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हर कविता तीन स्तरों पर आलोचना से गुजरती है [काव्यालोचना] - शरद कोकास

कवि कर्म ईश्वरीय देन नहीं है। कविता लिखने की प्रेरणा हमे साहित्य और समाज से मिलती है लेकिन उसके लिए तैयारी स्वयं करनी होती है। इसके लिए स्वयं का अध्ययन,अनुभवों को रचना में ढालने की शक्ति, साहित्य के इतिहास से परिचय, भाषा की समझ, कल्पनाशीलता, विचारधारा, दृष्टि, शब्दभंडार, राजनैतिक समझ और ऐसे ही अनेक तत्वों की आवश्यकता होती है।

कविता प्रकाशित होने के पश्चात जब पाठक के सन्मुख आती है तो वह उसका आस्वादन करता है। मुख्यत: पाठक उस रचना में भाव ढूंढता है, कोई बिम्ब, कोई प्रतीक या कोई विचार उसे उद्वेलित करता है वह उस कविता में अपने आसपास के परिदृश्य की तलाश करता है। पाठक के मन की कोई बात यदि उस कविता में हो तो वह उसे पढ़कर प्रसन्न होता है। यदि कविता में उसके आक्रोश को अभिव्यक्ति मिलती है या उसे अपनी समस्याओं का समाधान नज़र आता है तो वह कविता उसकी प्रिय कविताओं में शामिल हो जाती है। कुछ पाठक कविता में गेयता को पसंद करते है, वे उसकी लय एवं ताल पर मोहित होते हैं और कथ्य उनके लिए गौण हो जाता है। इस तरह पाठक के पास कविता का रसग्रहण करने का अपना पैमाना होता है। कविता की ग्राह्यता पाठक के स्वयं के अध्ययन, उसकी विचारधारा तथा जानकारियों अथवा सूचनाओं के भंडार पर भी निर्भर करती है। कविता में पाठक की रुचि इन्ही सब बातों की वज़ह से होती है। उसके लिए सबसे अच्छी कविता वह होती है जिसे पढ़कर अनायास उसका मन कह उठे .. ‘ अरे ! ऐसा तो मैं भी लिख सकता था।‘

साहित्य शिल्पीरचनाकार परिचय:-

श्री शरद कोकास एक जाने-माने साहित्यकार तथा समालोचक हैं। वर्तमान में आप रायपुर (छत्तीसगढ़ में अवस्थित हैं।

आलोचक का काम इससे एक कदम आगे का है। उसका काम कविता को पढ़ना या देखना मात्र नहीं है। आलोचक का कार्य है कविता में अंतर्निहित अन्य तत्वों को पाठकों के सन्मुख रखना ताकि वे एक नई दृष्टि एवं नये उपकरणों के साथ कविता में मूल्यों की तलाश कर सकें। आलोचक का यह कार्य उन कवियों के लिए भी ज़रुरी है जो केवल शब्दों की जोड़-तोड़ को या किसी विचार को तीव्रता के साथ कविता में प्रक्षेपित करने को ही कविता समझते हैं या जिनका कविता लिखने का उद्देश्य महज स्वांत:सुखाय, आत्माभिव्यक्ति या पाठकों का मनोरंजन है। वर्तमान समय में इस में लोकप्रियता का तत्व और जुड गया है जिसकी वज़ह से साहित्य में प्रदूषण की संभावनाएँ बढ़ गई हैं। इसके अतिरिक्त साहित्य में व्यक्तिवाद भी बढ़ता जा रहा है, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के कारण जोड़-तोड़ की राजनीति साहित्य में भी प्रारंभ हो गई है, इस वजह से बहुत सारे अच्छे रचनाकार निराश हो चले हैं। आलोचक का काम इस स्तर पर और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।

