

सृष्टि के कलश से छलकी
एक बूँद अमृत की
और ले लिया रूप माँ का.
समस्त प्राणी-जगत में
माँ का मोह व्याप्त है,
हम मनुष्य तो फिर भी विवेकशील प्राणी है.
हमारी माँ हमें गर्भ में अपना रक्त
और गोद में अपना दूध पिलाती है.
स्वयं जागती है और हमें सुलाती है.
माँ की ममता वह क्षितिज है,
जिसके विस्तार का कोई छोर नहीं,
वह तो एक अटूट बंधन है
कोई टूट जाने वाली डोर नहीं,
माँ का कोई विकल्प नहीं,
मातृत्व का कोई प्रतिदान नहीं,
हमारे जीवन के हवन-कुंड की
माँ वह समीधा है,
जो स्वयं को जला कर
हमें पवित्र उष्मा देती है.
माँ तो एक आहुति है
जिससे जीव जगत विद्यमान है
**********
मुझे मां से जलन है - सीमा सचदेव
2 अक्टूबर, 1974 को पंजाब के अबोहर मे जन्मी सीमा सचदेव पेशे से हिन्दी-अध्यापिका हैं। इनकी कई रचनाये जैसे- विभिन्न अंतर्जाल पत्रिकाओ मे प्रकाशित हैं। "मेरी आवाज़ भाग-१,२", "मानस की पीड़ा",,"सन्जीवनी", "आओ सुनाऊं एक कहानी", "नन्ही कलियाँ", "आओ गाएं" नामक रचना-संकलन ई-पुस्तक के रूप में प्रकाशित हैं।
मां जलन है मुझे तुमसे
अपनी ही मां से
तुम्हारी ममतामई आंखों से
जो मुझे देखने भर से लडने की हिम्मत देती हैं ।
जलन है मुझे तुम्हारी उंगलियो के स्पर्श से
जो बालों को छूते ही नई दुनिया का अहसास कराती हैं
जलन है मुझे तुम्हारी गोदि से
जिसमें सर रखते ही हर गम भूल जाती हूं
जलन है मुझे तुम्हारी सहनशीलता से
जो मुझे कितनी बार बेबाक बना देती है
जलन है मुझे तुम्हारी विशाल ह्रदयता से
जिसमें न जाने कितने गम दफ़न हैं
जलन है मुझे तुम्हारे संतोष पर
जो तुने अपनी हर चाहत मार दी
जलन है मुझे तुम्हारे उस त्याग पर
जो तुमने मेरी खातिर न जाने कितनी बार किया
जलन है मुझे तुम्हारी उस ममता पर
जो मेरी थोडी सी पीडा को भी पहचान जाती है
जलन है मुझे तुम्हारी उस समझ पर
जो मेरी आवाज में छुपे दर्द को जानती है
हां मां जलती हूं मै तुमसे.......
अपनी ही मां से.............
गुस्सा भी हूं तुमसे .......
मुझे तुमने सब सिखाया
फ़िर भी अपने सा न बनाया
क्यों नहीं समझ पाती मै तुम्हारी ही भान्ति
तुम्हारी ममतामई आंखों के पीछे का दर्द
छुपा लेती हो तुम अपने सारे गम
अपनी ममता के पर्दे से
जो मेरी नजर से दूर है बहुत दूर
अपनी ही मां से.............
गुस्सा भी हूं तुमसे .......
मुझे तुमने सब सिखाया
फ़िर भी अपने सा न बनाया
क्यों नहीं समझ पाती मै तुम्हारी ही भान्ति
तुम्हारी ममतामई आंखों के पीछे का दर्द
छुपा लेती हो तुम अपने सारे गम
अपनी ममता के पर्दे से
जो मेरी नजर से दूर है बहुत दूर
क्यों नहीं मै तुम्हें अपनी गोदि में लेटा
प्यार भरी उंगलियां चला पाती तुम्हारे बालों में
ताकि तुम भी अनुभव कर सको उस आनन्द को
जो मै अनुभव करती हूं तुम्हारी गोदि में सर रख कर
क्यों नही मै त्याग कर पाती तुम्हारी खातिर
क्यों नहीं मुझमें ऐसी सहनशीलता
कि तुम्हारी हर बात चुपचाप सुन जाऊं
मुझे क्यों न इतना समझदार बनाया मां कि
तुम्हारी ही भांति मै भी पहचान सकूं
तेरी आवाज के पीछे छुपे दर्द को
क्यों मां तुम मेरी हर जिद्द के आगे हार कर भी जीत जाती हो
और मै अपनी हर जिद्द मनवा कर भी हार जाती हूं
क्यों मां , क्यों........?????????
