
सर, आपके लिये लेखन क्या मायने रखता है?
डॉ. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित : लेखन जो है, वह महत्वपूर्ण दो तरह से हो जाता है, दो जरुरतें पूरी करता है - अपने-आपको शेयर करने की इच्छा। लेखक में यह इच्छा ज्यादा होती है, कई स्तरों पर होती है - जैसे भावनात्मक, कलात्मक स्तर पर। अपने व्यक्तित्व को सबके साथ बाँट रहे हैं, इसमें एक तरह की संतुष्टि है। जो लोग स्वान्त:सुखाय हैं, उसमें "मैं'' शामिल है। इसमें 'स्व', ही काफी व्यापक है। मैं खुद को बाँटता हूँ तो सिर्फ मेरा सुख-दु:ख मेरा ही नहीं, सबका है। यह बाँटना ही लेखन का अर्थ है।
मेरे आस-पास जो समाज, उसकी व्यवस्था है, उसे मैं काफी अन्यायपूर्ण और विषम मानता हूँ। मैं खुद जिन हालातों में पला-बढ़ा, उसमें यह रहा कि मैं खुद अन्याय का शिकार हूँ। लिखना-अन्यायपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ एक लड़ाई लड़ना है। उस पर मैं उंगली रखता हूँ, एक्सपोज करता हूँ। ऐसे में लेखन औजार हो जाता है। लेखन मेरे लिये यही मायने रखता है।
मधु अरोड़ा का जन्म जनवरी, १९५८ को हुआ। आप वर्तमान में भारत सरकार के एक संस्थान में कार्यरत हैं आपने अनेक सामाजिक विषयों पर लेखन, भारतीय लेखकों के साक्षात्कार तथा स्वतंत्र लेखन किया है। आपकी आकाशवाणी से कई पुस्तक-समीक्षायें प्रसारित हुई हैं। आपका मंचन से भी जुड़ाव रहा है।
लेखन आपके लिये प्राथमिकता है या जीवन शैली?
डॉ. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित : लेखन जीवन-शैली है। जहाँ ज़िन्दगी में और आवश्यकताएँ हैं, लिखना भी आवश्यक है। जहाँ इतनी लड़ाई लड़ते हैं, लिखना भी लड़ाई है। यहाँ बहुत से कार्य-कलाप लेकर चलते हैं, कलात्मक अभिव्यक्तियों के रूप गढ़ते हैं, वहाँ लिखना भी एक हिस्सा है। मैं यह नहीं कहूँगा कि लेखन को प्राथमिकता देता हूँ, पर कलात्मकता के अनेक रूप हैं जिन्हें मैं पसन्द करता हूँ। दृश्य विधाओं - नाटक, सिनेमा में भी अभिव्यक्ति का बहुत बड़ा स्थान है। वैचारिक, दार्शनिक, ऐतिहासिक, आर्थिक चिन्तन, विश्लेषण मेरे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। साहित्य लेखन की प्राथमिकता नहीं होती। वह इन्हीं गतिविधियों में से एक है। लेखन मेरी जीवन-शैली है, यह नहीं कहूँगा, बल्कि यह मेरे जीवन का हिस्सा है।
आप एक लेखक को आम आदमी से अलग मानते हैं?
डॉ. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित : किसी हद तक थोड़ा भिन्न है, पर आम आदमी से ऊपर है, ऐसा मैं नहीं मानता। किसी ने कहा भी है कि मोची जो जूता बनाता है, वह उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना लेखक का लेखन है। वह ऍलीट है, पर ऊपर नहीं है। कुछ लेखकों और कवियों को देखकर लगता है कि वे आम आदमी से भी नीचे हैं। आम आदमी में आदमियत तो है। पुरस्कारों के रूप में, विदेश यात्राओं, अनुदान के रूप में भ्रष्टाचार फैल रहा है। इससे लगता है कि लेखक आम आदमी से नीचे हो गया है।
आप कहानी या उपन्यास लिखते समय किस मानसिकता से गुजरते हैं?