वर्तमान समय में विचार पर भी बहुत सारे खतरे मंडरा रहे हैं। साहित्य में विचारधारा को गौण समझा जाने लगा है जिसके कारण रचनाकार पूरी तैयारी के साथ सृजन के क्षेत्र में नहीं आ पा रहे हैं। एक ओर धार्मिक उन्माद लगातार बढता जा रहा है, साहित्य में ही नहीं समाज में भी प्रगातिशील व जनवादी ताकतों को उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है। इतिहासबोध को परे कर अतीत के गौरवगान में रचनाकार लिप्त है फलस्वरुप धर्म को लेकर कटटरवाद दिखाई देने लगा है। इधर आंतकवाद फिर सर उठा रहा है । वर्तमान सत्ता के पास इन सारी समस्याओं के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं है। ऐसा नहीं है कि साहित्य में इन सारी समस्याओं के समाधान हों, इन समस्याओं को लेकर रचना की जा रही है लेकिन इसी के बरअक्स इन समस्याओं को नज़रअंदाज़ कर विशुध्द साहित्य के नाम पर पलायनवादी रचनाएँ भी प्रस्तुत की जा रही है। इसलिए आज न केवल साहित्य सृजन बल्कि आलोचना भी खेमों में बँट चुकी है, परस्पर प्रंशसा का बोलबाला है। दिशाहीनता की इस स्थिति में रचनाकर्म और आलोचना दोनों प्रभावित हो रहे है।

समकालीन आलोचना के क्षेत्र में वर्तमान संकट यह है कि रचनाकार, आलोचक को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं जबकि वास्तविकता यह है कि आलोचना और रचना का साहचर्य अत्यंत ज़रुरी है । कोई भी रचना तीन स्तरों पर आलोचना से गुजरती है। सबसे पहले कविता का आलोचक स्वयं कवि होता है लेकिन रचना को शीघ्र जन्म देने के मोह में कई बार वह निर्मम होकर अपनी कविता की आलोचना नहीं कर पाता ।कविता का दूसरा आलोचक पाठक होता है लेकिन वह अच्छी कविता या खराब कविता कहकर रचना पर अपना निर्णय दे देता है । सामान्यत; ब्लाग में प्रकाशित कविताओं के पाठक सामान्य टिप्पणी देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते है । इसके अलावा यदि वह पाठक कवि भी है तो कविता की आलोचना कर अपनी रचना पर प्रतिक्रिया के लिए मार्ग अवरुध्द नहीं करना चाहता ।ऐसी स्थिति में आलोचक का दायित्व और बढ़ जाता है ।युवाओं के लिये मार्ग दर्शन इसलिए भी ज़रूरी है कि वर्तमान में न केवल रचना पर संकट का दौर है बल्कि अन्य माध्यमों की लोकप्रियता तथा आधुनिक समय में जीवन की आपा धापी की वजह से कला व साहित्य सृजन में युवाओं का प्रवेश भी निरंतर कम होता जा रहा है।

अत: आवश्यक है आलोचक के महत्व को स्वीकार किया जाना, कवि के साथ साथ आलोचक के संघर्ष को रेखांकित किया जाना तथा आलोचक की टिप्पणियों को गंभीरता से लेकर तदनुसार अपनी रचना में सुधार करना। यह कवि और आलोचक दोनो की सामूहिक जिम्मेदारी है कि वे अपने अपने कार्य को संपूर्ण निष्ठा ,मेहनत और ईमानदारी के साथ संपन्न करे।

साहित्य सृजन और आलोचना दोनों ही कठिन कार्य हैं लेकिन यह सबसे ज़रूरी है ताकि आनेवाली पीढ़ीयों को अपने समय में अच्छे साहित्य सृजन के लिये प्रेरणा मिल सके। यह इस समय का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है ताकि हम हजारी प्रसाद द्विवेदी,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल,मुक्तिबोध,नामवर सिंह जैसे आलोचकों और हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण कवियों की विरासत को आगे बढाते हुए कुछ बेहतर रच सकें।

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15 टिप्पणियाँ

  1. शरद जी बहुत अपेक्षा है आपसे। काव्यालोचना सुशील कुमार जी नें जब आरंभ किया था तो मुझे लगा कि वे एक आँख से ही कविता देखते हैं। वे लाल छोड कर और कुछ देखना सुनना प्संद नहीं करते थे। उनकी आलोचना दर असल आलोचना न हो कर एक आदमी का निजी विचार थी। मैने इस मंच पर कुछ प्रश्न उनसे किये थे फिर लिख रहा हूँ -

    सुशील जी जब आपने आगामी अंक की विषय वस्तु तय कर ही दी है तो मेरे कुछ प्रश्न सम्मिलित कीजिये -

    अ) कविता को किसी वाद की क्यों आवश्यकता है?

