
अलंकार निधि अनन्या, कान्त सुमन अभिषेक.
नंदन ऋतु-आलोकमय, नित नूतन सविवेक..
अनिल अनल भू नभ 'सलिल', पञ्च तत्व रस-खान.
मोहिंदर नीतेश मिल, करें काव्य रस-पान..
अनन्या जी! आपको उपयुक्त प्रश्न पूछने हेतु धन्यवाद.
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ.., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है। आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है। आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि। वर्तमान में आप म.प्र. सड़क विकास निगम में उप महाप्रबंधक के रूप में कार्यरत हैं।
प्रश्न -1: क्या शब्द के पहले अक्षर की आवृति ही अनुप्रास की परिभाषा के अंतर्गत आयेगी? यदि पूरे शब्द की ही अनेको बार आवृत्ति हो तो क्या वह भी अनुप्रास है?
जैसे "झर-झर-झर कर बहता पानी"?
प्रश्न -2: श्रुत्यानुप्रास को कृपया और सरलीकृत कर समझाये। अभी इसे मैं समझ नहीं सकी।
प्रश्न -3: अंत्यानुप्रास में दिये गये उदाहरण उसकी परिभाषा के साथ समझ नहीं आये कृपया इंगित करें।
अनुप्रास में बार-बार आवृत्ति आवश्यक है. अक्षर शब्द के प्रारंभ में हो या मध्य अथवा अंत में, उसके स्थान परिवर्तन से अंतर पड़ता है. अनुप्रासित वर्ण लगातार भी हो सकता है कुछ अक्षरों/शब्दों के अंतराल के बाद भी. यह आवृत्ति परिवर्तन ही अनुप्रास के विविध प्रकारों का आधार है.
छेकानुप्रास: एक या अनेक वर्णों की केवल एक बार आवृत्ति क्रम से हो. स्वरों का समान होना आवश्यक नहीं. शब्दांत या शब्द के मध्य में आवृत्ति मान्य नहीं. यथा-
१. वन्य पथ को ढक रहे से पंक दल में पले पत्ते. में 'प' की आवृत्ति, 'ल' की नहीं. .
२. काग के भाग कहा कहिये हरि हाथ सों लै गयो माखन-रोटी. में 'क', तथा 'ह' की आवृत्ति, 'ग' की नहीं. हरि हाथ का 'ह' मान्य, कहा कहिये का 'ह' नहीं.
३. 'कानन कठिन भयंकर भारी, घोर घाम हिम बारि बयारी' में 'क', 'भ', 'घ' तथा 'ब' मान्य किन्तु 'म' नहीं.
४. बगरे बीथिन में भ्रमर, भरे अजब अनुराग.
कुसुमत कुंजन में फिरत, फूल्यो स्याम सभाग. में 'ब', 'भ', 'अ', 'क', 'फ' तथा 'स' किन्तु 'न', 'र', या 'त'' नहीं.
वृत्त्यानुप्रास: जहाँ एक वर्ण की आवृत्ति दो से अधिक बार शब्द के आदि, मध्य या अंत में कहीं भी हो, निरंतरता भी अनिवार्य नहीं.
१. चारु चन्द्र की चंचल किरणें, खेल रही हैं जल-थल में. में 'च' तथा 'ल' तथा 'र'.
२. कोटिक हौं कलधौत के धाम, करील की कुंजन ऊपर वारों. में 'क', 'र', तथा 'ल'.
३. तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये. में 'त', 'न', 'र'.
४. चामर सी, चन्दन सी, चन्द्रिका सी, चंद सी,
चांदनी चमेली चारु चाँद सी सुघर है.
कुंद सी मुकुंद सी कपूर सी कृपा ऐसी
कल्पतरु कुसुम सी कीरति सी वर है. में अनेक वर्णों की अनेक बार आवृत्ति द्रष्टव्य है.
लाटानुप्रास: जहाँ शब्दों, पदों या शब्द-समूहों की समान अर्थ में आवृत्ति हो किन्तु अन्वय करने पर अर्थ परिवर्तन हो. यहाँ वर्ण नहीं शब्द की प्रधानता है.
१. पूत सपूत तो क्यों धन संचय?
पूत कपूत तो क्यों धन संचय?
२.राम-भजन जे करत नहिं, भव-बंधन-भय ताहि.
राम-भजन जे करत, नहिं भव-बंधन-भय ताहि.
३. तेगबहादुर, हाँ वे ही थे गुरु पदवी के पात्र समर्थ.
