
शैफाली 'नायिका' माइक्रोबायोलॉजी में स्नातक हैं।
आपनें वेबदुनिया डॉट कॉम में तीन वर्षों तक उप-सम्पादक के पद पर कार्य किया है। आपने आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के विभिन्न कार्यक्रमों में संचालन भी किया है।
मैं कई सदियों तक जीती रही
तुम्हारे विचारों का घूंघट
अपने सिर पर ओढे,
मैं कई सदियों तक पहने रही
तुम्हारी परम्पराओं का परिधान,
कई सदियों तक सुनती रही
तुम्हारे आदेशों को,
दोहराती रही तुम्हारे कहे शब्द,
कोशिश करती रही तुम जैसा बनने की।
तुम्हारे शहर में निकले चाँद को
पूजती रही चन्द्र देवता के रूप में
बच्चों को सिखाती रही
चँदा मामा कहना।
हर रस्म, हर रिवाज़ को पीठ पर लादे,
मैं चलती रही कई मीलों तक
तुम्हारे साथ........
मगर मैं हार गई.....
मैं हार गई,
मैं रोक नहीं सकी
तुम्हारे विचारों को सिर से उड़ते हुए
और मैं निर्लज्ज कहलाती रही,
मैंने उतार दिया
तुम्हारे परम्पराओं का परिधान
और मैं निर्वस्त्र कहलाती रही,
मैं मूक बधिर-सी गुमसुम–सी खड़ी रही कोने में,
तुम देखते रहे मुझको सबसे जुदा होते हुए।
मैं नहीं बन सकी
तुम्हारे शहर की एक सच्ची नागरिक,
तुम्हारे चन्द्र देवता की चाँदनी
मुझको रातों बहकाती रही,
मैं चुप रही,
खामोश घबराई-सी,
बौखलाई-सी, निर्विचार, संवेदनहीन होकर।
आज मैने उतार कर रख दिए
वो सारे बोझ
जिसे तुमने कर्तव्य बोलकर
डाले थे मेरी पीठ पर
मैं जीती रही बाग़ी बनकर,
तुम देखते रहे खामोश।
और अब जब मैं पहनना चाहती हूँ
आधुनिकता का परिधान,
तुम्हारे ही शहर में
नए विचारों की चुनरिया जब लपेटती हूँ देह पर,
तुम्हें नज़र आती है उसकी पार्दर्शिता।
जब मैं कहती हूँ धीरे से
घबराए शब्दों में अपने जीवन की नई परिभाषा,
चाँद को छूने की हसरत में
जब मैं कोशिश करती हूँ
नई परम्पराओं के पर लगाने की,
समय का हाथ थामे
मैं जब चलना चाहती हूँ
तुम्हारे चेहरे पर उभरा
एक प्रश्न चिह्न शोर मचाता है.....
क्यों?
20 टिप्पणियाँ
आखिर कोई कब तक सहेगा?...कब तक दबेगा?
जवाब देंहटाएंकभी ना कभी तो विद्रोह ने जन्म लेना ही है
तीखे तेवरों से सुसज्जित कविता बहुत बढिया लगी...
बधाई स्वीकार करें
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंयह बयान है वक्त का...बदलाव का...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता है. शैफाली को मेरा शुभाशीष.
जवाब देंहटाएंचन्देल
शेफाली,
जवाब देंहटाएंशानदार कविता के लिये बधाई। विशेष रूप से इन पंक्तियों के लिये;
जब मैं कहती हूँ धीरे से
घबराए शब्दों में अपने जीवन की नई परिभाषा,
चाँद को छूने की हसरत में
जब मैं कोशिश करती हूँ
नई परम्पराओं के पर लगाने की,
समय का हाथ थामे
मैं जब चलना चाहती हूँ
तुम्हारे चेहरे पर उभरा
एक प्रश्न चिह्न शोर मचाता है.....
क्यों?
स्त्री विमर्श पर यह एक अच्छी कविता है शेफाली की। भाव व विचार में उद्वेलित करती है। बधाई !
