिजोरी में बंद थी जो सड़ तो सकती थी मगर भूखे को नहीं मिल सकती थी।

सेठ जी सुबह सुबह पूजा पाठ करके बगीचे में आकर बैठ गये और फिर उन्होंने जिस तरह से रामुडा को पुकारा उस आवाज से साफ जाहिर था कि आज कोई गंभीर वार्तालाप होने वाला है। रामुडा आकर बोला, 'सेठ जी आज अख़बार में आया है कि सरकार ने शराब पर पाबंदी लगा दी है।' सेठ जी गंभीर मुद्रा में कुछ देर शांत रहे जैसे मुँह से कोई अमृत-धारा निकलने का रास्ता तलाश रही हो। फिर बोले, 'सतयुग में तो देवता भी सोमरस पीते थे और वो सोमरस का प्रसाद जनता का जरुर मिलना चाहिए। उसे हम सरकारी कानून को तोड़ कर भी जनता को उपलब्ध कराएँ॥ यही हमारा धर्म और व्यवहार दोनों है।' वैसे तो सेठ जी की कोशिश हमेशा रहती थी कि वो धर्म को व्यवहार में उतारे मगर उनकी इच्छा इतनी प्रबल थी कि व्यवहार आखिर विजय पाता जिसे धार्मिक आचरण की संज्ञा देने के लिए वो तीन ब्राह्मण परिवारों का पालन पोषण करते थे।

हुआ यूँ कि सेठ गंगा प्रसाद और प्रेम लाडखानी उसी पिछवाडे के बगीचे में बैठ कर अवैध शराब बनाने कि योजना बना रहे थे। पास खडा रामुडा चुपचाप देख रहा था। दोनों ने तय किया कि कस्बे के बाहर प्रेम लाडखानी की जमीन है जो चारों ओर से टीलो से घिरी हुई है; वहाँ शराब बना कर सेठ की उस गोदाम में भरी जायेगी जिसकी जानकारी उन तीनो के अलावा कोई नहीं रखता। शराब निर्माण जोर-शोर से शुरू हुआ। भारतीय पुलिस को तो सेठ जैसे लोगो ने पैसे की थैली से नपुंसक बना दिया है। बिना वैज्ञानिक विधि के शराब बना कर सेठ की गोदाम में भर दी गयी और धीरे धीरे बिक्री शुरू हुई। आज पहले ही दिन की बिक्री काफी हुई तो पैसे का हिसाब लगाते लगाते रात के 2 बज गए, इसलिए रामुडा को घर लौटने में देरी हो गयी थी। घर के दूर से ही उसे रोने चिल्लाने की आवाज सुनाई दी। रामुडा के पैरो की जान निकल गयी। असमान में मोरों के चिल्लाने की आवाज़ से कलेजा फट रहा था। पीछे से किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा और काँपती आवाज़ में बोला, "तुम्हारा....सुरेश..नहीं....ज़हरीली शराब.." रामुडा की मुट्ठियाँ बंद हो चुकी थीं, पैरों में घोडे की ताकत आ गयी थी। वो एक चीख के साथ वापस दौड़ा, 'सेठ..ठ..ठ ..ठ .' मोहन हक्काबक्का देखता रह गया; न पीछे दौड़ सका, न रोक सका।

सुबह अखबार में तीन खबर थीं -
1. ज़हरीली शराब से 250 लोगों की मौत।
2. सेठ गंगा प्रसाद के गोदाम में आग - लाखों का नुकसान।
3.प्रेम लाडखानी के खेत के पास एक लावारिस लाश मिली।
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15 टिप्पणियाँ

  1. बडी बडी हवेलियों मे पीछे दफन होती हैं बहुत सी कडवी सच्चाईयाँ। अच्छी लघुकथा।

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  2. रामुडा जैसे लोगों की भी कमी नहीं, सेठ जैसे लोग उनकी चुप्पी से ही पनपते हैं। फोर जब चुप्पी टूटती है तो आक्रोश बेमानी ही रह जाता है।

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  3. कहानी का प्रवाह सराहनीय है | लघुकथा की शब्द सीमा में रहते हुए आपने कहानी को भी पूर्ण किया है और बीच बीच में कई गहरे कटाक्ष किये हैं जो पाठक को झकझोरने में सक्षम हैं ... उदाहरणार्थ : " उसका मानना था कि इस कस्बे को लूटने का पट्टा उसे खुद भगवान ने दिया है जिसका कोई लिखित दस्तावेज नहीं है और अगर है भी तो भगवान की भाषा आम आदमी के समझ में नहीं आती"....." ताकि दुनियाँ को रोटी मिले या न मिले कम से कम चाँद तो नसीब हो जाये".....
    कहानी का अंत एक ओर ये दर्शाता है कि अपराधी किसी वर्ग विशेष से नहीं आते.. (रामुदा भी उतना ही दोषी था जितना सेठ और उस की सज़ा उसे मिली ).... तो दूसरी ओर शोषित के सर्वहारा हो जाने को | एक अच्छी रचना के लिए बधाई स्वीकारें |

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  4. दिव्यांशु जी नें कहानी की तार्किक विवेचना कर दी है। मेरी बधाई स्वीकारें एक अच्छी लघुकथा के लिये।

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  5. घर के चिराग ने खुद जला दिया आशियाना.. काश रामुडा पहले ही चेत जाता मगर दूसरे का दर्द कौन जानता है... कलेजा तो तब फ़टता है जब अपना कोई मरता है.

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  6. संदीप कुमार जी आप अपार संभावनाओं से भरे लेखक हैं। जिस तरह आपनें वो वर्गों की सोच और उनकी मनोभावनाओं, स्वार्थों और फिर आक्रोश तथा उसके अंत की प्रवृत्तियों को दर्शाते हुए व्यवस्था का स्केच तैयार किया है नितांत प्रसंशनीय है।

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  7. लालच जो कराए....कम है

    कहानी का प्रवाह बहुत बढिया है...बधाई स्वीकारें

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  8. sandeep ji , aapki lekhni ki dhaar bahut paini hai ... choti si laghukatha me aapne bahut si baaten kah di hai .. zindagi ki sacchaiyon se ruburu karwa diya hai ...


    dil se badhai sweekar karen ..

    vijay
    http://poemsofvijay.blogspot.com/

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  9. Badhiyan.....
    sachai ke najdik hai....
    tahnx

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