डॉ. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित : लेखन के लिये मानसिक स्थिति जरूरी है। आप जिस माहौल में हैं, उसमें से दूसरे माहौल में पहुँचना होता है जब तक आप उस माहौल में, चरित्र में डूब नहीं जाते, लिख नहीं सकते, मेरे लेखन में शैली, माहौल, चरित्र का महत्व होता है। जब तक मैं उस माहौल में डूब न जाऊँ, लिख नहीं सकता। लेखक लिखते समय उस माहौल को अनुभव करता है, सपने में वे पात्र आते है, मैं दुनियाँ से कट जाता हूँ। मैं मानता हूँ कि जीवन्त रचना लिखना चाहते हैं तो उस जीवन्त संसार में जाना होता है। मानसिकता के एक अनुभव संसार से गुजरना बहुत जरूरी है।
आपकी विचारधारा क्या है? क्या इसमें बदलाव आया है?
डॉ. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित : मेरी विचारधारा को क्या नाम दिया जाये? मार्क्सवाद, लेनिनवाद - जब मैंने इनकी विचारधारा को जानना चाहा तो मार्क्सवाद की किताबों को पढ़ने से पूर्व पाया कि हर दौर में ऐसे लोग होते हैं जो समान अनुभव से गुजरते हुए समान निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। मार्क्सवाद पढ़ने के बाद लगा कि सिर्फ लोकल शोषण नहीं है, यह पूरी दुनिया में फैला है। परन्तु मूल रूप से शोषण, अत्याचार के खिलाफ लड़ रहा हूँ, यही विचारधारा है। कुछ लेखक सिर्फ किताबें पढ़कर नारे लगाने लगते हैं, मैं उससे बचा रहा हूँ। जीवन स्वयं बोल रहा है और उसे पाठक तक पहुँचाना लेनिनवाद, मार्क्सवाद है। मैंने किताबों से पढ़कर रट लिया हो ऐसा नहीं है, जीवन की गत्यात्मकता को पढ़ा है। कहा जाता है कि समाज डेमोक्रेटिक है, पर हमारे यहाँ समाज व्यवस्था में मतभेद है। यदि आप इस व्यवस्था पर उँगली रखते हैं तो समाज में दंड दिया जाता है। यदि आप उद्यम रूप से समाज के खिलाफ हैं तो आपको सज़ा दी जाती है। आपको तोड़ने की कोशिश की जाती है। कई बार लेखक टूट भी जाता है और यही समाज के चौधरी की जीत है।
आपके ख्याल से आप अपनी किस रचना को सर्वोत्कृष्ट मानते है?
डॉ. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित :यह सवाल अजीब है और कई बार पूछा भी जा चुका है। सर्वोत्कृष्ट कुछ भी नहीं है। मुझे मुर्दाघर से भी कई उपन्यास अच्छे लगते हैं। तो पाठकों की दृष्टि में सर्वोत्कृष्ट होता है, लेखक की नज़र में नहीं। मैं अपनी तरफ से "दि बेस्ट" देता हूँ। कुछ लोगों को "कटा हुआ सासमान'' पसन्द है तो कुछ को "मुर्दाघर''। कई लोगों को वेश्याओं का जीवन इंट्रेस्टिंग लगता है। "कटा हुआ सामान'' में शहर का जो जीवन है, उसे शिद्दत से जिया है। मुझे अपनी सारी कृतियाँ अच्छी लगती हैं। जैसे माँ अपने सारे बच्चों को प्यार करती है, वैसे लेखक भी अपनी सभी कृतियों को प्यार करता है। जब लोग मुर्दाघर की तारीफ करते हैं तो मेरे अन्य पात्रों के साथ अन्याय हो जाता है। वे पात्र भी हमदर्दी के हकदार हैं।
आपका प्रसिद्ध उपन्यास "मुर्दाघर'' इस सदी की श्रेष्ठ 25 उपन्यासों में आता है, आपको कैसा लगता है?
