"चलो, पढ़ो।"
तीन वर्षीय बच्ची किताब खोलकर पढ़ने लगी, "अ से अनाल... आ से आम..." एकाएक उसने पूछा, "पापा, ये अनाल क्या होता है?"
"यह एक फल होता है, बेटे।" मैंने उसे समझाते हुए कहा, "इसमें लाल-लाल दाने होते हैं, मीठे-मीठे!"
सुभाष नीरव का जन्म 27–12–1953 को मुरादनगर (उत्तर प्रदेश) में हुआ। मेरठ विश्वविद्यालय से स्नातक तथा भारत सरकार के पोत परिवहन मंत्रालय में अनुभाग अधिकारी(प्रशासन) के तौर पर कार्यरत सुभाष नीरव की कई कृतियाँ यथा ‘यत्कचित’, ‘रोशनी की लकीर’ (कविता संग्रह); ‘दैत्य तथा अन्य कहानियाँ’, ‘औरत होने का गुनाह’, ‘आखिरी पड़ाव का दु:ख’(कहानी-संग्रह); ‘कथाबिंदु’(लघुकथा–संग्रह), ‘मेहनत की रोटी’(बाल कहानी-संग्रह) आदि प्रकाशित हैं। लगभग 12 पुस्तकों का पंजाबी से हिंदी में अनुवाद भी वे कर चुके हैं और अनियतकालीन पत्रिका ‘प्रयास’ और मासिक ‘मचान’ का सम्पादन भी कर रहे हैं।
हिन्दी में लघुकथा लेखन के साथ-साथ पंजाबी-हिन्दी लघुकथाओं के श्रेष्ठ अनुवाद के लिए उन्हें ‘माता शरबती देवी स्मृति पुरस्कार, 1992’ तथा "मंच पुरस्कार, 2000" से सम्मानित किया गया जा चुका है।
"साहित्य सृजन" तथा अन्य कई ब्लाग्स के माध्यम से अंतर्जाल पर भी वे सक्रिय हैं।
"पापा, हम भी अनाल खायेंगे..." बच्ची पढ़ना छोड़कर जिद्द-सी करने लगी। मैंने उसे डपट दिया, "बैठकर पढ़ो। अनार बीमार लोग खाते हैं। तुम कोई बीमार हो? चलो, अंग्रेजी की किताब पढ़ो। ए फॉर ऐप्पिल... ऐप्पिल माने...।"
सहसा, मुझे याद आया, दवा देने के बाद डॉक्टर ने सलाह दी थी- पत्नी को सेब दीजिये, सेब।
सेब!
और मैं मन ही मन पैसों का हिसाब लगाने लगा था। सब्जी भी खरीदनी थी। दवा लेने के बाद जो पैसे बचे थे, उसमें एक वक्त की सब्जी ही आ सकती थी। बहुत देर सोच-विचार के बाद, मैंने एक सेब तुलवा ही लिया था- पत्नी के लिए।
बच्ची पढ़ रही थी, "ए फॉर ऐप्पिल... ऐप्पिल माने सेब..."
"पापा, सेब भी बीमाल लोग खाते हैं?... जैसे मम्मी ?..."
बच्ची के इस प्रश्न का जवाब मुझसे नहीं बन पड़ा। बस, बच्ची के चेहरे की ओर अपलक देखता रह गया था।
बच्ची ने किताब में बने सेब के लाल रंग के चित्र को हसरत-भरी नज़रों से देखते हुए पूछा, "मैं कब बीमाल होऊँगी, पापा?"
15 टिप्पणियाँ
बच्चे...धोबी ...नाई...मुँशी...
जवाब देंहटाएंसब माँगे पैसे...
हालत अपनी पतली....ब्याँ करूँ मैँ कैसे?..
तंगहाली कई बार सोचने को मजबूर कर देती है हम क्यूँ?...और किसके लिए जी रहे हैँ?
लेकिन फिर भी इनसान इस उम्मीद में जिए चला जा रहा है कि कभी तो उसके दिन फिरेंगे
बढिया कहानी
हालात को बेदर्दी से
जवाब देंहटाएंबयान करने की
असीम क्षमता से
युक्त मार्मिक
चित्रण।
सब घर की कहानी
बच्चे का भोलापन
उकेरती हुई
मन के घावों को
उधेड़ती हुई।
हाँ,सेब बीमारों के लिए ही है। पर कुछ लोग इसे रोज खाते हैं। वे जो निरन्तर बीमार रहते हैं।
जवाब देंहटाएं"पापा, सेब भी बीमाल लोग खाते हैं?... जैसे मम्मी ?..."
जवाब देंहटाएं..............
"मैं कब बीमाल होऊँगी, पापा?
.........मर्म स्पर्शी
सुभाष जी स्वतंत्रता के इतने वषों उपरांत भी वंचित वर्ग की समस्यायें ज्यों की त्यों मुंह बाये खड़ी हैं. हर नयी पीढ़ी इसी वालिका की भांति बहुत कुछ यूं ही समझने लगती है.
दुर्भाग्य यह कि बढ़्ते हुये वर्ग भेद की ओर किसी भी सरकार का ध्यान नहीं जाता है. या यूं कहें कि जानबूझकर अन्देखा किया जाता रहा है. मुठ्ठीभर नवधनाढ्यॊं यथा मायावती मुलायम आदि की उन्नति को सर्व समाज की उन्नति के रूप में निरूपित करते हुये ढिंढोरा पीटा जा रहा है
लघु कथा के माध्यम से ज्वलंत बिंदु की ओर ध्यानाकर्षण के लिये धन्यवाद.
chhoti rachana magar itni sanjidagi se aapne likha hai ......bas maun hun main bhi......
जवाब देंहटाएंarsh
हृदय कंपा देने वाली लघुकथा |नन्ही बच्ची का प्रश्न अनंत गहराई तक टीस भर गया |
जवाब देंहटाएंक्डवी सच्चाई को ब्यान करता सामाजिक और मनोवैज्ञानिक सत्य इतने कम शब्दों में आपने बाखूबी
ब्यान कर दिया |
आम आदमी की परेशानियों और मजबूरियों को उकेरती एक सबल लघु कथा.
जवाब देंहटाएंइतना बडा सच दिखाती इतनी सुंदर लघु कथा ... कमाल का लिखा है आपने।
जवाब देंहटाएंबेहद मार्मिक और प्रभावी लघुकथा!
जवाब देंहटाएंबधाई स्वीकारें सुभाष जी!
संवेदनशील रचना के लिये बधाई!
जवाब देंहटाएंआपकी कहानी एक बच्चे कि भावनाओं को छूने में सफल रही है..
जवाब देंहटाएंअद्भुत लघुकथा है सुभाष. बधाई.
जवाब देंहटाएंचन्देल
संवेदनशील रचना के लिये बधाई!
जवाब देंहटाएंयथार्थ के ठोस धरातल से परिचय करवाती अद्भुत कहानी.
जवाब देंहटाएंबधाई..
बहुत ही मार्मिक कहानी... बधाई
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.