
सूरज प्रकाश का जन्म १४ मार्च १९५२ को देहरादून में हुआ। आपने विधिवत लेखन १९८७ से आरंभ किया। आपकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं: - अधूरी तस्वीर (कहानी संग्रह) 1992, हादसों के बीच - उपन्यास 1998, देस बिराना - उपन्यास 2002, छूटे हुए घर - कहानी संग्रह 2002, ज़रा संभल के चलो -व्यंग्य संग्रह – 2002। इसके अलावा आपने अंग्रेजी से कई पुस्तकों के अनुवाद भी किये हैं जिनमें ऐन फैंक की डायरी का अनुवाद, चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद, चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा का अनुवाद आदि प्रमुख हैं। आपने अनेकों कहानी संग्रहों का संपादन भी किया है। आपको प्राप्त सम्मानों में गुजरात साहित्य अकादमी का सम्मान, महाराष्ट्र अकादमी का सम्मान प्रमुख हैं। आप अंतर्जाल को भी अपनी रचनात्मकता से समृद्ध कर रहे हैं।
देवदत्त जी की एक और समस्या है जो उन्हें लगातार पागल बनाये हुए है। वह है दैहिक सुख की। वे तड़प रहे हैं। इधर - उधर मुंह मारने की कभी आदत नहीं रही है। इधर ट्रान्सफर ने सब गड़बड़ क़र दिया है। बेशक चालीस के होने आये, सोलह सत्रह साल का लड़का भी है लेकिन शादी के इतने बरसों बाद यह पहली बार हो रहा है कि वे पूरे पांच हफ्ते से हर रविवार घर आने के बावजूद इसके लिये मौका नहीं निकाल पाये हैं।
मौका निकालें भी कैसे? जब वे रविवार के दिन घर पहुंचते हैं, मुन्नु जग चुका होता है। फिर थोड़ा वक्त मुन्नू की पढ़ाई के लिये देना होता है। अब एक ही कमरे का घर। मुन्नू को जबरदस्ती घर से ठेल भी नहीं सकते। अब मौका मिले तो कैसे मिले? उधर उनकी पत्नी की हालत भी कमोबेश वैसी है।
आखिर देवदत्त जी ने तरकीब भिड़ा ही ली है। अहमदाबाद से चलने से पहले उन्होंने फोन करके मुन्नू से कहा कि वह स्कूटर लेकर उन्हें बोरिवली स्टेशन पर लेने आ जाये और साउथ गेट की सीढियों के पास एस - 1 का डिब्बा जहां लगता है वहीं उनका इंतजार करे। कुछ सामान भी है उनके पास।
इधर बेचारा मुन्नू सवेरे - सवेरे अपनी नींद खराब करके बोरिवली स्टेशन पर खड़ा रहा। गाड़ी आई और चली भी गई लेकिन पापा एस - 1 तो क्या किसी भी डिब्बे से उतरते नजर नहीं आये। जब तक वह थक हार कर आधा घण्टे बाद घर पहुंचा तब तक देवदत्त जी एस - 10 से फटाफट उतर कर, दूसरे गेट से बाहर निकल कर, ऑटो से घर पहुंच कर किला फतह भी कर चुके थे।
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14 टिप्पणियाँ
व्यस्ततायें निजी जिन्दगी को समाप्त करती जा रही हैं। लघुकथा के निहितार्थ गंभीर हैं।
जवाब देंहटाएंयथार्थ है, पर विद्रूप भी।
जवाब देंहटाएंसूरजजी इस कहानी पर प्रतिक्रिया देने में मुझे समय लगेगा। अभी सोच नहीं पाया कि कहानी को जैसे जज्ब करूं।
जवाब देंहटाएंA truth of metro's
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
शहरों नें आदमी को उससे ही दूर कर दिया है। उसकी निजी जिन्दगी और एसे ही "आईडियाओं" की मुहताज हो गयी है।
जवाब देंहटाएंरोचक है।
जवाब देंहटाएंबडे शहरों की दास्तान है। कहानी सोचने पर भी मजबूर करती है, इसे हलके में नहीं लिया जा सकता।
जवाब देंहटाएंअनुज कुमार सिन्हा
भागलपुर
बहुत अच्छी लघुकथा है, बधाई।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंरोटी और रोटी से जुड़ी जटिलताएँ जो कराएँ...कम है
जवाब देंहटाएंअच्छी कहानी
वैसे दुविधा से बचने के लिए आपातकाल की स्तिथि में'भाजपा' का साथ छोड़ 'काँग्रेस' का समर्थन किया जा सकता है(नोट:इस पंक्ति को सिर्फ मज़ाक के तौर पर लें)
सूरज प्रकाश जी वरिष्ठ रचनाकार है, किसी बात को कहने का उनका अपना ही निराला अंदाज है। इतनी बडी समस्ता को जिस दृष्टिकोण से उन्होने प्रस्तुत किया है - तालियाँ।
जवाब देंहटाएंअच्छी लघुकथा है।
जवाब देंहटाएंजीवन की सच्चाई को कथा के माध्यम से सूरज प्रकाश जी ने प्रस्तुत किया है। बधाई...
जवाब देंहटाएंमैं तो यह भी कहूंगा
जवाब देंहटाएंजीवन जीना बहुत कठिन है
अभी से जब इतनी कठिनाई है
तो जब मुन्नू की कर देंगे शादी
तो उसका क्या होगा
और अगले रविवार
हांडी कैसे चढ़ायेंगे
क्या फिर मुन्नू को
एस .... किसी पर बुलायेंगे
और खुद किसी और .... से
सरक जायेंगे।
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