
उनका चेहरा बुझा हुआ,आंखें चढी़ हुईं, बाल बिखरे हुए और कपड़े अस्त-व्यस्त थे. बीस वर्षों के लंबे परिचय में मैंने उन्हें कभी इस रूप में नहीं देखा था. जब भी देखा, चुस्त-दुरस्त आत्म-विश्वास से परिपूर्ण और पूरी तरह सक्रिय. उनके हुलिए से लग रहा था कि उन्होंने रात जमकर पी होगी और रात भर सोये नहीं होगें. लेकिन इतने दिनों के परिचय में मैंने उन्हें कभी शराब को हाथ लगाते नहीं देखा था. कभी मित्र-मण्डली में घिरे भी तो कोल्ड ड्रिंक या बहुत आगे बढ़ना पड़ा तो बियर. ’लेकिन लेखक हैं और लेखक मित्रों के दबाव में संभव है उनकी रेल भी पटरी से उतर गयी हो’ मैंने सोचा. मैं कितने ही ऎसे लेखकों को जानता हूं जिनका मानना है कि अच्छा लेखक वही हो सकता है जो दो-चार पेग हलक के हवाले करके लिखने बैठता हो. उनके अनुसार सुरा के हवाले हुए बिना अच्छे विचार जन्म लेते ही नहीं. फिर भी मैंने उन्हें कभी पीते नहीं देखा और पाठकों द्वारा अपनी रचनाओं के लिए उन्हें सदैव समादृत होते ही पाया. क्या पता और अधिक आदर की भूख उनमें जागी हो और मित्र-दर्शन वे मानने लगे हों. लेकिन उनका एक मित्र मैं भी हूं और मेरे लिए यह चिन्ता का विषय था.
१२ मार्च, १९५१ को कानपुर के गाँव नौगवां (गौतम) में जन्मे वरिष्ठ कथाकार रूपसिंह चन्देल कानपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी), पी-एच.डी. हैं।
अब तक आपकी ३८ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ६ उपन्यास जिसमें से 'रमला बहू', 'पाथरटीला', 'नटसार' और 'शहर गवाह है' - अधिक चर्चित रहे हैं, १० कहानी संग्रह, ३ किशोर उपन्यास, १० बाल कहानी संग्रह, २ लघु-कहानी संग्रह, यात्रा संस्मरण, आलोचना, अपराध विज्ञान, २ संपादित पुस्तकें सम्मिलित हैं। इनके अतिरिक्त बहुचर्चित पुस्तक 'दॉस्तोएव्स्की के प्रेम' (जीवनी) संवाद प्रकाशन, मेरठ से प्रकाशित से प्रकाशित हुई है।आपनें रूसी लेखक लियो तोल्स्तोय के अंतिम उपन्यास 'हाजी मुराद' का हिन्दी में पहली बार अनुवाद किया है जो २००८ में 'संवाद प्रकाशन' मेरठ से प्रकाशित हुआ है।
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन
दो चिट्ठे : रचना समय और वातायन
वे जितना मेरे निकट आते जा रहे थे मैं उतना ही उलझन में पड़ता जा रहा था. आखिर बीस वर्षों से वे नियमित मार्निंग वॉक में मेरे साथी थे. उस भीड़ भरे पार्क में हमारी जोड़ी प्रसिद्ध थी. उन्हें इस रूप में देखकर मेरा चिन्तित होना स्वाभाविक था. उनको पास आते देख मैं सोचने लगा कि मुझे क्या करना चाहिए. वे चार कदम बढ़े तो छः कदम आगे बढ़कर उनकी आंखों में आखें डाल मैंने पूछा, "शर्मा जी, स्वस्थ नजर नहीं आ रहे! बात क्या है?"
उन्होंने मेरे चेहरे पर अपनी बड़ी-बड़ी आंखें गड़ा दीं. मैं सहम गया. उस क्षण उनकी आंखें सुर्ख और चेहरा लाल था. लगा जैसे वे गुस्से में हैं. मैं एक कदम पीछे हट गया. देर तक वे उसी भाव से मुझे ताकते रहे. मैं सकपकाया. कभी उनके चेहरे की ओर तो कभी पार्क में जॉगिगं करते, हाथ पैर हिलाते, योग करते लोगों की ओर देखने लगा. "मुझे एक बार और पूछना चाहिए’ और मैंने प्रश्न दोहरा दिया.
एक फुंकार-सी निकली उनके मुंह से, फिर बुदबुदाते-से स्वर में वे बोले, "उसने मुझे काट दिया ?"
मैं अवाक था. तेजी से उनके हाथ-पैरों पर नजर दौड़ाई. फिर पूछा, "किसने और कहां? जख्म गहरा तो नहीं?"
"विनायक, तुम नहीं समझोगे." उनका स्वर आहतपूर्ण था, "वह एक प्रकाशक का----."
"यार, बचकर रहना चाहिए था." उनकी बात बीच में ही काटकर मैं बोला, "पालतू जानवर भी खतरनाक होते हैं. बल्कि अक्सर वही खतरनाक होते हैं. इंजेक्शन लगवाये ?"
"मैंने कहा न कि तुम नहीं समझोगे---- लेखक नहीं हो न !"
