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एक पिता की वसीयत [कविता] - विवेक रंजन श्रीवास्तव



साहित्य शिल्पीरचनाकार परिचय:-


२८ जुलाई, १९५९ को मंडला (म.प्र.) में जन्मे श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र" ने सिविल इंजीनियरिंग में रायपुर से स्नातक करने के बाद फाउंडेशन इंजीनियरिंग में भोपाल से स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की तथा इग्नू से सर्टिफाइड एनर्जी मैनेजर डिप्लोमा भी प्राप्त किया।

वरिष्ठ साहित्यकार प्रो.सी. बी. श्रीवास्तव विदग्ध तथा शिक्षाविद् श्रीमती दयावती श्रीवास्तव के सुपुत्र विवेक रंजन विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशित होते रहे हैं। आकाशवाणी व दूरदर्शन से इनकी कई रचनाओं का प्रसारण भी हुआ है।

इनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं: आक्रोश (कविता-संग्रह), रामभरोसे, कौआ कान ले गया (व्यंग्य-संग्रह), हिन्दोस्ताँ हमारा (नाटक-संग्रह) आदि। कान्हा अभयारण्य परिचायिका तथा एक अन्य कविता संग्रह प्रकाशनाधीन है।

विभिन्न पुरुस्कारों से सम्मानित श्री विवेक रंजन २००५ से हिन्दी ब्लागिंग से जुड़े हैं और अपना चिट्ठा "विवेक के व्यंग" चला रहे हैं।

माना
कि मौत पर वश नही अपना
पर प्रश्न है कि
क्या जिंदगी सचमुच अपनी है ?
हर नवजात के अस्फुट स्वर
कहते हैं कि ईश्वर
इंसान से निराश नहीं है
हमें जूझना है जिंदगी से
और बनाना है
जिदगी को जिंदगी

इसलिये
मेरे बच्चों
अपनी वसीयत में
देकर तुम्हें चल अचल संपत्ति
मैं डालना नहीं चाहता
तुम्हारी जिंदगी में बेड़ियाँ
तुम्हें देता हूँ अपना नाम
ले उड़ो इसे स्वच्छंद/खुले
आकाश में जितना ऊपर उड़ सको

सूरज की सारी धूप
चाँद की सारी चाँदनी
हरे जंगल की शीतल हवा
और झरनों का निर्मल पानी
सब कुछ तुम्हारा है
इसकी रक्षा करना
इसे प्रकृति ने दिया है मुझे
और हाँ किताबों में बंद ज्ञान
का असीमित भंडार
मेरे पिता ने दिया था मुझे
जिसे हमारे पुरखो ने संजोया है
अपने अनुभवों से
वह सब भी सौंपता हूँ तुम्हें
बाँटना इसे जितना बाँट सको
और सौंप जाना कुछ और बढ़ाकर
अपने बच्चों को

हाँ
एक दंश है मेरी पीढ़ी का
जिसे मैं तुम्हें नहीं देना चाहता
वह है सांप्रदायिकता का विष
जिसका अंत करना चाहता हूँ मैं
अपने सामने अपने ही जीवन में...

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10 टिप्पणियाँ

  1. हाँ
    एक दंश है मेरी पीढ़ी का
    जिसे मैं तुम्हें नहीं देना चाहता
    वह है सांप्रदायिकता का विष
    जिसका अंत करना चाहता हूँ मैं
    अपने सामने अपने ही जीवन में...

    बहुत खूब।

    जवाब देंहटाएं
  2. वसीयत एसी ही होनी चाहिये इसी से वसुधैव कुटुम्बकम होगा।

    जवाब देंहटाएं
  3. bahut sundar abhivyakti ... aur in fact yahi aaj ka sahi nirnay honga ...

    badhai aur aabhar...

    vijay

    जवाब देंहटाएं
  4. हाँ
    एक दंश है मेरी पीढ़ी का
    जिसे मैं तुम्हें नहीं देना चाहता
    वह है सांप्रदायिकता का विष


    kitnaa दर्द chipa है........... इस vasiyat में.......... लाजवाब लिखा

    जवाब देंहटाएं
  5. सुन्दर अभिव्यक्ति से लबरेज रचना है . आभार.

    जवाब देंहटाएं
  6. समय की ज़रूरत भी यही है.....बढिया रचना...बधाई

    जवाब देंहटाएं
  7. समय की ज़रूरत भी यही है.....बढिया रचना...बधाई

    जवाब देंहटाएं

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