तेगबहादुर, हाँ वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ.
४. पराधीन को है नहीं, स्वाभिमान सुख-स्वप्न.
पराधीन जो है नहीं, स्वाभिमान सुख-स्वप्न.
अन्त्यानुप्रास: शब्दों अथवा पदों के अंत में वर्ण या वर्णों की आवृत्ति होने पर अन्त्यानुप्रास होता है.
१. विरह कमंडल कर लिए, वैरागी दो नैन.
माँगें दरस मधूकरी, छकें रहें दिन-रैन..
२. कोकिल कूकैं, लगै तन लूकैं.
उठे हिय हूकैं, विजोगिन ती कैं.
३. लगा दी किसने आकर आग?
कहाँ था तू संशय के नाग?
४. रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाई पर वचन न जाई.
५. तीन चार फूल हैं, आसपास धूल है.
बाँस हैं, बबूल हैं, घास है, दुकूल है.
श्रुत्यानुप्रास: अनन्या जी! श्रुत्यानुप्रास को समझने के लिए ध्वनि के उच्चारण अर्थात स्वर-व्यंजन को स्मरण करना होगा.
वर्ण / अक्षर :
वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं.
अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण.
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण.
स्वर ( वोवेल्स ) :
स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:. स्वर के दो प्रकार १. हृस्व ( अ, इ, उ, ऋ ) तथा दीर्घ ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.
अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.
व्यंजन (कांसोनेंट्स) :
व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार १. स्पर्श (क वर्ग - क् ख् ग् घ् ङ्), (च वर्ग - च् छ् ज् झ् ञ्.), (ट वर्ग - ट् ठ् ड् ढ् ण्), (त वर्ग त् थ् द् ध् न्), (प वर्ग - प् फ् ब् भ् म्) २. अन्तस्थ (य वर्ग - य्, र्, ल्, व्, श), ३. (उष्म - ष्, श्, स्, ह्) तथा ४. (संयुक्त - क्ष, त्र, ज्ञ) हैं. अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.
भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव.
शब्द :
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.
अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. यह भाषा का मूल तत्व है. शब्द के
१. अर्थ की दृष्टि से : सार्थक (जिनसे अर्थ ज्ञात हो यथा - कलम, कविता आदि) एवं निरर्थक (जिनसे किसी अर्थ की प्रतीति न हो यथा - अगड़म बगड़म आदि),
२. व्युत्पत्ति (बनावट) की दृष्टि से : रूढ़ (स्वतंत्र शब्द - यथा भारत, युवा, आया आदि), यौगिक (दो या अधिक शब्दों से मिलकर बने शब्द जो पृथक किए जा सकें यथा - गणवेश, छात्रावास, घोडागाडी आदि) एवं योगरूढ़ (जो दो शब्दों के मेल से बनते हैं पर किसी अन्य अर्थ का बोध कराते हैं यथा - दश + आनन = दशानन = रावण, चार + पाई = चारपाई = खाट आदि),
३. स्रोत या व्युत्पत्ति के आधार पर तत्सम (मूलतः संस्कृत शब्द जो हिन्दी में यथावत प्रयोग होते हैं यथा - अम्बुज, उत्कर्ष आदि), तद्भव (संस्कृत से उद्भूत शब्द जिनका परिवर्तित रूप हिन्दी में प्रयोग किया जाता है यथा - निद्रा से नींद, छिद्र से छेद, अर्ध से आधा, अग्नि से आग आदि) अनुकरण वाचक (विविध ध्वनियों के आधार पर कल्पित शब्द यथा - घोडे की आवाज से हिनहिनाना, बिल्ली के बोलने से म्याऊँ आदि), देशज (आदिवासियों अथवा प्रांतीय भाषाओँ से लिए गए शब्द जिनकी उत्पत्ति का स्रोत अज्ञात है यथा - खिड़की, कुल्हड़ आदि), विदेशी शब्द ( संस्कृत के अलावा अन्य भाषाओँ से लिए गए शब्द जो हिन्दी में जैसे के तैसे प्रयोग होते हैं यथा - अरबी से - कानून, फकीर, औरत आदि, अंग्रेजी से - स्टेशन, स्कूल, ऑफिस आदि),
४. प्रयोग के आधार पर विकारी (वे शब्द जिनमें संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया या विशेषण के रूप में प्रयोग किए जाने पर लिंग, वचन एवं कारक के आधार पर परिवर्तन होता है यथा - लड़का लड़के लड़कों लड़कपन, अच्छा अच्छे अच्छी अच्छाइयां आदि), अविकारी (वे शब्द जिनके रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता. इन्हें अव्यय कहते हैं. इनके प्रकार क्रिया विशेषण, सम्बन्ध सूचक, समुच्चय बोधक तथा विस्मयादि बोधक हैं. यथा - यहाँ, कहाँ, जब, तब, अवश्य, कम, बहुत, सामने, किंतु, आहा, अरे आदि) भेद किए गए हैं. इनके बारे में विस्तार से जानने के लिए व्याकरण की किताब देखें. हमारा उद्देश्य केवल उतनी जानकारी को ताजा करना है जो इस लेखमाला के लिए जरूरी है.