    ब) कविता को कौन सी संस्था मानकीकृत करती है? किन पत्रिकाओं से छपने वाले कवि कहलाते हैं?

    स) एसे कौन कौन से कवि हैं जिनकी कवितायें आम आदमी तक पहुँचती हैं। (आम आदमी पर लिखी गयी जटिल कवितायें नहीं)।

    द) मुख्यधारा क्या है और इसे कौन निर्धारित करता है? मुख्यधारा में कौन कौन से कवि आते हैं और क्यों?

    साथ ही साहित्य शिल्पी से अनुरोध है कि सिक्के के दूसरे पहलू को भी खोलें। एसे विद्वानों के विचार व तर्क भी आमंत्रित करें जिससे केवल एक ही दिशा से बातें न हों। सार्थक परिचर्चा की अपेक्षा है।

    आपसे इन प्रश्नों के उत्तर की विनती है। आपका आलेख पढ कर मुझे लगा कि आप सुलझे हुए आलोचक हैं। साहित्य शिल्पी पर मैं आपका स्वागत करता हूँ।

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  2. इसलिए आज न केवल साहित्य सृजन बल्कि आलोचना भी खेमों में बँट चुकी है, परस्पर प्रंशसा का बोलबाला है। दिशाहीनता की इस स्थिति में रचनाकर्म और आलोचना दोनों प्रभावित हो रहे है।
    समकालीन आलोचना के क्षेत्र में वर्तमान संकट यह है कि रचनाकार, आलोचक को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं जबकि वास्तविकता यह है कि आलोचना और रचना का साहचर्य अत्यंत ज़रुरी है ।

    क्या इसके लिये स्वयं आलोचक भी जिम्मेदार नहीं है?

    शरद जी बहुत बधाई व स्वागत।

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  3. Nice Article, an eye opener.

    Alok Kataria

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  4. आलोचना कठिन कार्य है। साहित्य शिल्पी पर स्वागत तथा शुभकामनायें।

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  5. ".....कवि के साथ साथ आलोचक के संघर्ष को रेखांकित किया जाना तथा आलोचक की टिप्पणियों को गंभीरता से लेकर तदनुसार अपनी रचना में सुधार करना। यह कवि और आलोचक दोनो की सामूहिक जिम्मेदारी है "

    बहुप्रतीक्षित आगमन ..... साहित्यशिल्पी मंच की स्थापना इसी उद्देश्य से हुयी है कि हम सभी मिलकर ... आपकी उपरोक्त पंक्तियों में निहित उद्देश्य को सार्थक करनें में अपनी मेधा का सामूहिक उपयोग करें. श्री अनिल जी एवं नंदन जी सहित हमारे अनेकों अन्य मित्रों के पृश्नो के आलोक में शरद जी ! आपका हार्दिक स्वागत है.

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  6. मित्रो

    अंग्रेज़ी में शेक्सपीयर के ज़माने की एक कहावत आपके साथ बांट रहा हूं - आलोचक वो कुत्ता है जो एक बैलगाड़ी के नीचे साथ साथ चलते हुए भौंक रहा है और मन ही मन सोच रहा है कि बैलगाड़ी वह चला रहा है।

    देखिये आलोचक साहित्य की रचना नहीं कर रहा, यानि कि वह बैलगाड़ी चला नहीं रहा, मगर भौंक कर चेतावनी दे रहा है ताकि बैल और गाड़ीवान कहीं सो न जाएं।

    तेजेन्द्र शर्मा
    कथा यू.के. लंदन

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  7. शरद जी का स्वागत है............. मेरा मानना है आलोचक भी किसी न किसी प्रभाव से ग्रस्त रहता है जब तक उसे उचित मापदंड या पेरा मीटर्स न दिए जाएँ कविता की आलोचना के लिए, पर सवाल यह उठता है की हर तरह की कविता के लिए एक ही मापदंड काफी है क्या .................... मेरा मानना है की यह प्रक्रिया उतनी आसान नहीं है जितना हम समझ पा रहे हैं......... बिना किसी मापदंड के रचना की आलोचना एक व्यक्तिगत मत हो सकता है उसे आलोचना कहना उचित नहीं है...........

