
छत्तीसगढ़ प्रांत प्राचीन काल से लेकर आज तक नदी-नाले, पहाड़-खाई और वनों की प्राकृतिक सुषमा से परिपूर्ण रहा है। कदाचित् यही कारण है कि यहां की माटी की सोंधी महक कवियों के गीतों में उतर आती है। ऐसे अन्यान्य कवि हुए हैं जिन्होंने यहां की प्राकृतिक सुषमा को रेखांकित करने का प्रयास किया है। कवि पंडित शुकलाल पांडेय ने छत्तीसगढ़ गौरव में ऐसे कवियों की लंबी सूची दी है। उनके गीत की एक बानगी पेश है:-
नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।
बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन।
हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर।
विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद, ब्रज गिरधर।
विश्वनाथ, बिसाहू, उमर नृप लक्षमण छत्तीस कोट कवि।
हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि।।
नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।
बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन।
हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर।
विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद, ब्रज गिरधर।
विश्वनाथ, बिसाहू, उमर नृप लक्षमण छत्तीस कोट कवि।
हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि।।
यों तो छतीसगढ़ में साहित्य साधना राज्याश्रय में पनपती रही है। इसीलिए राजा-महाराजा के गुणगान करना उनके प्रिय विषय रहे हैं। तब प्राचीन छत्तीसगढ़ का साहित्य और साहित्यकार या तो किसी राजा-महाराजा, जमींदार की जागीर थे या उनका सीमित दायरा था या फिर वे बिखरे हुए थे। सन् 1880 में विजयराघवगढ़ के राजकुमार और सुप्रसिद्ध भारतेन्दु युगीन साहित्यकार ठाकुर जगमोहनसिंह रायपुर जिले के धमतरी में तहसीलदार नियुक्त होकर आये। दो वषों में महानदी की उद्गम स्थली सिहावा से लेकर सिरपुर, राजिम आर्क केशकाल घाटी का प्राकृतिक सौंदर्य उनको भा गया। सन 1882 में वे शबरीनारायण में स्थानान्तरित होकर आ गये। तब छत्तीसगढ़ कमिश्नरी का मुख्यालय रायपुर में था। उसके अंतर्गत रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग के अलावा सम्बलपुर जिला सम्मिलित था। प्रशासनिक कार्यवश उन्हें इन स्थानों में अक्सर आना-जाना पड़ता था। यहाँ की प्राकृतिक सुषमा ने उनके कवि मन को जगाया ही नहीं बल्कि उसे समेटने के लिए प्रेरित भी किया। शबरीनारायण जैसे सांस्कृतिक और धार्मिक स्थल के लोग, उनका रहन-सहन और व्यवहार ने उन्हें सज्जनाष्टक ‘आठ सज्जन व्यक्तियों का परिचय’ लिखने को बाध्य किया। भारत जीवन प्रेस, बनारस से सन् 1884 में सज्जनाष्टक प्रकाशित हुआ। वे यहाँ के मालगुजार और पुजारी पंडित यदुनाथ भोगहा से अत्याधिक प्रभावित थे। भोगहा जी के पुत्र मालिकराम भोगहा ने तो ठाकुर जगमोहनसिंह को केवल अपना साहित्यिक गुरू ही नहीं बनाया बल्कि उन्हें अपना सब कुछ समर्पित कर दिया। उनके संरक्षण में भोगहा जी ने हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला, उड़िया और उर्दू साहित्य का अध्ययन किया, अनेक स्थानों की यात्राएं की और प्रबोध चंद्रोदय, रामराज्यवियोग जैसे उत्कृष्ट नाटकों की रचना की जिसका सफलता पूर्वक मंचन भी किया गया। इसी बीच एक ब्राह्मण कन्या से ठाकुर साहब को प्रेम हो गया और फिर उन्हें "श्यामा" नाम से सम्बोधित करके "श्यामालता" और "देवयानी" की