डॉ. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित : मैंने उन 24 किताबों की सूची नहीं देखी है। एक बात स्पष्ट कर दूँ कि यदि उन 24 किताबों में वे किताबें है जो मुझे पसन्द नहीं है तो सोचना पड़ेगा। बात तो अच्छी लगनेवाली है, पर चुनने की कसौटी क्या है? कहीं गुटबाजी तो नहीं है? मैं उपन्यास पढ़ने का शौकीन रहा हूँ, पर आज़ादी के बाद जो उपन्यास लिखे गये हैं, अधिकतर से निराश हूँ। परन्तु यह बड़ी बात है कि उन्होंने 25 उपन्यास निकाले। मैं तो 8-10 से अधिक नहीं निकाल सकता। पता नहीं वे कौन से पंडित हैं, जिन्होंने 25 उपन्यास सर्वश्रेष्ठ घोषित किये हैं।
"मुर्दाघर'' की भाषा, तेवर पर आज भी सवाल उठाये जाते हैं, इसकी कोई खास वजह?
डॉ. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित : देखिये, भाषा जो है, वह अपने आप में कुछ नहीं हैं। आप जो पात्र, माहौल लेते हैं, वे वही भाषा बोलते हैं। झोपड़पट्टी की रंडियों से जो बुलवाना है, तो वह उनकी भाषा है, मेरी नहीं है। लेखक जहाँ वर्णन कर रहा है, वहाँ गाली नहीं है। जब पात्र बोलते हैं तो वह उनकी भाषा है। उसमें मैं दखल नहीं देता। जो लोग यह बात करते हैं, वे कुलीनता का आडंबर करते हैं। निम्न वर्ग का गुस्सा, प्यार, नफरत जब तीव्रता में व्यक्त होता है तो हमारे लिये गाली है, पर उनकी तो भाषा है। गालियाँ संवादों में आती हैं, उनके लिये यह मुहावरा है, अभिजात्य के लिये भले ही गालियाँ हों। एक पार्टी में ओमप्रकाश ने कहा कि ये गालियाँ राम-नाम लगती हैं। इनके माध्यम से भोले-भाले व्यक्तियों की भावनाएँ व्यक्त होती हैं।
आपकी निगाह में आज का लेखन आपके समय के लखन से किस प्रकार अलग है?
डॉ. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित : ये सवाल कहीं मेरी बढ़ती उम्र की ओर संकेत देता है, लेकिन मैं यह कहना चाहूँगा कि मैंने बदलते तेवर देखे हैं। जब मैं बहुत छोटा था, जब साहित्य में रुचि पैदा हुई तो इसके लिये मेरी माँ काफी जिम्मेदार है। उस समय का लेखन एक हथियार था। नई-नई आज़ादी मिली थी, उसके लिये लोगों में संघर्ष था। हिन्दी में लेखन संघर्ष का सूचक बन गया था। 1948/49/50 और सन 60 तक मैंने एक खास तेवर देखा है कि लेखन सोद्देश्य है, उसकी एक दिशा तय है। कुछ ने उसे प्रगतिवादी कहा। उस समय सारे के सारे लेखक, कवि अपने लेखन में एक लड़ाई लड़ रहे थे, न्यायपूर्ण संघर्ष, बेहतरी की लड़ाई थीं, परन्तु यदि वह युग मेरा था तो यह भी मेरा है। उस लेखन में सेबोटाज रहा है। जनजीवन से संबंधित लेखन को खत्म करने के लिये जब कोई लेखन करता है तो उसे उत्तर आधुनिक आदि कहा जाता है। नई कविता, नई कहानी का उद्देश्य रहा है कि प्रगतिवादी लेखन को कंडम करें। नई कविता, कहानी का जो आन्दोलन है, उसे मैं आन्दोलन न कहकर आन्दोलनवाद कहूँगा। इनके आते ही लक्ष्य खत्म हो गया। लक्ष्यहीनता दिशा बन गया। अब साहित्य संघर्ष नहीं रह गया। आन्दोलनवाद की हवा चल पड़ी और लेखन की दिशा ही खत्म हो गई। लेखन में बिखराव आया। यह इन आन्दोलनों के प्रणेता की जीत है। नई कविता, कहानी को राजनीति और धनाड्य लोगों का प्रश्रय मिला। निराला जी की कविता दिशा देती थी, पर अज्ञेयजी की नई कविता ने दिग्भ्रमित किया कि लेखन की दिशा ही नहीं होती। मेरे समय के लेखन में दिशा थी, पर आज के लेखन ने दिशा को ही तोड़ दिया। आन्दोलनवादी साहित्य शुरू हुआ और खत्म हो गया। उसके बाद का जो दौर है, उसमें साहित्य वहाँ पहुँच गया, जो आज़ादी के बाद था। जब सर्वेश्वर जैसे कवि आये, उपन्यास के क्षेत्र में महाभोज, आपका बंटी आये जो संघर्षशील धारा थी। जहाँ तक आज का सवाल है - अच्छा लेखन है पर दिशाहीन है। किसके दु:ख-दर्द को लाया जा रहा है, क्या कर रहा है, उसे ही पता नहीं याने कन्फ्यूजन साहित्य लिखा जा रहा है। मेरे हिसाब से इन बदलते तेवरों को मैंने देखा है।
आज के रचनाकारों में कोई रचनाकार आपको प्रभावित कर पाया है?
