
जहाँ , हम मिल सकें!
एक हो सके!!
विजय कुमार सपत्ति के लिये कविता उनका प्रेम है। विजय अंतर्जाल पर सक्रिय हैं तथा हिन्दी को नेट पर स्थापित करने के अभियान में सक्रिय हैं। आप वर्तमान में हैदराबाद में अवस्थित हैं व एक कंपनी में वरिष्ठ महाप्रबंधक के पद पर कार्य कर रहे हैं।
मैंने तो बहुत ढूँढा;
पर मिल नही पाया,
कहीं मैंने तुम्हे देखा;
अपनी ही बनाई हुई जंजीरों में कैद,
अपनी एकाकी ज़िन्दगी को ढोते हुए,
कहीं मैंने अपने आपको देखा;
अकेला न होकर भी अकेला चलते हुए,
अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए,
अपने प्यार को तलाशते हुए;
कहीं मैंने हम दोनों को देखा,
क्षितिज को ढूंढते हुए,
पर हमें कभी क्षितिज नही मिला!
भला,
अपने ही बन्धनों के साथ,
क्षितिज को कभी पाया जा सकता है,
शायद नहीं ;
पर ,मुझे तो अब भी उस क्षितिज की तलाश है!
जहाँ मैं तुमसे मिल सकूँ,
तुम्हारा हो सकूँ,
तुम्हे पा सकूँ,
और, कह सकूँ ;
कि;
आकाश कितना अनंत है
और हम अपने क्षितिज पर खड़े है
काश,
ऐसा हो पाता;
पर क्षितिज को आज तक किस ने पाया है
किसी ने भी तो नही,
न तुमने, न मैंने
क्षितिज कभी नही मिल पाता है
पर; हम; अपने ह्रदय के प्रेम क्षितिज पर
अवश्य मिल रहें है!
यही अपना क्षितिज है!!
हाँ; यही अपना क्षितिज है!!!
8 टिप्पणियाँ
इस कविता में
जवाब देंहटाएंविजय भाई
कुछ भ्रमित-से
दिखाई दे रहे हैं!
काश,
जवाब देंहटाएंऐसा हो पाता;
पर क्षितिज को आज तक किस ने पाया है
किसी ने भी तो नही,
न तुमने, न मैंने
क्षितिज कभी नही मिल पाता है
पर; हम; अपने ह्रदय के प्रेम क्षितिज पर
अवश्य मिल रहें है!
यही अपना क्षितिज है!!
हाँ; यही अपना क्षितिज है!!!
अच्छी लगी।
विजय जी की इस कविता में मानवीय भावनाओं के आवेग के कारण मस्तिष्क में एक उथल-पुथल व्यक्त की है।
जवाब देंहटाएंआरंभ में कवि एक कल्पित मंज़िल(क्षितिज) को यथार्थ समझ बैठा है जो मरीचिका की भांति यह कल्पित क्षितिज वास्तविकता से दूर ले जाता है।
किंतु ज्यूं ही कवि को विदित होता है कि इसका वजूद केवल एक मरीचिका के समान है, तो अंतिम पंक्तियों में यथार्थ, वास्तविक क्षितिज ('हृदय का प्रेम-क्षितिज') का भान होता है जिसे सुंदर शब्दों में प्रस्तुत किया है:
क्षितिज कभी नही मिल पाता है
पर; हम; अपने ह्रदय के प्रेम क्षितिज पर
अवश्य मिल रहें है!
यही अपना क्षितिज है!!
हाँ; यही अपना क्षितिज है!!!
महावीर शर्मा
आपकी इस कविता ने मुझे एक लंबी कहानी की थीम दे दी... शुक्रिया...
जवाब देंहटाएंखबरी
क्षितिज कभी नही मिल पाता है
जवाब देंहटाएंपर; हम; अपने ह्रदय के प्रेम क्षितिज पर
अवश्य मिल रहें है!
सुन्दर।
विजय जी हर्दय की सारी उथल पुथल को आप ने कविता में भर दिया है हर्दय की भावनाओ को बहुत अच्छी तरह से व्यक्त किया है
जवाब देंहटाएंक्षितिज को बिम्ब बना कर अच्छी कविता लिखी है आपने।
जवाब देंहटाएंभाई जी
जवाब देंहटाएंक्षितिज क्या है एक कल्पित रेखा भर है जो आकाश और धरती को मिलाती प्रतीत होती है... अपने लिए तो कही भी एक रेखा खींच कर मिल लीजिये वहीं पर क्षितिज बन जाएगा.
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.