रचना की। ये दोनों रचना सन् 1884 में रची गयी और इसे श्यामास्वप्न और श्यामा विनय की भूमिका माना गया। श्यामास्वप्न एक स्वप्न कथा है-एक ऐसी फैन्टेसी जो अपनी चरितार्थता में कार्य-कारण के परिचित रिश्ते को तोड़ती चलती है। देश को काल और फिर काल को देश में बदलती यह स्वप्न कथा ऊपर से भले ही असम्भाव्य संभावनाओं की कथा जान पड़े लेकिन अपनी गहरी व्यंजना में वह संभाव्य असंभावनाओं का अद्भूत संयोजन है। श्यामास्वप्न के मुख पृष्ठ पर कवि ने इसे ‘‘गद्य प्रधान चार खंडों में एक कल्पना‘‘ लिखा है। परन्तु अंग्रेजी में इसे "नावेल" माना है। हालांकि इसमें गद्य और पद्य दोनों में लिखा गया है। लेकिन श्री अम्बिकादत्त व्यास ने इसे गद्य प्रधान माना है। उपन्यास आधुनिक युग का सबसे अधिक महत्वपूर्ण साहित्य रूप है जिसे आधुनिक मुद्रण यंत्र युग की विभूति कह सकते हैं। मध्य युगीन राज्याश्रय में पलने वाले साहित्य में यह सर्वथा भिन्न है। देखिए कवि की एक बानगी:-
मोतिन कैसी मनोहर माल गुहे तुक अच्छर जोरि बनावै।
प्रेम को पंथ कथा हरिनाम की बात अनूठी बनाय सुनावै।
ठाकुर सो कवि भावत मोहि जो राजसभा में बड़प्पन पावै।
पंडित को प्रवीनन को जोइ चित्त हरै सो कवित्त कहावै।
श्यामास्वप्न के सभी चरित्र रीतिकालीन काव्य के विशेष चरित्र हैं। कमलाकांत और श्यामसुंदर अनुकूल नायक हैं। श्यामा मुग्धा अनूठी परकीया नायिका है और वृन्दा उनकी अनूठी सखी है। रचनाकार ने सबको कवि के रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी कविताएं श्रृंगार रस से सराबोर है। इससे इस उपन्यास का वातावरण रीतिकालीन परम्परासम्मत हो गया है और इसका कथानक जटिल बन पड़ता है। कवि स्वयं कहता है:-
बहुत ठौर उन्मत्त काव्य रचि जाको अर्थ कठोरा।
समुझि जात नहिं कैहू भातिन संज्ञा शब्द अथोरा।
सपनो याहि जानि मुहिं छमियो विनवत हौं कर जोरी।
पिंगल छंद अगाध कहाँ मम उथली सी मति मोरी।।
भारतेन्दु कालीन साहित्यकार श्री गोविंद साव के छठवी पीढी के वंशज के रूप में १८ अगस्त, १९५८ को सांस्कृतिक तीर्थ शिवरीनारायण में जन्मे अश्विनी केशरवानी वर्तमान में शासकीय महाविद्यालय, चांपा (छत्तीसगढ़) में प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं।
वे देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में तीन दशक से निबंध, रिपोर्ताज, संस्मरण एवं समीक्षा आदि लिख रहे हैं एवं आकाशवाणी के रायपुर एवं लासपुर केन्द्रों से उनकी अन्यान्य वार्ताओं का प्रसारण भी हुआ है। वे कई पत्रिकाओं के संपादन से भी सम्बद्ध हैं।
अब तक उनकी "पीथमपुर के कालेश्वरनाथ" तथा "शिवरीनारायण : देवालय एवं परम्पराएं" नामक पुस्तकें प्रकाशित हैं और कुछ अन्य शीघ्र प्रकाश्य हैं।
तृतीय और चतुर्थ पहर के स्वप्न में इस प्रकार के उन्मत्त काव्य आवश्यकता से अधिक हैं। प्रथम और द्वितीय पहर के स्वप्न में मुख्य कथा के नायक नायिका का परिचय, उनका एक दिन अचानक आँखें चार होने पर प्रेम का उदय, फिर उसका क्रमश: विकास, प्रेम संदेश और पत्रों का आदान-प्रदान फिर प्रेम निवेदन, अभिसार और अंत में समागम आदि का क्रमिक वर्णन बड़े स्वाभाविक ढंग से कवित्तपूर्ण शैली में किया गया है। इसमें संदेह नहीं कि कमलाकांत और श्यामसुंदर दोनों जगमोहनसिंह के प्रतिबिंब हैं। जो भी हो, उनका संस्कृत और हिन्दी का अध्ययन विस्तृत था। उन्होंने संस्कृत और हिन्दी काव्यों का रस निचोड़कर श्यामास्वप्न में भर देने का प्रयत्न किया है। उनकी रचनाओं में भारतेन्दु हरिश्चंद्र का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। रीतिकालीन अलंकारप्रियता और चमत्कार के स्थान पर भारतेन्दु ने रसात्मकता और स्वाभाविकता को विशेष महत्व दिया, उसी प्रकार ठाकुर जगमोहनसिंह की कविता में भी सरल, सहज स्वाभाविकता और सरलता मिलती है। देखिए एक बानगी:-