डॉ. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित : लेखन से पहले मैं पढ़ता बहुत था। उस ज़माने में प्रेमचन्द, शरत्चन्द्र पसन्दीदा थे। फिर रुसी, जर्मन साहित्य पढ़ा। मैं भाव-विमोर हो जाता हूँ। तुर्गनेव, चेखव, फ्लॉबियर, एमिल जोला को पढ़ता था और विह्वल हो उठता था। जो पढ़ा है, उसका अवचेतन में प्रभाव रहा है। पर मुझे यह कहने में अफसोस हो रहा है कि इन रचनाओं के बाद जो पढ़ा है उसमें किसी ने प्रभावित किया हो। हाँ, महाभोज, आपका बंटी ने बहुत प्रभावित किया। वैसे मैंने बहुत ज्यादा पढ़ा भी नहीं है। मुझे स्वीकारोक्ति करनी चाहिये कि मैंने जो उपन्यास पढ़े हैं, चार पेज पढ़कर छोड़ दिये हैं। उनमें पठनीयता नहीं है। एक प्रकार का नकली लेखन है, जिसे मॉडल बनाकर पेश किया जा रहा है। हिन्दी लेखन चाहे उपन्यास हो या कविता, एक षड़यंत्र का शिकार हो गया है।
"मोहब्बत, गन्दगी और ज़िन्दगी'' आपकी बेहतरीन प्रेम कहानियाँ हैं, प्रेम आपके लिये ज़िन्दगी में क्या मायने रखता है?
डॉ. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित : प्रेम बहुत मायने रखता है। यह कहाँ है इसका पता लगा रहा हूँ। मुझे जहाँ तक प्रेम का संबंध है तो मुझे एक ही शब्द याद आता है - माँ। खास तौर से वह प्रेम जो अहेतु हो। प्रेम कहीं आदमी को ऊपर उठा देता है। यतीम लड़के को एक रात वेश्या के साथ रहने पर उसे उस वेश्या से प्यार हो जाता है और वह बच्चा उस वेश्या के पति से लड़ पड़ता है। प्रेम बहुत बड़ी चीज है। इसकी ताकत बहुत बड़ी है, पर आज फिल्मों में जो दिखाया जा रहा है वह प्रेम कतई नहीं है। आज पुरुष के अन्दर एक और पुरुष तथा नारी के अन्दर एक और नारी है - याने प्रेम का जो रहस्यवाद है, बेकार है। प्रेम को ग्लोरिफाई न करें। देवदास इस तरह का उदाहरण है। हमारे यहाँ प्रेम के नाम पर पाखंड है। प्रेम के नाम पर जो रहस्यवाद आ रहा है, उसकी भर्त्सना की जानी चाहिये।
आपकी कहानियों में निम्न वर्ग, वेश्याएँ, गरीब वर्ग ज्यादा हैं, इसकी कोई खास वजह?
डॉ. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित : इसकी एक वजह तो यह है कि मैं खुद गरीब हूँ। पहले ज्यादा था, अब कम हूँ। जो सम्पन्न लोग हैं, उनसे दिक्कत होती है। उनमें गहराई नज़र नहीं आती। पैसे वाले पात्रों में गुण नहीं देखे। निम्न वर्ग के लोग जो कठोर संघर्ष करते हैं, उनमें, वेश्याओं में गुण दिखाई देते है। आप अगर उच्च वर्ग के बारे में लिखेंगे तो स्त्री-पुरूष का रोमांस, प्रेम संबंध लिखेंगे। वहाँ भ्रष्टाचार है। पर उनका दावा होता है सच्चे प्यार का। तो यह धोखा है। इसे लिखना कोई मायने नहीं रखता।
आप स्त्री-पुरूष की दोस्ती को किस रूप में देखते हैं?