**********
प्यार भरी उंगलियां चला पाती तुम्हारे बालों में
ताकि तुम भी अनुभव कर सको उस आनन्द को
जो मै अनुभव करती हूं तुम्हारी गोदि में सर रख कर
क्यों नही मै त्याग कर पाती तुम्हारी खातिर
क्यों नहीं मुझमें ऐसी सहनशीलता
कि तुम्हारी हर बात चुपचाप सुन जाऊं
मुझे क्यों न इतना समझदार बनाया मां कि
तुम्हारी ही भांति मै भी पहचान सकूं
तेरी आवाज के पीछे छुपे दर्द को
क्यों मां तुम मेरी हर जिद्द के आगे हार कर भी जीत जाती हो
और मै अपनी हर जिद्द मनवा कर भी हार जाती हूं
क्यों मां , क्यों........?????????
**********
भारत माँ ही तो हूँ - प्रवीण कुमार शुक्ला
साहित्य शिल्पी" width="130" align="left" border="0">रचनाकार परिचय:-
तुम मुझको और घसीटो
रक्त रंजित कर दो मेरा मस्तक
इस तरह पैविस्त करो
साम्प्रदायिकता और जातिबाद की कीले
मेरे बदन में
कि एक इंच जगह ना छूटे..
कुरेदो उन्हें इतना कि
फूटने लगे खून के फब्बारे
फिर दो गालियाँ और
उछालो मेरी अस्मिता को
करो मेरा चीर हरण
क्षेत्रवाद के तीखे नाखूनों से
तुम चाहो तो कर सकते हो
मेरे और हजार टुकड़े
बुंदेलखंड पूर्वांचल और
हरित प्रदेश बना कर
फिर भी दिल ना भरे तो
नीलाम कर दो मेरी
अखंडता और सहिष्णुता को
क्षेत्रिय व जातीय पार्टी बनाकर
रोज मारो बेईमानी और
भ्रष्टाचार के तमाचे मेरे गाल पर
तब तक कि उसमे से भुखमरी
और गरीबी का पीव ना बहने लगे
भरदो स्विश बैंक के खाते
मेरे वस्त्र बेचकर ...
नोच खाओ मुझे और
बेचो मेरा मांस नोच कर
बंद कर लो अपनी आंखे
मेरे बलात्कार्य पर
क्यों कि मैं तुम्हारी
भारत माँ ही तो हूँ....

प्रवीण कुमार शुक्ला का जन्म १५/०७/१९८४ को फर्रुखाबाद में हुआ। आप बवाना में नोकिया सेल्लुलर में ऍम आई एस की नौकरी कर रहे हैं। लेखन आपका शौक है।
तुम मुझको और घसीटो
रक्त रंजित कर दो मेरा मस्तक
इस तरह पैविस्त करो
साम्प्रदायिकता और जातिबाद की कीले
मेरे बदन में
कि एक इंच जगह ना छूटे..
कुरेदो उन्हें इतना कि
फूटने लगे खून के फब्बारे
फिर दो गालियाँ और
उछालो मेरी अस्मिता को
करो मेरा चीर हरण
क्षेत्रवाद के तीखे नाखूनों से
तुम चाहो तो कर सकते हो
मेरे और हजार टुकड़े
बुंदेलखंड पूर्वांचल और
हरित प्रदेश बना कर
फिर भी दिल ना भरे तो
नीलाम कर दो मेरी
अखंडता और सहिष्णुता को
क्षेत्रिय व जातीय पार्टी बनाकर
रोज मारो बेईमानी और
भ्रष्टाचार के तमाचे मेरे गाल पर
तब तक कि उसमे से भुखमरी
और गरीबी का पीव ना बहने लगे
भरदो स्विश बैंक के खाते
मेरे वस्त्र बेचकर ...