नदियों से जल ग्रहणकर, सागर करे किलोल.
विविध स्रोत से शब्द ले, भाषा हो अनमोल.
उच्चार :
ध्वनि-तरंग आघात पर, आधारित उच्चार.
मन से मन तक पहुँचता, बनकर रस आगार.
ध्वनि विज्ञान सम्मत् शब्द व्युत्पत्ति शास्त्र पर आधारित व्याकरण नियमों ने संस्कृत और हिन्दी को शब्द-उच्चार से उपजी ध्वनि-तरंगों के आघात से मानस पर व्यापक प्रभाव करने में सक्षम बनाया है। मानव चेतना को जागृत करने के लिए रचे गए काव्य में शब्दाक्षरों का सम्यक् विधान तथा शुद्ध उच्चारण अपरिहार्य है। सामूहिक संवाद का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सर्व सुलभ माध्यम भाषा में स्वर-व्यंजन के संयोग से अक्षर तथा अक्षरों के संयोजन से शब्द की रचना होती है। मुख में ५ स्थानों (कंठ, तालू, मूर्धा, दंत तथा अधर) में से प्रत्येक से ५-५ व्यंजन उच्चारित किए जाते हैं।
सुप्त चेतना को करे, जागृत अक्षर नाद.
सही शब्द उच्चार से, वक्ता पाता दाद.
उच्चारण स्थान वर्ग कठोर(अघोष) व्यंजन मृदु(घोष) व्यंजन अनुनासिक
कंठ क वर्ग क् ख् ग् घ् ङ्
तालू च वर्ग च् छ् ज् झ् ञ्
मूर्धा ट वर्ग ट् ठ् ड् ढ् ण्
दंत त वर्ग त् थ् द् ध् न्
अधर प वर्ग प् फ् ब् भ् म्
विशिष्ट व्यंजन ष्, श्, स्, ह्, य्, र्, ल्, व्
कुल १४ स्वरों में से ५ शुद्ध स्वर अ, इ, उ, ऋ तथा ऌ हैं. शेष ९ स्वर हैं आ, ई, ऊ, ऋ, ॡ, ए, ऐ, ओ तथा औ। स्वर उसे कहते हैं जो एक ही आवाज में देर तक बोला जा सके। मुख के अन्दर ५ स्थानों (कंठ, तालू, मूर्धा, दांत, होंठ) से जिन २५ वर्णों का उच्चारण किया जाता है उन्हें व्यंजन कहते हैं। किसी एक वर्ग में सीमित न रहने वाले ८ व्यंजन स्वरजन्य विशिष्ट व्यंजन हैं।
विशिष्ट (अन्तस्थ) स्वर व्यंजन :
य् तालव्य, र् मूर्धन्य, ल् दंतव्य तथा व् ओष्ठव्य हैं। ऊष्म व्यंजन- श् तालव्य, ष् मूर्धन्य, स् दंत्वय तथा ह् कंठव्य हैं।
स्वराश्रित व्यंजन: अनुस्वार ( ं ), अनुनासिक (चन्द्र बिंदी ँ) तथा विसर्ग (:) हैं।
संयुक्त वर्ण : विविध व्यंजनों के संयोग से बने संयुक्त वर्ण श्र, क्ष, त्र, ज्ञ, क्त आदि का स्वतंत्र अस्तित्व मान्य नहीं है।
उक्त सारणी के अनुसार ही श्रुत्यानुप्रास तब होता है जब काव्य में एक स्थान से उच्चरित होनेवाले वर्णों की आवृत्ति हो.
१. लेना सुधि इस दीन की दीनानाथ दयाल - दंतव्य या त वर्ग के 'द' एवं 'न' वर्णों की आवृत्ति.