डॉ. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित : प्रकृति ने स्त्री-पुरूष को बनाया है, प्रजनन के लिये बनाया है, ताकि जो प्रजाति है, वह चलती रहे। प्रकृति में प्रेम नहीं है, उसमें प्रजनन है, प्रजाति को बढ़ाने की प्रेरणा है। किसी भी प्राणी में देख लीजिये - माँ की भूमिका होती है, पर पिता का कोई रोल नहीं है। हम मनुष्य हैं, अत: हमारे अन्दर एक भावनात्मक लगाव उत्पन्न होता है। हम भौतिक लेवल से ऊपर बढ़ गये हैं। मेरे हिसाब से स्त्री-पुरूष की दोस्ती में यौनाकर्षण रहेगा। यह बात अलग है कि विवेक और उचित-अनुचित की सीमा को रखेंगे। मैं जब महिला या पुरुष से बात करुंगा तो मेरे रवैये में फ़र्क होगा। सुपर ईगो की वजह से अनुचित बात मन में नहीं आने देते। स्त्री-स्त्री की बात तथा पुरूष-पुरूष की बात और है पर स्त्री -पुरूष की दोस्ती में आकर्षण होगा ही। अधिकांश पुरुषों का दृष्टिकोण सेक्स का होता है। खास तौर से हिन्दी का लेखक शामिल है।
आपके फिल्मी दुनियाँ से रिश्ते रहे हैं, वहाँ के आपके अनुभव कैसे रहे?
डॉ. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित : फिल्म का माध्यम तो पसन्द है क्यों कि वह व्यापक है और इस अर्थ में व्यापक है कि जन-साधारण तक पहुँचने में समर्थ है। यह लोक-माध्यम है, इसमें लोक-विधाओं का समावेश है। इस लाइन की मेरी सबसे बड़ी समस्या रही है कि यह लाइन आँख के अंधे गाँठ के पूरे वालों की है। उन्हें किसी विधा की समझ नहीं है। यहाँ तक कि फिल्म से पैसा कमाने की तमीज़ भी नहीं है। 50-60 के दशक का दौर बहुत अच्छा था। वे इस माध्यम को समझते थे। जन-साधारण तक गुणवत्ता कैसे पहुँचाई जाये, इसकी लड़ाई लड़ रहे थे। "प्यासा'' फिल्म साहिर की शायरी पर हिट फिल्म बनी। "झनक-झनक पायल बाजे'' नृत्य पर बनी हिट फिल्म। बिमल राय जो लगातार साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाते रहे। राजकपूर ने अपने समय की सार्थक फिल्में बनाई, पर आज के दौर की फिल्में दिवालियेपन का शिकार हैं। यह एक निर्माताओं का शोशा छोड़ा जाता है कि अच्छी कहानियाँ नहीं हैं। जब लेखक जाता है तो उनके पास कहानी सुनने का वक्त नहीं है, इच्छा नहीं है। अंगेजी फिल्मों को कॉपी कर लेते हैं पर ये अच्छे कॉपी मास्टर भी नहीं हैं। मुझ जैसे आदमी को इस माहौल में घुटन होती है। उपन्यास लिख सकता हूँ पर फिल्म नहीं बना सकता। अपनी कहानियाँ लेकर चुपचाप बैठा रहता हूँ। यदि मुझे कहने दें तो मुझे फिल्म की समझ है। इसके बाद भी अगर मैं इन ज़रूरतों का ख्याल रखते हुए भावनाओं के स्तर पर बात कहने की कोशिश करता हूँ तो लोग सुनने को तैयार ही नहीं हैं। मुझे कई बार अपना जीवन निरर्थक लगने लगता है। मेरे इस लाइन के अनुभव बहुत अच्छे नहीं हैं।
आप मुंबई की साहित्यिक राजनीति पर क्या कहना चाहेंगे?