अब कौन रहौ मोहि धीर धरावति को लिखि है रस की पतियाँ।
सब कारज धीरज में निबहै निबहै नहिं धीर बिना छतियाँ।
फलिहे कुसमै नहिं कोटि करो तरू केतिक नीर सिंचौ रतियाँ।
जगमोहन वे सपने सी भई सु गई तुअ नेह भरी बतियाँ।।
श्यामास्वप्न और श्यामा विनय को एक साथ लिखने के बाद सन् 1886 में श्यामा सरोजनी और फिर सन् 1889 में प्रलय लिखा। इस प्रकार सन् 1885 से 1889 तक रचना की दृष्टि से उत्कृष्ट काल माना जा सकता है। सन् 1885 में शबरीनारायण में बड़ा पूरा (बाढ़) आया था जिसके प्रलयकारी दृश्यों को उन्होंने "प्रलय" में उकेरा है। प्रलय की एक बानगी कवि के मुख से सुनिये:-
शबरीनारायण सुमरि भाखौ चरित रसाल।
महानदी बूड़ो बड़ो जेठ भयो विकराल।
अस न भयो आगे कबहूं भाखै बूढ़े लोग।
जैसे वारिद वारि भरि ग्राम दियो करि सोग।।
शबरीनारायण ठाकुर जगमोहनसिंह के साहित्यिक जीवन का उत्कृष्ट काल रहा है। यहाँ रहकर उन्होंने छत्तीसगढ़ के बिखरे रचनाकारों को एकत्रित करके उन्हें लेखन की नई दिशा प्रदान की। उन्होंने काशी के भारतेन्दु मंडल की तर्ज में शबरीनारायण में जगमोहन मंडल बनाया। पंडित अनंतराम पांडेय (रायगढ़), पंडित मंदिनीप्रसाद पांडेय (रायगढ़-परसापाली), पंडित पुरूषोत्तम प्रसाद पांडेय (बालपुर), वेदनाथ शर्मा (बलौदा), पंडित हीराराम त्रिपाठी (कसडोल-शबरीनारायण), पंडित मालिकराम भोगहा, गोविंद साव आदि जगमोहन मंडल के सदस्य थे और साहित्यिक साधना के लिए शबरीनारायण में एकत्रित हुआ करते थे। जगमोहनसिंह ने छत्तीसगढ़ के प्राकृतिक सौंदर्य को बखूबी समेटा है। अरपा नदी के बारे में कवि ने लिखा है:-
अरपा सलिल अति विमल विलोल तोर,
सरपा सी चाल बन जामुन ह्वै लहरे।
तरल तरंग उर बाढ़त उमंग भारी,
कारे से करोरन करोर कोटि कहरै।।
सन् 1887 में श्यामा सरोजनी की भूमिका में ठाकुर जगमोहनसिंह ने लिखा है, "श्यामा स्वप्न के पीछे इसी में हाथ लगा और दक्षिण लवण (लवन) के विख्यात् गिरि कंदरा और तुरतुरिया के निर्झरों के तीर इसे रचा। कभी महानदी के तीर को जोगी जिसका शुद्ध नाम योगिनी है, उसके तीर, देवरी, कुम्भकाल अथवा कुंभाकाल जिसका अपभ्रंश नाम कोमकाल है, काला जंगल आदि विकट पर्वतों के निकट मनोहर वनस्थलियों पर इसकी रचना की। प्रकृति की सहायता से सब ठीक बन गया।" बसंत पर कवि ने लिखा है:-
आज बसंत की पंचमी भोर चले बहुं पौन सुगंध झकोरे।
कैलिया आम की डारन बैठि कुहू कुहू बोलि कै अंग मरोरे।।
भोर की भीर झुकी नव मोर पै ऊपर तो झरना झरै जोरे।
प्यारी बिना जगमोहन हाय बयार करेजन कोचै करोरे।।