    आलोचना की प्रक्रिया को वैज्ञानिक प्रक्रिया बनाने का प्रयास होना चाहिए........... वो ऑब्जेक्टिव होनी चाहिए न की सब्जेक्टिव
    और आलोचकों को बैठ कर इस विद्या को प्रखर बनाना होगा........

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  8. शरद जी!

    आलोचना, समालोचना, समीक्षा और व्याख्या में मूलतः क्या अंतर पाते हैं?

    क्या किसी रचना के साथ किसी वाद विशेष या विचारधारा विशेष के प्रतिबद्ध रहकर न्याय किया जा सकता है?

    क्या दो परस्पर विरोधी विचार धाराओं का प्रतिपादन करनेवाली दो रचनाओं की समीक्षा के मानक सामान नहीं होंगे?

    यदि हाँ तो क्या वे मानकों के आधार पर श्रेष्ठ या हीन नहीं आंकी जाना चाहिए?

    क्या कोई रचना मानकों पर खरी होने के बाद भी सिर्फ इसलिए हीन कही जाये कि समीक्षक उस में प्रतिपादित विचारधारा से असहमत है?

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  9. बडे बडे प्रश्न आ गये हैं, मैं तो उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। साहित्य शिल्पी पर स्वागत।

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  10. आलोचना एक नाकारात्मक शब्द है शायद इसीलिये इसका प्रभाव नाकारात्मक रहता है.. आलोचना की जगह समीक्षा अधिक जंचता है.

    आलोचना करना आसान नहीं क्योंकि लेखक तुरन्त ही आक्रमक हो कर प्रशन करने लगते हैं.

    सबसे कठिन कार्य है कविताओं की समीक्षा. मुझे बहुत बार ऐसा लगा कि कवि ने जिस विचार और भूमि पर कविता लिखी वह पाठकों तक नहीं पहंचे और उन्होंने उस कविता को किसी और संदर्भ में लिया. यही बात आलोचक पर भी लागू होती है.
    कल्पना और प्रेषणशीलता का पाठकों और आलोचक तक पहुंचना भी इस कडी की सफ़लता का मुख्य आधार रहेगा.

    शरद जी निश्चय ही दोधारी तलवार पर चलने का जोखिम उठा रहे हैं. शरद जी का आभार कि वह अपने अमुल्य समय में से समय निकाल कर इस कार्य को अंजाम दे रहे है.

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  11. शरद जी भले ही आलोचना दो धारी तलवार हो लेकिन सकारात्मक आलोचना जरूरी है। आपके लेखों की प्रतीक्षा रहेगी।

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  12. शरद जी,

    अभिनन्दन.....

    केवल आलोचना नकारात्मक होती है
    लेकिन समालोचना....गुण और दोष दोनों से
    सकारात्मक हो जाती है.....


    समालोचना कई प्रतीक्षा है....

    आभार...

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  13. शरद कोकास द्वारा प्रस्तुत 'काव्यालोचना' निष्पक्ष विचारों के धरातल पर रची गयी कविता की उद्देश्यपूर्ण व्याख्या है. कविता के आत्मनिष्ट एवं वस्तुनिष्ट दोनों पक्षों को ध्यान में रख कर काव्य की गरिमा को बनाए रखने का आह्वान रचनाकारों का मार्गदर्शन करता है. शुक्ल जी, द्विवेदी जी जैसे दिग्गज मनीषियों की परम्परा को आगे बढ़ाने का प्रयास रचनाकारों के समक्ष एक उच्चकोटि का प्रतिमान स्थापित करता है.परन्तु युगबोध बदल चुका है.कल का 'अमर्त्य वीर पुत्र ' आज 'स्लम- डॉग' बन कर अन्तराष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार पा रहा है.'साहित्य - शिल्पी' का प्रयास चमत्कार करे ना करे परिवर्तन अवश्य लाएगा.
    किरण सिन्धु.

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