डॉ. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित : यहाँ पर साहित्यिक गतिविधियाँ हैं वे हिन्दी अकादमी से काफी कुछ जुड़ी है। होना यह चाहिये कि अकादमी राजनीति से निरपेक्ष होकर साहित्यिक गतिविधियों का आयोजन करे, लेकिन ऐसा होता नहीं है। मेरी अब तक यह समझ में नहीं आया कि महाराष्ट्र सरकार के बदलते ही साहित्य अकादमी क्यों बदल जाती है? जब भाजपा और शिवसेना की सरकार थी तो इन राजनीतिक दलों के आदमी चलाते थे, लेकिन जैसे ही सरकार बदली तो अकादमी के इन पदाधिकारियों ने इस्तीफा दे दिया। उस समय व्यक्तिगत बातचीत एकैडमी के तत्कालीन प्रमुख शशिभूषण वाजपेयी से हुई। मैंने उस समय उनसे कहा कि ये क्यों जरूरी है कि आपकी सरकार बदल गई है तो आप अकादमी से इस्तीफा दे दें। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी का यही आदेश है। अब काँग्रेस की सरकार बनी तो काँग्रेस के समर्थक अकादमी के सर्वेसर्वा हो गये। साहित्य अकादमी का राजनीति से यह रिश्ता एक अजीब सी बात है। होना तो यह चाहिये कि साहित्य अकादमी दलगत राजनीति से निरपेक्ष होकर संचालित की जाये लेकिन यह मुंबई की साहित्यिक राजनीति ही है, साहित्य अकादमी पूरी तरह दलगत राजनीति से जुड़ी हुई है।
मुंबई में अनेक प्रकार के साहित्यिक पुरस्कार हर साल दिये जाते हैं। किस आधार पर दिये जाते हैं, यह स्पष्ट नहीं है। कुछ ऐसी धारणा बनती है कि व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर ये पुरस्कार दिये जाते हैं। अगर यह धारणा सही है तो यह साहित्य की राजनीति है। इससे बचना जरूरी है। मुंबई शहर में सुरेन्द्र वर्मा, पं. आनन्द कुमार वगैरह ऐसे साहित्यकार हैं जिनका साहित्यिक योगदान उन लोगों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है जिन्हें अनेक प्रकार से पुरस्कृत किया जाता है। जरूरी है कि ये सारे पुरस्कार व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर न दिये जायें, साहित्यिक गुणवत्ता को मान्यता देने और बढ़ाने के लिये दिये जायें।
मुंबई शहर में कुछ लेखक संघ हैं, इनमें हल्की सी संकीर्णता नज़र आती है। ये संगठन आम तौर पर उन्हीं साहित्यकारों को महत्व देते हैं जो उनकी विचारधारा से पूरी तरह सहमत हों। जरूरी है कि असहमति का अनादर न किया जाये और एक समान मत रखनेवाले कुछ थोड़े से लोगों की गुटबन्दी से बचा जाये।
मुंबई का एक ऐसा साहित्यिक वर्ग है जो कुछ सरकारी और अर्ध सरकारी संस्थानों में हिन्दी आदि का पदभार ग्रहण किये हुए है। एक ऐसी धारणा बनती है कि हिन्दी अधिकारी के रूप में जो अधिकार इन्हें दिये गये हैं, वे उनका दुरुपयोग कर अपने आपको और अपने मित्रों को साहित्यिक क्षेत्र में प्रक्षेपित करने का प्रयास करते हैं। ये लोग प्रकाशकों से सीधी सौदेबाजी करते हैं और इस सौदेबाजी के दौरान अपनी कुछ ऐसी पुस्तकें प्रकाशित करवाते हैं जिनका कोई महत्व नहीं है। इन्हें देशभर में मुफ्त टेलीफोन करने की सुविधा भी मिली, उसका दुरुपयोग ये लोग एक साहित्य गुटबाजी के रूप में करते हैं ये रिवाज सा बन गया है कि पहले किसी प्रकाशक को पटाकर अपनी पुस्तक छपवाओ फिर खुद ही उस पुस्तक पर गोष्ठी करवाओ। फिर उस गोष्ठी को समाचार पत्र-पत्रिकाओं में छपवाओ। यह एक प्रकार का साहित्यिक अनाचार है। इससे बचने की ज़रूरत है।
कुछ और लाग हे जो थोक के भाव से लेखन करते हैं और अपने लेखन पर दूसरों से पुस्तकें लिखवाते हैं और जब ये 60-70 साल के हो जाते हैं तो खुद ही अपनी षष्ठी-पूर्ति वगैरह आयोजित करवाते हैं। यह भी एक अजीब सी बात है पर है ये मुंबई के साहित्य का एक आकलन।
अपने समकालीन रचनाकारों जैसे निर्मल वर्मा, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर के बारे में कुछ कहना चाहेंगे?