ठाकुर जगमोहनसिंह हिन्दी के प्रसिद्ध प्रेमी कवियों-रसखान, आलम, घनानंद, बोधा ठाकुर और भारतेन्दु हरिश्चंद्र की परम्परा के अंतिम कवि थे जिन्होंने प्रेममय जीवन जिया और जिनके साहित्य में प्रेम की उत्कृष्ट और स्वाभाविक व्यंजना हुई है। प्रेम को इन्होंने जीवन दर्शन के रूप में स्वीकार किया था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल उनके बारे में लिखते हैं, "प्राचीन संस्कृत साहित्य के अभ्यास और विंध्याटवी के रमणीय प्रदेश में निवास करने के कारण विविध भावमयी प्रकृति के रूप माधुर्य की जैसी सच्ची परख, सच्ची अनुभूति ठाकुर जगमोहनसिंह में थी, वैसी उस काल के किसी हिन्दी कवि या लेखक में नहीं थी। अब तक जिन लेखको की चर्चा हुई है, उनके हृदय में इस भूखंड की रूप माधुरी के प्रति कोई सच्चा प्रेम और कोई संस्कार नहीं था। परम्परा पालन के लिए चाहे प्रकृति का वर्णन उन्होंने किया हो पर वहाँ उनका हृदय नहीं मिलता। अपने हृदय पर अंकित भारतीय ग्राम्य जीवन के माधुर्य का जो संस्कार ठाकुर जगमोहनसिंह ने श्यामास्वप्न में व्यक्त किया है, उसकी सरसता निराली है। बाबू हरिश्चंद्र और पंडित प्रतापनारायण आदि कवियों की दृष्टि और हृदय की पहुंच मानव क्षेत्र तक ही थी, प्रकृति के अपर क्षेत्रों तक नहीं। पर ठाकुर जगमोहनसिंह ने नर क्षेत्र के सौंदर्य को प्रकृति के और क्षेत्रों के सौंदर्य के मेल में देखा है। प्राचीन संस्कृत साहित्य के रूचि संस्कार के साथ भारत भूमि की प्यारी रूपरेखा को मन में बसाने वाले वे पहले हिन्दी के लेखक थे। ठाकुर जगमोहनसिंह अपना परिचय पुस्तकों में कुछ इस प्रकार देते थे:-
सोई विजय सुराघवगढ़ के राज पुत्र वनवासी।
श्री जगमोहन सिंह चरित्र यक गूढ़ कवित्त प्रकासी।।
ठाकुर जगमोहनसिंह का व्यक्तित्व एक शैली का व्यक्तित्व था। उनमें कवि और दार्शनिक का अद्भूत समन्वय था। अपने माधुर्य में पूर्ण होकर उनका गद्य काव्य की परिधि में आ जाता था। उनकी शैली को आगे चलकर चंडीप्रसाद हृदयेश, राजा राधिका रमणसिंह, शिवपूजन सहाय, राय कृष्णदास, वियोगी हरि और एक सीमा तक जयशंकर प्रसाद ने भी अपनाया है।"
इतिहास के पृष्ठों से पता चलता है कि दुर्जनसिंह को मैहर का राज्य पन्ना राजा से पुरस्कार में मिला। उनके मृत्योपरांत उनके दोनों पुत्र क्रमश: विष्णुसिंह को मैहर का राज्य और प्रयागसिंह को कैमोर-भांडेर की पहाड़ी का राज्य देकर ईस्ट इंडिया कंपनी ने दोनों भाइयों का झगड़ा शांत किया। प्रयागसिंह ने तब वहाँ राघव मंदिर स्थापित कर विजयराघवगढ़ की स्थापना की। सन् 1846 में उनकी मृत्यु के समय उनके इकलौते पुत्र सरयूप्रसाद सिंह की आयु मात्र पांच वर्ष थी। इसलिए उनका राज्य कोर्ट आफ वार्ड्स के अधीन कर दिया गया। सरयूप्रसाद ने निर्वासित जीवन व्यतीत करते हुये सन् 1857 में अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष किया। तब उन्हें कालेपानी की सजा सुनायी गयी। लेकिन उन्होंने आत्महत्या कर ली। उस समय उनके पुत्र जगमोहनसिंह की आयु छ: मास थी। अंग्रेजों की देखरेख में उनका लालन पालन और शिक्षा दीक्षा हुई। 9 वर्ष की आयु में उन्हें वार्ड्स इंस्टीट्यूट, कीन्स कालेज, बनारस में आगे की पढ़ाई के लिए दाखिल किया गया। यहाँ उन्होंने 12 वर्षों तक अध्ययन किया। देवयानी में उन्होंने लिखा है:-
रचे अनेक ग्रंथ जिन बालापन में काशीवासी।
द्वादश बरस बिताय चैन सों विद्यारस गुनरासी।।
काशी में ही उनकी मित्रता सुप्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चंद्र से हुई जो जीवन पर्यन्त बनी रही। मूलत: वे कवि थे। आगे चलकर उन्होंने नाटक, अनुवाद, उपन्यास आदि सभी विधाओं पर लिखा। "श्यामा स्वप्न" उनका पहला उपन्यास है जो आज छत्तीसगढ़ राज्य का पहला उपन्यास माना गया है। उनकी पहचान एक अच्छे आलोचक के रूप में भी थी। "ऋतुसंहार" संभवत: उनकी प्रथम प्रकाशित रचना है। "देवयानी" में अपनी पुस्तकों की एक सूची उन्होंने दी है:-
