
द्विजेन्द्र ‘द्विज’ का जन्म 10 अक्तूबर,1962 को हुआ। आपकी शिक्षा हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के सेन्टर फ़ार पोस्ट्ग्रेजुएट स्टडीज़, धर्मशाला से हुई है तथा आप अँग्रेज़ी साहित्य में स्नातकोत्तर हैं।
आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं : जन-गण-मन (ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशन वर्ष-२००३। इस संग्रह की १५० से अधिक समीक्षाएँ राष्ट्र स्तरीय पत्रिकाओं एवं समाचार—पत्रों में प्रकाशित हुई है।
आपनें डा. सुशील कुमार फुल्ल द्वारा संपादित पात्रिका रचना के ग़ज़ल अंक का अतिथि सम्पादन भी किया है।
आपकी ग़ज़में अनेल महत्वपूर्ण संकलन का भी हिस्सा हैं जिनमें दीक्षित दनकौरी के सम्पादन में ‘ग़ज़ल …दुष्यन्त के बाद’ (वाणी प्रकाशन), डा.प्रेम भारद्वाज के संपादन में सीराँ (नैशनल बुक ट्रस्ट), उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ की पत्रिका साहित्य भारती के नागरी ग़ज़ल अंक, रमेश नील कमल के सम्पादन में दर्द अभी तक हमसाए हैं, इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी द्वारा संपादित चांद सितारे, नासिर यूसुफ़ज़ई द्वारा संपादित कुछ पत्ते पीले कुछ हरे इत्यादि प्रमुख हैं। आप की ग़ज़लें देश की सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित व आकाशवाणी से प्रसारित होती रही हैं। आप अंतर्जाल पर भी सक्रिय हैं।
आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं : जन-गण-मन (ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशन वर्ष-२००३। इस संग्रह की १५० से अधिक समीक्षाएँ राष्ट्र स्तरीय पत्रिकाओं एवं समाचार—पत्रों में प्रकाशित हुई है।
आपनें डा. सुशील कुमार फुल्ल द्वारा संपादित पात्रिका रचना के ग़ज़ल अंक का अतिथि सम्पादन भी किया है।
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शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी|
मेरे होने का सबब मुझको बताकर यारो,
मेरे सीने में धड़कती रही मिट्टी मेरी|
लोकनृत्यों के कई ताल सुहाने बनकर,
मेरे पैरों में थिरकती रही मिट्टी मेरी|
कुछ तो बाकी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा'
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी|
दूर परदेस के सहरा में भी शबनम की तरह,
मेरी आँखों में चमकती रही मिट्टी मेरी|
सिर्फ़ रोटी के लिए दूर वतन से अपने,
दर-ब-दर यूँ ही भटकती रही मिट्टी मेरी|
मैं जहाँ भी था मेरा साथ न छोड़ा उसने,
ज़ेह्न में मेरे महकती रही मिट्टी मेरी|
कोशिशें जितनी बचाने की उसे कीं मैंने,
और उतनी ही दरकती रही मिट्टी मेरी|
18 टिप्पणियाँ
गहरी बात है। बहुत अच्छी ग़ज़ल है द्विज जी।
जवाब देंहटाएंमेरे होने का सबब मुझको बताकर यारो,
मेरे सीने में धड़कती रही मिट्टी मेरी|
उम्दा, बेहद उम्दा।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी ग़ज़ल, बधाई।
जवाब देंहटाएंमैं भी मिट्टी का खिलौना था अरे द्विज साहब
जवाब देंहटाएंजाने क्यों इतना रपट्ती रही मिट्टी मेरी...
बड़े भाई द्विज जी के गज़ल्गोई के बारे में अब क्या कही जाए .. इनकी ग़ज़लों के तो मैं मुरीद रहा हूँ ... हालाकि ये ग़ज़ल भी मैंने पहले ही पढ़ रखी है मगर एक बार फिर से पढ़वाने के लिए आपका आभार....
जवाब देंहटाएंअर्श
सरलता और बोधगम्यता द्विज जी की ग़ज़लों की विशेषता है। हर शेर प्रशंसनीय है।
जवाब देंहटाएंद्विज जी,
जवाब देंहटाएंमिट्टी को साध्य बनाकर खूब लिखा है। हार्दिक बधाईयाँ।
काफी दिनों के बाद आपका कुछ पढा, मैं खुद ही इसका जिम्मेवार हूँ, क्षमा चाहता हूँ।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
lajwab!
जवाब देंहटाएंnaman!
saadar
khyaal
बहुत सँदर ढँग से आपने इस गज़ल मेँ मन की बात कही द्विज जी
जवाब देंहटाएं- लावण्या
बेशक बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल!
जवाब देंहटाएं---
तख़लीक़-ए-नज़र । चाँद, बादल और शाम । गुलाबी कोंपलें । तकनीक दृष्टा
बहुत सुंदर ......!
जवाब देंहटाएंDWIJ JEE,ACHCHHEE GAZAL KE LIYE
जवाब देंहटाएंMEREE BADHAAEE SWEEKAAR KIJIYE.
SHERON KI KHUSHBOO SE DIL MAHKAEEYE
YUN HEE HUM KO ROZ AAP BAHLAEEYE
कितनी दफ़ा तो इस ग़ज़ल को पढ़ चुका हूँ, फिर भी कमबख्त दिल है कि मानता नहीं...
जवाब देंहटाएं"लोकनृत्यों के कई ताल सुहाने बनकर/मेरे पैरों में थिरकती रही मिट्टी मेरी" मेरी पसंद वाला शेर
द्विजेन्द्र जी, आप की इस ग़ज़ल ने रुला दिया.
जवाब देंहटाएंहम परदेसियों के दर्द को उड़ेल कर रख दिया है आपने.
दूर परदेस के सहरा में भी शबनम की तरह,
मेरी आँखों में चमकती रही मिट्टी मेरी|
बधाई
नमन
भाव साम्य-
जवाब देंहटाएंबाबरे से पैर चाहें...
बाबरे तरानों के...
बाबरे से बोल पर थिरकना...
बाबरा मन देखने चला एक सपना...
और
माटी कहे कुम्हार से... तू क्या रौंदे मोय
गहरी और गंभीर ग़ज़ल। आभार द्विज जी।
जवाब देंहटाएंद्विज जी की प्रशंशा के लिये उपयुक्त शब्द मेरे पास नहीं हैं।
जवाब देंहटाएंbahut hi khoobsoorat rachna bakhoobi utaara hai......
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.