बात बदलने के भाव से कुछ अतिरिक्त साहस जुटाते हुए मैंने पूछा, "तो आपने रात पी नहीं ?"
"पी ? तुम्हें लगता है कि मैं पी सकता हूं !" उनका चेहरा कुछ ढीला पड़ा.
"फिर आपका यह हुलिया----?."
"बताया न कि उसने मुझे काट दिया." वे क्षणभर के लिए रुके, "चलो छोड़ो, आओ टहलते हैं." उनके चेहरे का बुझापन और आंखों का सुर्खपन कुछ कम हुए थे. हम टहलने लगे. देर तक चुप रहने के बाद वे बोले, "उसे मैं कई वर्षों से जानता हूं. हमारी अच्छी मित्रता थी उससे. लेखक बिरादरी में सभी उसे उस प्रकाशक का ए.डी.सी. कहते हैं."
"ओह !" मैंने बीच में टोका, "मैं तो उसे कुत्ता समझ बैठा था."
"समझने को तुम जो चाहो समझ लो." अब वे अपने पुराने फार्म में लौट आए थे .
"उसने प्रकाशक को मेरे खिलाफ भड़का दिया और हमारे बीस वर्ष पुराने संबन्धों में दरार पैदा कर दी."
"इसमें दुखी होने की क्या बात ? आप निरंतर लिखने में सक्रिय हैं और मेर विश्वास है कि आपका वह तथाकथित मित्र लिख नहीं पा रहा होगा. उससे यही आशा कर सकते हैं. लगता है इसी कारण रातभर सोये नहीं. अच्छा हुआ आपको अपने उस मित्र का असली परिचय समय से मिल गया."
वे मेरी ओर देखने लगे. मैं एक पेड़ के पास रुक गया. वे भी रुक गये. उनके कुछ और पास खिसककर मैं धीमे स्वर में बोला, "शर्मा जी, एक बात कहूं ?"
वे गंभीर हुए और सिर हिलाकर कहने के लिए इशारा किया.
मैं बोला, "आप न बड़े अफसर हैं न पूंजीपति. बुरा न मानेंगे. एक सुझाव देना चाहता हूं. किसी मंत्री-संत्री को पकड़ लें और किसी मंत्रालय की पुस्तक खरीद योजना के सदस्य बन जायें. तब आपका कोई मित्र किसी प्रकाशक को आपके खिलाफ नहीं भड़का पायेगा."
उन्होंने मेरी ओर देखा और ठहाका लगाकर हंस दिये. अब वे पूरी तरह से सामान्य थे.
14 टिप्पणियाँ
गहरा कटाक्ष क्या गया है। लेखकीय-प्रकाशक कम्युनिटी को कटघरे में रोचक संवादों के माध्यम से खडा किया गया है।
जवाब देंहटाएंNice Short Story.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
रूप सिंह जी साहसिक लेखक है। उनकी साहित्य शिल्पी पर ही प्रकाशित रचनायें उठा कर देखें तो न केवल कथानक ही लीक से हटकर है साथ ही जो बातें उन्होंने छपास ताल ठोंक कर कही हैं, मजाल है आज हिन्दी का कोई पुरस्कार लोलुप छपास इच्छु लेखक कहने का भी साहस रखता हो।
जवाब देंहटाएंलेखकों की कुंठा और तिगडम को उजागर करती है लघुलथा।
जवाब देंहटाएंरूप सिंह जी, कम शब्दों में आप बहुत कुछ कह गए हैं.यही तो लघु कथा का कमाल होता है. एक सुंदर लघु कथा पर बहुत -बहुत बधाई.
जवाब देंहटाएंकहानी लेखक समाज को सोचने के मजबूर अवश्य करेगी। सार्थक लघुकथा।
जवाब देंहटाएंसच्ची खरी बात कही गयी है। रूप जी अच्छी लघु-कथा।
जवाब देंहटाएंGahra kataksh aur vyang liye hue Chadel ki yeh laghukatha pathniya hai.
जवाब देंहटाएंदुखती रग को कारगर ढंग से पकडने का तरीका बता दिया आपने अपनी इस कटाक्ष करती रचना के माध्यम से.
जवाब देंहटाएंलघुकथा कहने का तरीका बहुत रोचक है। पैने व्यंग्य की चाशनी में डुबा कर कडुवा सच लिखा है।
जवाब देंहटाएंAadarniya chandel ji ;
जवाब देंहटाएंaapki is laghukatha me aaj ke jeevan ki sachhai hai.. aapne bahut rochak dhand se ek shashakt baat ko kaha hai...
aapko badhai ..
vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com
ROOP SINGH CHANDEL HINDI KATHA-
जवाब देंहटाएंSAHITYA KE SHEERSH KATHAKAARON
MEIN HAIN.UNKO JAB BHEE MAIN
PADHTAA HOON EK SUKOON MUN KO
MILTAA HAI.UNKEE IS KATHA SE BHEE
BAHUT SANTUSHTI HUEE HAI.
mitra ka sachha parichay samay se mil jana bhi kismat hai
जवाब देंहटाएंaajkal dokha khas nikat ke dost yaa sambandhi hi dete hain
BAHUT SUNDER KAHANI HAI
जवाब देंहटाएंsaader
rachana
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