जवाब देंहटाएंचाँद को छूने की हसरत में
जवाब देंहटाएंजब मैं कोशिश करती हूँ
नई परम्पराओं के पर लगाने की,
समय का हाथ थामे
मैं जब चलना चाहती हूँ
तुम्हारे चेहरे पर उभरा
एक प्रश्न चिह्न शोर मचाता है.....
क्यों? in panktiyon ne jhakjhor kar rakh diya
वाह वाह वाह...
जवाब देंहटाएंकितना सुंदर सच्चा लिखा है...
बहुत अच्छा लगा, दिल को छु सा गया...
जारी रहे...
मीत
aapki kavita padne ke baad panktiyan dundhne me laga hun kya kahun .........
जवाब देंहटाएंbas yahi kah sakta hun bahut khub...............
badhae ho sefali jee.
meri badhae swikar karen
स्त्र्ई संदर्भों पर मेरी पढी सबसे अच्छी कविताओं में एक।
जवाब देंहटाएंजब मैं कहती हूँ धीरे से
जवाब देंहटाएंघबराए शब्दों में अपने जीवन की नई परिभाषा,
चाँद को छूने की हसरत में
जब मैं कोशिश करती हूँ
नई परम्पराओं के पर लगाने की,
समय का हाथ थामे
मैं जब चलना चाहती हूँ
तुम्हारे चेहरे पर उभरा
एक प्रश्न चिह्न शोर मचाता है.....
क्यों?
सशक्त कविता।
शेफाली जी
जवाब देंहटाएंआपकी कविता 'क्यों???' पढी. बहुत अच्छी लगी.अधिकाँश विवाहित नारियों की यही नियति है.परम्पराओं का निर्वाह करते - करते उनका स्व दम तोड़ देता है.आपने अपनी कविता में अस्तित्व को जिंदा रखने की छटपटाहट को व्यक्त किया है.एक अच्छी रचना के लिए बधाई.
किरण सिन्धु.
शेफ़ाली जी,
जवाब देंहटाएंआपकी कविता शिल्प और कथ्य से सशक्त है। एक कवयित्री के रूप में आप बेहद प्रभावित करती हैं।
nahut sahi likha aap ne akhir kab tak saha jaye
जवाब देंहटाएंsunder likha hai
rachana
जब मैं कहती हूँ धीरे से
जवाब देंहटाएंघबराए शब्दों में अपने जीवन की नई परिभाषा,
चाँद को छूने की हसरत में
जब मैं कोशिश करती हूँ
नई परम्पराओं के पर लगाने की,
समय का हाथ थामे
मैं जब चलना चाहती हूँ
तुम्हारे चेहरे पर उभरा
एक प्रश्न चिह्न शोर मचाता है.....
शेफाली जी स्त्री मन की मनो दशा को जिस तरह से आप ने दर्शाने का प्रयाश किया है बहुत ही सुंदर है उसके आगे बढ़ने और बंधन तोड़ने की चाहता को तथा प्रतिस्पर्धा और प्रतिरोध को भी आप ने बखूबी दर्शाया है
मेरी बधाई स्वीकार करे
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084
waah....
जवाब देंहटाएंwaah.....
waah....
जवाब देंहटाएंwaah.....
वक्त और जरूरत के अनुसार हर वस्तु की परिभाषा बदल जाती है. मनोभावों को सुन्दरता से कविता का रूप देने के लिये बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत पीड़ा भरी है...सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंNAMASKAARJI
जवाब देंहटाएंतुम्हारे चेहरे पर उभरा
एक प्रश्न चिह्न शोर मचाता है.....
क्यों?
BAHUT KHUB
BUT ONE PUNJABI SAYING :
"AANA SACH NA BOL KAHLA (AKELA) RAH JAVENGA.
CHAR EK BANDI (AADMI) CHHAD L
KANDHA DEN LAYI.
WAITING FOR REPLY
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