२.खिल-खिल पड़ती है कुसुम कली, लखकर गुनगुन करती चिडिया. - कंठव्य या क वर्ग के 'क', 'ख', एवं 'ग' वर्णों की आवृत्ति.
३.चमक चमक कर चन्द्रिका छम-छम नाची खूब.
जगमग-जगमग हो गयी, झिलमिल-झिलमिल दूब. -तालव्य या च वर्ग के 'च', 'छ', 'ज' एवं 'झ' वर्णों की आवृत्ति.
४. ठुमक ठिठककर चली टिटहरी, डम-डम डमरू उठा-बजा. -मूर्धव्य या ट वर्ग के ]ट', 'ठ' एवं 'ड' वर्णों की आवृत्ति.
५. बम-बम-बम भोले भंडारी, जय त्रिपुरारी करो कृपा. - अधरव्य या प वर्ग के 'ब', 'भ' एवं 'म' वर्णों की आवृत्ति.
इस चर्चा का आनंद शत गुना हो जायेगा यदि आपकी ओर से भी कुछ सामग्री सामने आये. आप अपनी या किसी अन्य कवि की ऐसी पंक्तियाँ लाइए जिनमें अनुप्रास अलंकार हो, इससे हर पाठक को नए उदाहरण मिलेंगे तथा आपको उस अलंकार को जानने-समझने के नए अवसर मिलेंगे. अगली चर्चा में कुछ नए अलंकारों से कविता कामिनी के रूप में आये निखार की झलक देखकर काव्यानंद पाने तक के लिए नमन.
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टीप : इस लेख में पारम्परिक उदहारण दिये गए हैं चूँकि सामयिक कवियों की रचनाओं के उदाहरण साहित्य शिल्पी में कविताओं के नीचे टिप्पणी में दिए जा चुके हैं.
काव्य कामिनी मोहती, मानव-मन को मीत.
अलंकारमय छवि-छटा, सज्जित है हर गीत.
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18 टिप्पणियाँ
कितना सुँदर आलेख है
जवाब देंहटाएंसँजोकर रखने योग्य !
आचार्य श्री का बहुत बहुत आभार !
- लावण्या
अनुप्रास केवल शब्दों या वर्णों की आबृत्ति ही नहीं है इस अलंकार से कविता का सौन्दर्य बढाने के लिये भाषा का गूढ ज्ञान सहायक हो सकता है। आचार्य जी आप यह गूढ ज्ञान इतनी सरल शैली में प्रसारित कर महान कार्य कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंNever seen such an impressive article on NET. Thanks Acharya Ji.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी नें अलंकार से जिस सरलता से परिचित कराया, आपका धन्यवाद। हिन्दी की कक्षाओं के पुराने दिन भी ताजा हुए और अलंकार की महत्ता से पुनर्परिचित होना अच्छा भी लगा। यह आवश्यक स्तंभ है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख है, बधाई।
जवाब देंहटाएंसलिल जी अंत्यानुप्रास में शब्दों अथवा पदों के अंत में वर्ण या वर्णों की आवृत्ति होनी चाहिये। यह समझने के लिये आपके उदाहरण में क्या नैन के न की आवृत्ति में अलंलार है अथवा तुक के साथ? -
जवाब देंहटाएंविरह कमंडल कर लिए, वैरागी दो नैन.
माँगें दरस मधूकरी, छकें रहें दिन-रैन..
साहित्य शिल्पी एवं संजीव सलिल जी का बहुत बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसंग्रहणीय आलेख।
जवाब देंहटाएंकाव्य कामिनी मोहती, मानव-मन को मीत.
जवाब देंहटाएंअलंकारमय छवि-छटा, सज्जित है हर गीत.
काव्य के रचनाशास्त्र पर सार्थक प्रयास।
संजीव जी मेरी शंकाओं पर आपने पूरा एक आलेख तैयार कर दिया इस के लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद। अलंकार काव्य के लिये आवश्यक हैं। जाने अनजाने इनका उपयोग कर कवि करता है फिर भी जानकारी के साथ अलंकार प्रयोग सही शब्द चयन में और प्रभावी संप्रेषण में सहायक हो सकता है।
जवाब देंहटाएंनिधि ही सबको चाहिए, बिन निधि है जग व्यर्थ.
जवाब देंहटाएंनेह भाव रस शांति श्री, निधियाँ जीवन-अर्थ..
विरह कमंडल कर लिए, वैरागी दो नैन.
