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दोशीज़: मालिन (कैफ़ी साहब की एक खूबसूरत नज़्म): प्रस्तुति अजय यादव

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इस सिलसिले के पिछले लेख में हमने कैफ़ी साहब की शायद सबसे पुरानी गज़ल पढ़ी जिसे बेगम अख्तर साहिबा ने अपनी आवाज़ दी है| आज बात करते हैं कैफ़ी साहब की पारिवारिक पृष्ठभूमि और उनकी शिक्षा-दीक्षा की:

कैफ़ी साहब के पिता सैयद फ़तह हुसैन रिज़वी एक छोटे मोटे जमींदार थे| युवावस्था में ही उन्होंने जमींदारी प्रथा के अंधकारमय भविष्य को समझ कर बलहरी तहसील (अवध) में तहसीलदारी की नौकरी कर ली थी| उनके चार बेटे और चार बेटियों थीं| परन्तु चारों बेटियाँ एक एक कर टी.बी. का शिकार होकर बचपन में ही चल बसीं| कैफ़ी सबसे छोटे होने के कारण उन के इलाज़ के वक्त अपनी माँ के साथ ही रहते थे और इसीलिये बचपन से ही बीमारी और दुखों को देखते रहे| इनके पिता यह समझने लगे कि उनके अपने तीनों बड़े बेटों को अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ाने की वज़ह से ही घर पर यह विपत्ति आई थी| इसलिये उन्होंने कैफ़ी को मज़हबी तालीम दिलवाने का फैसला किया| वे कहते कि हमारे मरने पर कोई बेटा फ़ातिहा भी न पढ़ पायेगा क्योंकि अंग्रेज़ी स्कूलों में यह सिखाया ही नहीं जाता| इस बारे में सुप्रसिद्ध लेखिका आयशा सिद्दीकी ने लिखा है, " कैफ़ी साहब को उनके बुजुर्गों ने एक दीनी शिक्षा गृह में इसलिये दाखिल किया था कि वहाँ यह फ़ातिहा पढ़ना सीख जायेंगे| कैफ़ी साहब इस शिक्षा गृह में मज़हब पर फ़ातिहा पढ़ कर निकल आये|"

लखनऊ में शिया मुसलमानों के इस सबसे बड़े शिक्षा गृह ’सुल्तानुलमदारिस’ से ही कैफ़ी साहब की इन्कलाबी शायरी की शुरुआत हुई| मगर इसकी बात बाद में, अभी पढ़ते हैं उनके पहले काव्य-संग्रह ’झंकार’ में शामिल एक खूबसूरत नज़्म जिसमें कैफ़ी ने हुस्न के दोनों रंगों को एकाकार कर दिया है:


दोशीज़: मालिन


लो पौ फटी वह छुप गई तारों की अंज़ुमन
लो जाम-ए-महर से वह छलकने लगी किरन

खुपने लगा निगाह में फितरत का बाँकपन
जलवे ज़मीं पे बरसे ज़मीं बन गई दुल्हन

गूँजे तराने सुबह के इक शोर हो गया
आलम तमाम रस में सराबोर हो गया

फूली शफ़क फ़ज़ा में हिना तिलमिला गई
इक मौज़-ए-रंग काँप के आलम पे छा गई

कुल चाँदनी सिमट के गिलो में समा गई
ज़र्रे बने नुजूम ज़मीं जगमगा गई

छोड़ा सहर ने तीरगी-ए-शब को काट के
उड़ने लगी हवा में किरन ओस चाट के

मचली जबीने-शर्क पे इस तरह मौज-ए-नूर
लहरा के तैरने लगी आलम में बर्क-ए-तूर

उड़ने लगी शमीय छलकने लगा सुरूर
खिलने लगे शिगूके चहकने लगे तयूर

झोंके चले हवा के शजर झूमने लगे
मस्ती में फूल काँटों का मुँह चूमने लगे

थम थम के जूफ़िशाँ हुआ ज़र्रों पे आफ़ताब
छिड़का हवा ने सब्जा-ए-ख्वाबीदा पर गुलाब

मुरझायी पत्तियों में मचलने लगा शबाब
लर्ज़िश हुई गुलों में बरसने लगी शराब

रिन्दाने-मस्त और भी बदमस्त हो गये
थर्रा के होंठ ज़ाम में पेवस्त हो गये

दोशीज़ा एक खुशकदो-खुशरंगो-खूबरू
मालिन की नूरे-दीद गुलिस्ताँ की आबरू

महका रही है फूलों से दामान-ए-आरजू
तिफ़ली लिये है गोद में तूफ़ाने-रंगो-बू

रंगीनियों में खेली, गुलों में पली हुई
नौरस कली में कौसे-कज़ह है ढली हुई

मस्ती में रुख पे बाल-ए-परीशाँ किये हुये
बादल में शमा-ए-तूर फ़रोज़ाँ किये हुये

हर सिम्त नक्शे-पा से चरागाँ किये हुये
आँचल को बारे-गुल से गुलिस्ताँ किये हुये

लहरा रही है बादे-सहर पाँव चूम के
फिरती है तीतरी सी गज़ब झूम झूम के

ज़ुल्फ़ों में ताबे-सुंबुले-पेचाँ लिये हुये
आरिज़ पे शोख रंगे-गुलिस्ताँ लिये हुये

आँखों में बोलते हुये अरमाँ लिये हुये
होठों पे आबे-लाले-बदख्शाँ लिये हुये

फितरत ने तौल तौल के चश्मे-कबूल में
सारा चमन निचोड़ दिया एक फूल में

ऐ हुस्ने-बेनियाज़ खुदी से न काम ले
उड़ कर शमीमे-गुल कहीं आँचल न थाम ले

कलियों का ले पयाम गुलों का सलाम ले
कैफ़ी से हुस्ने-दोस्त का ताज़ा कलाम ले

शाइर का दिल है मुफ़्त में क्यों दर्दमंद हो
इक गुल इधर भी नज़्म अगर यह पसंद हो

और अब सुनते हैं कैफ़ी साहब की एक और नज़्म, 1984 में आई फिल्म ’भावना’ से| शबाना आज़मी की शानदार अदायगी (इस फिल्म के लिये उन्हें 1985 का सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्म-फेयर पुरस्कार मिला था) से सजी इस फिल्म का संगीत दिया था बप्पी लाहिरी ने।

नज़्म के बोल हैं:

मेरे दिल में तू ही तू है दिल की दवा क्या करूँ
दिल भी तू है जाँ भी तू है तुझपे फ़िदा क्या करूँ

ख़ुद को खोकर तुझको पा कर क्या क्या मिला क्या कहूँ
तेरा होके जीने में क्या क्या आया मज़ा क्या कहूँ

कैसे दिन हैं कैसी रातें कैसी फ़िज़ा क्या कहूँ
मेरी होके तूने मुझको क्या क्या दिया क्या कहूँ

मेरी पहलू में जब तू है फिर मैं दुआ क्या करूँ
दिल भी तू है जाँ भी तू है तुझपे फ़िदा क्या करूँ

है ये दुनिया दिल की दुनिया, मिलके रहेंगे यहाँ
लूटेंगे हम ख़ुशियाँ हर पल, दुख न सहेंगे यहाँ

अरमानों के चंचल धारे ऐसे बहेंगे यहाँ
ये तो सपनों की जन्नत है सब ही कहेंगे यहाँ

ये दुनिया मेरे दिल में बसी है दिल से जुदा क्या करूँ
दिल भी तू है जाँ भी तू है तुझपे फ़िदा क्या करूँ




तो कैसी लगीं आपको ये नज़्में?

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7 टिप्पणियाँ

  1. KAIFI SAHIB KO PADHNAA HAMESHAA SE HI ACHHA LAGTAA RAHAA HAI... INKI YE NAZM BHI BEHAD UMDAA HAI... UNKI EK NAZM HAI AAJ KI RAAT BAHOT GARM HAWAA CHALNE WAALI HAI AAJ KI RAAT FIR NA NIND AAYEGEE.....
    ISE AGAR PADHAAYE TO MEHARBAANI HOGI..

    ARSH

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  2. आज साहित्य शिल्पी का बदला हुआ लुक देख कर प्रसन्न हो गया। इससे आपको जगह भी अधिक मिल रही है।

    क़ैफ़ी साहब की नज़्ल सुनवाने का धन्यवाद।

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  3. साईट अब बहुत अच्छी लग रही है।

    कैफ़ी आज़मी के जीवन पर और उनकी नज़्म पढ/सुन कर अच्छा लगा। बहुत अच्छी प्रस्तुति है।

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  4. कैफ़ी साहब से इस तरह मुलाकात कराने का शुक्रिया।

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  5. इस कडी से कैफ़ी आजमी जी को और करीव से जानने का मौका मिला. उनकी शायरी कमाल की है इसके बारे में कोई दो राय नहीं... उनकी गजल पढवाने के लिये अजय जी का आभार

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  6. >inke baare me kya kahun jinhone gaagr me sagar bhar diya.<



    vinod sen sagar mp

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