डॉ. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित : समकालीन कौन हैं? निर्मल वर्मा, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर आदि? इनके बारे में मुझे कुछ नहीं कहना है।
23 टिप्पणियाँ
बहुत अच्छे प्रश्न किये गये हैं और उत्तर भी उतने ही गंभीर हैं। किसी लेखक को समझने के लिये एसे साक्षात्कार बडा माध्यम बनते हैं। धन्यवाद मधु अरोरा जी।
जवाब देंहटाएंजगदम्बा प्रसाद दीक्षित को इतनी निकटता से जानना अच्छा लगा। धन्यवाद मधु जी।
जवाब देंहटाएंदीक्षित जी नें बेबाक बातें की हैं। "मेरे आस-पास जो समाज, उसकी व्यवस्था है, उसे मैं काफी अन्यायपूर्ण और विषम मानता हूँ। मैं खुद जिन हालातों में पला-बढ़ा, उसमें यह रहा कि मैं खुद अन्याय का शिकार हूँ। लिखना-अन्यायपूर्ण व्यवस्था के खिलाफ एक लड़ाई लड़ना है। उस पर मैं उंगली रखता हूँ, एक्सपोज करता हूँ। ऐसे में लेखन औजार हो जाता है। लेखन मेरे लिये यही मायने रखता है।" यह बात आज बहुत कम लेखकों पर लागू होती है। साहित्यिक खेमेबाजी और पुरस्कारों की लामबंदी पर भी दीक्षित जी के विचार पठनीय हैं।
जवाब देंहटाएंदीक्षित जी मेरे प्रिय लेखक हैं। मधु जी के बेबाक सवाल और दीक्षित जी के उतने ही सटीक उत्तर इस साक्षात्कार को महत्वपूर्ण बनाते हैं। एक अच्छे साक्षात्कार के लिए मधु जी को बधाई
जवाब देंहटाएंNice Interview, Thanks.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
ऐतिहासिक बातचीत
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा साक्षात्कार है, बधाई।
जवाब देंहटाएंसमकालीन कौन हैं? निर्मल वर्मा, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर आदि? इनके बारे में मुझे कुछ नहीं कहना है। - यहाँ बात साफ नहीं हुई। जगदंबा प्रसाद खुद कम्युनिष्ट सोच रखते हैं लेकिन यहाँ क्या इशारा करना चाहते हैं बात साफ होनी चाहिये।
जवाब देंहटाएंइस संवाद से बहुत सी बाते पता चलीं। आज के लेखन की पथहीनता, पुरस्कारो की हकीकत और सिनेमाई लेखन की घुटन भी सामने आई।
जवाब देंहटाएंमधु जी इस साक्षात्कार के बधाई की पात्र हैं. जगदम्बा प्रसाद जी ने भी बखुबी सभी प्रश्नों के उत्तर दिये हैं. उनके बारे में विस्तार से जानना अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंसाक्षात्कार "टू द प्वाईंट है"
जवाब देंहटाएंदीक्षित जी इस समय के जाने माने लेखकों में से एक हैं। उनकी सोच भी निर्भीक और बिना लाग लपेट के है।
जवाब देंहटाएंआदरणीय मधु जी,
जवाब देंहटाएंपहले तो इस उत्कृष्ट साक्षात्कार के लिये धन्यवाद। लेखक का जीवन और सोच आपने खुली किताब कर दिया। साहित्य समाज में लिप्त भ्रष्टाचार पर भी दीक्षित जी में खुल कर बात की है।
धन्यवाद मधु जी।
जवाब देंहटाएंसाहित्य और साहित्यिक वर्ग का बढिया आंकलन जगदम्बा प्रसाद जी नें किया है।
जवाब देंहटाएंदीक्षित जी के साथ मधु अरोड़ा की बातचीत रोचक भी है और सूचनादायक भी।