क-व् छेकानुप्रास,
माँगें दरस मधूकरी, छकें रहें दिन-रैन..
म-द छेकानुप्रास, नैन-रैन अन्त्यानुप्रास.
लावंयम जी - अंतर्मन जी ,
जवाब देंहटाएंलेख आपको रुचा, आपने सराहा तो मेरा प्रयास सफल हुआ. आप स्वयं साहित्यिक विरासत की सजग सृजनधर्मी हैं. इस लेखमाला को देखती रहिये, विषय गूढ़ है. मेरा बाल-बुद्धि से भूल-चूक हो, यह स्वाभाविक है...इंगित मिलने पर सुधार हो सकेगा.
विषय जितना गंभीर है आलेख उतना ही सहज और ग्राह्य है।
जवाब देंहटाएंआचार्य सलिल जी काव्य में अलंकार का प्रयोग करते समय क्या सावधानी रखनी चाहिये? क्या क्वल छंद युक्त कविता का ही अलंकार से रिश्ता होता है?
जवाब देंहटाएंअनेको शंकाओं का समाधान करता सुन्दर आलेख..आभार
जवाब देंहटाएंइस लेख के लिए अनिक धन्यवाद |
जवाब देंहटाएंकाव्य व्याकरण का अच्छा ज्ञान हो रहा है |
मेरी और से कुछ बातें -
पुनरावर्ती अलंकार को जान कहीं से , मैंने एक रचना लिखी जिसमें हर पंक्ति के अंत में एक शब्द का दुहराव था |
लेकिन अब आपकी बातें जान लगता है यह छेकानुप्रास है |
देखिये और सहायता करिए क्या यह अनुप्रास अलंकार के दायरे में आता है -
पलकें तेरी झपक - झपक,
मन को लेती लपक -लपक ,
बिंदियाँ दिखती चमक - चमक ,
भौहों की रेखाएं दमक - दमक ,
ओठों की मुस्कान मुखर - मुखर ,
रूप तेरा जाए निखर - निखर ,
...
अवनीश तिवारी
ACHARYA SHRI SANJEE VERMA "SALIL"
जवाब देंहटाएंJEE KEE PRASHANSHAA KAESE KARUN?
PRASHANSHAA KE LIYE KOEE SHABD
HEE NAHIN MIL RAHAA HAI.BAS,HRIDAY
SE YAHEE SHABD NIKALTE HAIN KI
UNHONE APNEE LEKHNEE SE SABKE MANON
MEIN APNAA VAAS BANAA LIYA HAI.
नंदन: काव्य में अलंकार का प्रयोग करते समय क्या सावधानी रखनी चाहिये? क्या क्वल छंद युक्त कविता का ही अलंकार से रिश्ता होता है?
जवाब देंहटाएंनन्दन जी! आपने बिल्कुल उपयुक्त प्रश्न किया है. अलंकार का प्रयोग करते समय सावधानी यह हो की कोइ सावधानी न हो. सावधानी रखने पर विशेष प्रयास किया जाता है और तब अलंकार स्वाभाविक न होकर ठूँसा हुआ लगता है. अतः, कवि को भावानुकूल प्रवाहमय सृजन करना चाहिए भाषा अपने लिए शब्द और भाव अपने लिए अलंकार स्वयमेव तलाश लेते हैं. अलंकार छांदस और अछंदास पद्य में तो होता ही है गद्य में भी हो सकता है. अकविता, गद्य गीत आदि में भी काव्य तत्व होता है. उर्दू ग़ज़ल के पहले शे'र में अन्त्यानुप्रास होना अनिवार्य है. मतले के शे'र में काफिया और रदीफ़ अन्त्यानुप्रास ही तो है. छन्दहीन कविताओं में अनुप्रास के उदहारण पिछले पाठ में दिए हैं. शिल्पी में प्रकाशित कविताओं की टिप्पणी में भी इंगित किये हैं.
अवनीश जी!
पुनरावर्ती अलंकार की चर्चा फिर कभी होगी, अभी तो केवल अनुप्रास पर केद्रित रहना ठीक होगा आपके द्वारा दिए गये उदाहरण में
''पलकें तेरी झपक - झपक,
झ- छेकानुप्रास है.
मन को लेती लपक-लपक''
ल-वृत्यानुप्रास,तथा झपक-लपक अन्त्यानुप्रास है.
प्राण न हो साथ तो सब, जगत ही निस्सार है.
प्राण ही शव को करे शिव, प्राण सलिलाधार है..
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.