नोच खाओ मुझे और
बेचो मेरा मांस नोच कर
बंद कर लो अपनी आंखे
मेरे बलात्कार्य पर
क्यों कि मैं तुम्हारी
भारत माँ ही तो हूँ....
14 टिप्पणियाँ
तीनों ही कवितायें बहुत अच्छी हैं। आखीरी कविता माँ से अलग भारत माँ से संबंधित है इसे अलग से दिया जा सकता था। मातृदिवस की शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंGood collection of poems. Thanks.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
माँ वह समीधा है,
जवाब देंहटाएंजो स्वयं को जला कर
हमें पवित्र उष्मा देती है.
माँ तो एक आहुति है
जिससे जीव जगत विद्यमान है
-----
ताकि तुम भी अनुभव कर सको उस आनन्द को
जो मै अनुभव करती हूं तुम्हारी गोदि में सर रख कर
क्यों नही मै त्याग कर पाती तुम्हारी खातिर
क्यों नहीं मुझमें ऐसी सहनशीलता
कि तुम्हारी हर बात चुपचाप सुन जाऊं
मुझे क्यों न इतना समझदार बनाया मां कि
तुम्हारी ही भांति मै भी पहचान सकूं
तेरी आवाज के पीछे छुपे दर्द को
दोनों कवितायें श्रेष्ठ हैं। तीसरी कुछ कमजोर। सामूहिक कविता प्रस्तुत करने का अच्छा प्रयास है। बहुत बधाई।
एक अनुरोध है, एक दिन में दो या तीन पोस्ट तक ही सीमित रखें।
जवाब देंहटाएंकवितायें सभी अच्छी हैं। सीमा जी की कविता नें मन मोह लिया।
जवाब देंहटाएंमां की महिमा का जितना भी गुणगान किया जाये कम है... तीनो कविता भावपूर्ण व दिल को छूने वाली हैं..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कवितायें, बधाई।
जवाब देंहटाएंमाँ पर जो भी कहा जाये वह कम है। मातृदिवस पर यह बहुत सार्थक प्रयास है। कवि-त्रय तथा साहित्य शिल्पी को धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंमाँ वह समीधा है,
जवाब देंहटाएंजो स्वयं को जला कर
हमें पवित्र उष्मा देती है.
तीनो ही रचनाये माँ को, माँ के प्यार कोसमर्पित............एक से बढ़ कर एक.............
माँ शब्द में ही कविता है।
जवाब देंहटाएंThe first one by Kiran Sindhu Ji is awesome. When I was reading the poem & got so sentimental about my “Maa” that I couldn’t control myself rather than to speak with her. I regularly use to visit your personal blog “Godhulikiran” to see any new post over there. Just a small request to you please doesn’t stop writing & keep on writing. In future I hope to read lot of good poems by you. Regards - Debajyoti
जवाब देंहटाएंrajeev ji ,
जवाब देंहटाएंmaa ke upar jitna bhi likha jaaye ,kaha jaaye , sab kam hi hota hai .. maa se badhkar koi aur nahi ....
itni acchi saarthak kavitao se ruburu karwaane ke liye main aapko aabhar deta hoon ...
teeno kavitayen bahut acchi ban padhi hai .. acchi abhivyakti hai ...
itni acche prayaas ke liye badhai sweekar karen...
vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/
dear kiran aunty,
जवाब देंहटाएंthe way you have expressed your feelings in this poem, it brings tears to eyes..i felt like hugging my mom immediately.
aanchal
yodha ka dharm hota hai yudh karna.. sindhu mam pz keep writing.. your poem provides strong support to all yodha(warrior). HAPPY MOTHERS DAY.
जवाब देंहटाएंRegards
Nitesh kumar
Swayam securities
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.