जवाब देंहटाएंदीक्षित जी का कहना है कि, - जहाँ तक आज का सवाल है - अच्छा लेखन है पर दिशाहीन है। किसके दु:ख-दर्द को लाया जा रहा है, क्या कर रहा है, उसे ही पता नहीं याने कन्फ्यूजन साहित्य लिखा जा रहा है। मेरे हिसाब से इन बदलते तेवरों को मैंने देखा है।
मुझे समझ नहीं आया कि पूरे हिन्दी लेखन के लिये दिशाहीन शब्द कितना सही है।
दरअसल दिक्षित जी के साथ मेरी पारिवारिक मित्रता है। मैं उनका आदर करता हूं। किन्तु साहित्य को लेकर मेरे और उनके विचार नहीं मिलते। शायद इसी लिये मैं उनकी इस बात से सहमत नहीं हूं।
मेरे हिसाब से साहित्य में बहुत अच्छा लिखा जा रहा है - विशेषकर कथा साहित्य यानि कि कहानी एवं उपन्यास विधा में। पाठकों ने कथा सम्मान प्राप्त विभूति नारायण राय के उपन्यास तबादला का एक अंश साहित्य शिल्पी पर पढ़ा ही है। वे अभी १४ अन्य सम्मानित विजेताओं का साहित्य भी पढ़ेंगे और पाएंगे कि असग़र वजाहत, नासिरा शर्मा, संजीव, हरनोट, चित्रा मुद्गल, ज्ञान चतुर्वेदी, भगवान दास मोरवाल, जैसे लेखक दिशाहीन लेखन कदापि नहीं रच रहे।
तेजेन्द्र शर्मा
कथा यू.के., लन्दन
आप सभीको यह साक्षात्कार पसन्द आया, आप सभी का आभार।
जवाब देंहटाएंसाहित्यशिल्पी टीम का विशेष आभार कि आपने अपनी पत्रिका में इसे प्रकाशित किया।
साक्षात्कार में साहित्य चर्चा के कई अवयव समाहित हुए हैं -पढ़कर आनंद आया ! शुक्रिया !
जवाब देंहटाएंकालजयी कृतियों के रचयिता डा. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित जी का साक्षात्कार श्रीमती मधु अरोड़ा जी ने प्रस्तुत कर स्तुत्य कार्य किया है। वे साधुवाद की पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंडा. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित जी ईमानदार और स्पष्टवादी हैं। उनका कथन बेबाक है। हमें निडर होकर कहना-लिखना चाहिए।
दिशाहीनता की बात उन्होंने समस्त लेखकों के लिए नहीं कही है। आम आदमी के नैतिक स्तर से तुलना भी उन्होंने सभी लेखकों से नहीं की है।
उन्होंने सचाई उजागर की है। सत्य कड़वा होता है।
डा. जगदम्बाप्रसाद दीक्षित जी की कृतियाँ विश्व-साहित्य में मह्त्त्वपूर्ण स्थान की अधिकारिणी हैं।
* महेंद्रभटनागर
मै मुम्बई से हूँ और आपकी मुम्बई साहित्य समाज पर की प्रतिक्रियों से १०० % सहमत हूँ |
जवाब देंहटाएंआपको आपकी स्पष्टवादिता पर बहुत धन्यवाद |
अवनीश तिवारी
मधु अरोड़ा जी द्वारा डा. जगदम्बा प्रसाद दीक्षित जी का साक्षात्कार एक प्रभावकारी प्रस्तुति है. इस सफल प्रयास के लिए मधु जी को बधाई ! आपके द्वारा किये गए प्रश्नों के उत्तर में दीक्षित जी की स्पष्टवादिता प्रशंसनीय है. इस साक्षात्कार ने साहित्य के राजनीतिरण तथा गुटबाजी करने वाली संस्थाओं की चर्चा कर के बहुत बड़ी कुव्यवस्था की तरफ संकेत किया है.
जवाब देंहटाएंकिरण सिन्धु .
utkrist sakshatkar ke liye madhu ji
जवाब देंहटाएंko badhai.
साक्षात्कार ने lekhan ke gambhir vdha per prakash dala hai.
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.