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मुआवजा [लघुकथा] - कृष्ण कुमार यादव


पति की असमय मौत ने राधा की जिन्दगी में अन्धेरा ला दिया। दो बेटियों की माँ होने के बावजूद उसके तीखे नैन-नक्श लोगों को आकर्षित करते थे। मालिक के सामने हाथ-पाँव जोड़कर किसी तरह वह अपने पति की जगह कम्पनी में नौकरी तो पा गयी पर लोगों की चुभती निगाहों, मँहगाई की मार व दो जवान बेटियों के हाथ पीले करने की चिन्ता ने उसे घुट-घुट कर जीने को मजबूर कर दिया।...... अचानक कम्पनी में हुए एक हादसे में उसे अपना बायाँ हाथ गँवाना पड़ा। 

रचनाकार परिचय:-


कृष्ण कुमार यादव का जन्म 10 अगस्त 1977 को तहबरपुर, आजमगढ़ (उ0 प्र0) में हुआ। आपनें इलाहाबाद विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नात्कोत्तर किया है। आपकी रचनायें देश की अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं साथ ही अनेकों काव्य संकलनों में आपकी रचनाओं का प्रकाशन हुआ है। आपकी प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं: अभिलाषा (काव्य संग्रह-2005), अभिव्यक्तियों के बहाने (निबन्ध संग्रह-2006), इण्डिया पोस्ट-150 ग्लोरियस इयर्स (अंग्रेजी-2006), अनुभूतियाँ और विमर्श (निबन्ध संग्रह-2007), क्रान्ति यज्ञ :1857-1947 की गाथा (2007)।

आपको अनेकों सम्मान प्राप्त हैं जिनमें सोहनलाल द्विवेदी सम्मान, कविवर मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, महाकवि शेक्सपियर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान, काव्य गौरव, राष्ट्रभाषा आचार्य, साहित्य-मनीषी सम्मान, साहित्यगौरव, काव्य मर्मज्ञ, अभिव्यक्ति सम्मान, साहित्य सेवा सम्मान, साहित्य श्री, साहित्य विद्यावाचस्पति, देवभूमि साहित्य रत्न, सृजनदीप सम्मान, ब्रज गौरव, सरस्वती पुत्र और भारती-रत्न से आप अलंकृत हैं। वर्तमान में आप भारतीय डाक सेवा में वरिष्ठ डाक अधीक्षक के पद पर कानपुर में कार्यरत हैं।

दुखी तो वह बहुत हुयी पर कम्पनी द्वारा मुआवजे के रूप में मिली मोटी रकम ने उसके दुख को काफी हल्का कर दिया, क्योंकि इन पैसों से उसने अपनी बड़ी बेटी के हाथ पीले कर दिए। एक हाथ कट जाने के बावजूद भी, सहानुभूति की आड़ में लोगों को उसने अपनी देह को घूरते हुए महसूस किया था पर अब वह इन सबसे बेपरवाह थी।

एक दिन अचानक लोगों की निगाहें बचाकर उसने अपना दायाँ हाथ मशीन में डाल दिया और जब तक लोग इकट्ठा होते, खून का फव्वारा चारों तरफ फैल चुका था। सरकारी अस्पताल में भर्ती वह अब बस यही सोच रही थी कि कितनी जल्दी उसे मुआवजे की राशि मिल जाय और वह दूसरी बेटी के हाथ पीले कर सके। अब वह निश्चिंन्त थी एवं बेटी की शादी के बाद किसी मन्दिर के आगे बसेरा बनाने की सोच रही थी, जहाँ उसे भिखमंगी व विकलांग समझकर लोग दो-चार पैसे फेंक जायें और उसका जीवन बसर हो सके।
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17 टिप्पणियाँ

  1. संवेदनशील और समाज का आईना प्रस्तुत करती अच्छी लघुकथा।

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  2. बेबसी और अपने बच्चों का जीवन संवाने की लालसा में कोई माँ किस हद तक जा सकती है..। अच्छी लघुकथा।

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  3. पंकज सक्सेना12 मई 2009 को 6:43 am बजे

    फुटपाथों, चौराहों, मंदिरों के द्वार पर बहुत सी एसी ही राधायें है जिन्हे के. के जी की कहानी नें शब्द दिया है।

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  4. यह इस तरक्की करते युग को ठहर कर आत्मावलोकन करने पर बाध्य कर सकने वाली कघु-कथा है।

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  5. बहुत अच्छी लघु कथा है, बधाई।

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  6. मुआवजा, लोगों की कुत्सितता और हालात को लघुकथा बहुत सुन्दरता से प्रस्तुत कर रही है।

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  7. aapki kahani ke patr mein kho se gaye
    babasi aur lalasa
    kahani bahut samvedansheel hai

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  8. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  9. बड़ी सारगर्भित लघु-कथा है. सीधे दिल पर चोट करती है.

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  10. समाज की मानसिकता पर चोट करती अद्भुत लघुकथा.

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  11. कम शब्दों में यह लघुकथा उस सच को बयां करती है, जिसे जानते हुए भी तथाकथित सभ्य समाज नजरें चुराता है. कृष्ण कुमार जी की लेखनी की धार नित तेज होती जा रही है...साधुवाद स्वीकारें !!

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  12. krishan Kumar ji

    aapki kahani bahut hi dard bhari hai , maa ka saara jeevan sirf baccho ke liye hi hota hai ... aur is laghukatha men aapne ye baat bahut hi marmsparshi tarike se darshayi hai ..

    itni acchi laghukatha ke liye badhai sweekar karen...

    vijay
    http://poemsofvijay.blogspot.com/

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