योगेश समदर्शी का जन्म १ जुलाई १९७४ को हुआ।
बारहवी कक्षा की पढाई के बाद आजादी बचाओ आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण औपचारिक शिक्षा बींच में ही छोड दी. आपकी रचनायें अब तक कई समाचार पत्र और पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं।
आपकी पुस्तक “आई मुझको याद गाँव की” शीघ्र प्रकाशित होगी।
कुछ मेहनत सौ की दो पाकर पछताते हैं
मूल ने अपना दाम खो दिया,
चमक दमक का लगता मोल.
आलू १० का धडी तुलेगा
चिप्स बिके चांदी के मोल
एक वक्त में रुपये हजारों खाते कुछ
कुछ ऐसे हैं जो पानी पी सो जाते है.
श्रम देवता खडा खडा शर्माता है
नया खून है मेहनत से कतराता है
शिक्षा कैसी आज निगूडी बन बैठी
बेटा बाप को अनपढ कह ठुकराता है
उनके घर में पौशाके हैं भरी पडी
नंगे बदन वो देख कपास उगाते है.
10 टिप्पणियाँ
देश में विकास हो रहा है .. बडे बडे शापिंग माल उग आये हैं .. जिनमें लोग कतारें लगा कर शापिंग भी करते हैं | एक साधारण परिवार एक फिल्म देखने में २ हज़ार रुपये खर्च कर देता है | एक क्लर्क (जो घूस न खाता हो ) की मासिक आय से दोगुने दाम के जूते लोग सहज पहन कर घूमते हैं | ऐसे में सवाल उठता है कि इस विकास का दाम आखिर चुका कौन रहा है ? उत्तर शायद आप की इस पंक्ति में है ...
जवाब देंहटाएं""आलू १० का धडी तुलेगा
चिप्स बिके चांदी के मोल""
हमेशा की तरह मैं आप की इस कविता से भी इत्तेफाक रखता हु ..
पर आखिरी पैरा में कविता थोडी भटकती हुई सी लगी.. कविता आरम्भ में उपभोक्तावाद और बाजारवाद से शोषित किसान और मजदूर वर्ग को ध्यान में रख लिखी हुई लगती है जिस का स्वर जनवादी है और झुकाव आर्थिक | पर
"शिक्षा कैसी आज निगूडी बन बैठी
बेटा बाप को अनपढ कह ठुकराता है" के आ जाने से सामजिक मूल्यों की बात भी निकली तो भटकाव लगा.. पर वो सिर्फ दो लाइनों में .. आप के विचार जानना चाहूँगा इस पर.. बहरहाल सुन्दर कविता के लिए बधाई | :-)
दिव्यांशु जी, आपने मेरी कविता पर अपने विचार दिये आपका आभार. आपने कहा कि कविता भटक गई हो सकता है आप सही कह रहे हो पर मेरी वह पंक्तियां जो शिक्षा को निगोडी कह रही है वह भी कही न कही आर्थिक तंत्र को ही संबोधित है आज जिस शिक्षा का प्रचार प्रसार हो रहा है उसमे से जीवन मूल्य नदारद है और शिक्षा का एक मात्र उद्देश्य आर्थिक कारण पर आ टिका है जो शिक्षित कर रहे है वह भी पैसा बनाने के लिये और जो शिक्षित हो रहे है वह भी येन केन प्रकारेण पैसा बनाना चाहते है ऐसे में एक पढा लिखा इनसान जीवन मूल्य खो रहा है और एक सुसभ्य अनपढ किसान को जो पढे लिखे कृषि वैज्ञानिक से भी कही ज्यादा ज्ञानी है अपने काम मे उसे गंवार और पिच्छडा कह रहा है.. मेरा आश्य यह है... बाकी पाठक पर है कि वह इसे कैसे लेता है...
जवाब देंहटाएंयोगेश भाई आप बहुत अच्छी कविताये करते हैं उनके मुकाबले यह कुछ कमजोर कविता है।
जवाब देंहटाएंमूल ने अपना दाम खो दिया,
जवाब देंहटाएंचमक दमक का लगता मोल.
आलू १० का धडी तुलेगा
चिप्स बिके चांदी के मोल
आपमें समय की नब्ज को पहचान कर लिखने की क्षमता है।
मुझे कविता से शिकायत नहीं अपनी बात प्रभावी तरीके से कही गयी है।
जवाब देंहटाएंमुझे तो अच्छी लगी यह कविता ।
जवाब देंहटाएंयोगेश जी !
जवाब देंहटाएंरचना कौशल से अधिक आपने जिन विसंगतियों की ओर ध्यान दिया है उन पर ध्यान देने की है - ज्वलंत सामाजिक बिन्दुऒं पर ध्यानकर्शण का सराहनीय प्रयास - शुभकामना
समाजिक परिवर्तन और जीवन के मुल्य परिवर्तन पर एक सुन्दर रचना..
जवाब देंहटाएंबधाई योगेश जी.
जवाब देंहटाएंअपना-अपना खयाल है..वैसे मुझे तो कहीं से ये कविता कमजोर नहीं दिख रही...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता योगेश जी सामान्य-साधारण शब्दों में सच्चे-सशक्त६ भाव को बाँध पाना ही तो कविता है
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.