प्रथम पंजिका अंग्रेजी में पुनि पिंगल ग्रंथ बिचारा।
करै भंजिका मान विमानन प्रतिमाक्षर कवि सारा।।
बाल प्रसाद रची जुग पोथी खची प्रेमरस खासी।
दोहा जाल प्रेमरत्नाकर सो न जोग परकासी।।
कालिदास के काव्य मनोहर उल्था किये बिचारा।
रितु संहारहिं, मेघदूत पुनि संभव ईश कुमारा।।
अंत बीसई बरस रच्यो पुनि प्रेमहजारा खासों।
जीवन चरित समलोचन को जो मम प्रान सखा सो।।
सज्जन अष्टक कष्ट माहि में विरच्यौ मति अनुसारी।
प्रेमलता सम्पति बनाई भाई नवरस भारी ।।
एक नाटिका सुई नाम की रची बहुत दिन बीते।
अब अट्ठाइस बरस बीच यह श्यामालता पिरीते।।
श्यामा सुमिरि जगत श्यामामय श्यामाविनय बहोरी।
जल थल नभ तरू पातन श्यामा श्यामा रूप भरोरी।।
देवयानी की कथा नेहमय रची बहुत चित लाई।
श्रमण विलाप साप लौ कीन्हौ तन की ताप मिटाई।।
अंतिम समय में उन्हें प्रमेह रोग हो गया। तब डाक्टरों ने उन्हें जलवायु परिवर्तन की सलाह दी। छ: मास तक वे घूमते रहे। सरकारी नौकरी छोड़ दी और अपने सहपाठी कूचविहार के महाराजा नृपेन्द्रनारायण के आग्रह पर वे स्टेट काउंसिल के मंत्री बने। दो वर्ष तक वहाँ रहे और 4 मार्च सन् 1899 में उनका देहावसान हो गया। उनके निधन से साहित्य जगत को अपूर्णीय क्षति हुई जिसकी भरपायी आज तक संभव नही हो सकी है। लेकिन वे आज मरकर भी जीवित हैं:-
जिसे हो गया आत्म तत्व का ज्ञान,
जीवन मरण उसे है एक समान।
15 टिप्पणियाँ
ठाकुर जगमोहन सिंह तथा छतीसगढ की समृद्ध साहित्यिक विरासत से परिचित कराने के लिये धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसाहित्य शिल्पी का नीयमित पाठक हो कर मैं कभी मायूस नहीं हुआ। एसी दुर्लभ सामग्रियाँ यहाँ प्रस्तुत होती हैं जिन्हे सही मायनों में साहित्य कहा जा सके। अश्विनी जी आभार आपका।
जवाब देंहटाएंNive Article. Thanks.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
शोधपरक और संग्रहणीय आलेख है। आभार अश्विनी जी।
जवाब देंहटाएंछतीसगढ से बहुत परिचय नहीं है लेलिन इस लेख से यह तो कहना होगा कि इस क्षेत्र की अपनी साहित्यिक निधि है। जगमोहन जी के विषय में पढना सुखद अनुभूति थी।
जवाब देंहटाएंमहत्व का आलेख है। साहित्य शिल्पी को धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक तथा अतीत पर गर्व करने को प्रेरित करने वाला आलेख है।
जवाब देंहटाएंअश्विनी केशरवानी जी इतिहास सागर से मोती निकाल लाये हैं।
जवाब देंहटाएंछतीसगढ बहुत समृद्ध मिट्टी है। प्रो. अश्विनी केशरवानी भी एसे ही व्यक्तित्व हैं जिनपर इस मिट्टी को गर्व होगा। प्रस्तुत आलेख के लिये आभार।
जवाब देंहटाएंपठनीय और संग्रहणीय।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा आलेख, बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और ज्ञानवर्धक आलेख! ठाकुर जगमोहन सिंह और उनके साहित्य से परिचय करवाने के लिये आभार!
जवाब देंहटाएंप्रोफ़ेसर अश्विनी जी का अभार कि उन्होंने छत्तीसगढ के प्रवासी रचनाकार की जीवनी से हमें परिचित करवाया.
जवाब देंहटाएंaalekh pathniya hai.
जवाब देंहटाएंnisha
aalekh pathniya hai.
जवाब देंहटाएंnisha
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