
धराशायी तन , दग्ध , कुटिल अग्नि - वृण से ,
छलनी , तेजस्वी सूर्य - सा , गंगा - पुत्र का ,
गिरा , देख रहे , कुरुक्षेत्र की रण- भूमि में , युधिष्ठिर!
[ युधिष्ठिर] " हा तात ! युद्ध की विभीषिका में ,
तप्त - दग्ध , पीड़ित , लहू चूसते ये बाणोँ का , सघन आवरण ,
तन का रोम रोम - घायल किए ! ये कैसा क्षण है ! "
धर्म -राज , रथ से उतर के , मौन खड़े हैं ,
रूक गया है युद्ध , रवि - अस्ताचलगामी !
आ रहे सभी बांधव , धनुर्धर इसी दिशा में ,
अश्रु अंजलि देने , विकल , दुःख क़तर , तप्त ह्रदय समेटे ।
[ अर्जुन ] " पितामह ! प्रणाम ! क्षमा करें ! धिक् - धिक्कार है !"
गांडीव को उतार, अश्रु पूरित नेत्रों से करता प्रणाम ,
धरा पर झुक गया पार्थ का पुरुषार्थ ,
हताश , हारा तन - मन , मन मंथन
कुरुक्षेत्र के रणाँगण में !
[ भीष्म पितामह ] " आओ पुत्र ! दो शिरस्त्राण,
मेरा सर ऊंचा करो !"
[ अर्जुन ] " जो आज्ञा तात ! "
कह , पाँच तीरों से उठाया शीश
[ भीष्म ] " प्यास लगी है पुत्र , पिला दो जल मुझे "
फ़िर आज्ञा हुई , निशब्द अर्जुन ने शर संधान से , गंगा प्रकट की !
[ श्री कृष्ण ] " हे , वीर गंगा -पुत्र ! जय शांतनु - नंदन की !
सुनो , वीर पांडव , " इच्छा - मृत्यु", इनका वरदान है !
अब उत्तरायण की करेंगें प्रतीक्षा , भीष्म यूँही , लेटे,
बाण शैय्या पर , यूँही , पूर्णाहुति तक ! "
कुरुक - शेत्र के रण मैदान का , ये भी एक सर्ग था !
लावण्या शाह सुप्रसिद्ध कवि स्व० श्री नरेन्द्र शर्मा जी की सुपुत्री हैं और वर्तमान में अमेरिका में रह कर अपने पिता से प्राप्त काव्य-परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं।
समाजशा्स्त्र और मनोविज्ञान में बी.ए.(आनर्स) की उपाधि प्राप्त लावण्या जी प्रसिद्ध पौराणिक धारावाहिक "महाभारत" के लिये कुछ दोहे भी लिख चुकी हैं। इनकी कुछ रचनायें और स्व० नरेन्द्र शर्मा और स्वर-साम्राज्ञी लता मंगेसकर से जुड़े संस्मरण रेडियो से भी प्रसारित हो चुके हैं।
इनकी एक पुस्तक "फिर गा उठा प्रवासी" प्रकाशित हो चुकी है जो इन्होंने अपने पिता जी की प्रसिद्ध कृति "प्रवासी के गीत" को श्रद्धांजलि देते हुये लिखी है।
समाजशा्स्त्र और मनोविज्ञान में बी.ए.(आनर्स) की उपाधि प्राप्त लावण्या जी प्रसिद्ध पौराणिक धारावाहिक "महाभारत" के लिये कुछ दोहे भी लिख चुकी हैं। इनकी कुछ रचनायें और स्व० नरेन्द्र शर्मा और स्वर-साम्राज्ञी लता मंगेसकर से जुड़े संस्मरण रेडियो से भी प्रसारित हो चुके हैं।
इनकी एक पुस्तक "फिर गा उठा प्रवासी" प्रकाशित हो चुकी है जो इन्होंने अपने पिता जी की प्रसिद्ध कृति "प्रवासी के गीत" को श्रद्धांजलि देते हुये लिखी है।
12 टिप्पणियाँ
लावण्या जी की यह कविता एक लघु-नाटिका के जैसी है। अनूठी शैली में बहुत अच्छी रचना।
जवाब देंहटाएंनयी तरह की लगी यह कविता।
जवाब देंहटाएंकविता में शिल्प की खूब सूरती भी है और भाव की गहरायी भी। एसी कविता जो बार बार पढी जा सकती है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता है, बधाई।
जवाब देंहटाएंबाण शैय्या पर , यूँही , पूर्णाहुति तक ! "
जवाब देंहटाएंकुरुक - शेत्र के रण मैदान का , ये भी एक सर्ग था ! ye pankatiyan kafi kuchh kah gayi
JAESE UTTAM BHAAV VAESEE UTTAM
जवाब देंहटाएंBHASHA.LAVANYA JEE,AAPKE KAVITA
NE MUN KEE SITAAR KE TAAR JHANKRIT
KAR DIYE HAI.BAHUT BADHAAEE.
अनुपम............. लाजवाब उतारा है इस चित्र को कलम से.........
जवाब देंहटाएंलावण्या जी की रचनाओं की सौन्दर्य-विधायानी अद्भुत कवित्व-शक्ति, कल्पना-चातुर्य की सराहना करते हुए मुझे बहुत प्रसन्नता होती है. 'इच्छा मृत्यु' की अनुपम शब्द-योजना पढ़ते ही आनंद-विभोर हो उठा. कुरुक-क्षेत्र के रण मैदान के इस सर्ग को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है. बधाई.
जवाब देंहटाएंअद्भुत!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर कविता
जवाब देंहटाएंबधाई
सादर
प्रवीण पथिक
लीक से हट कर...अनूठी भाषा व शैली की रचना..
जवाब देंहटाएंमहाभारत के पात्रों के मन के भाव प्रकट करती सशक्त रचना.
इस कविता का लिंक आज ही देखा !
जवाब देंहटाएं-- देर से धन्यवाद ज्ञापन करने के लिए
साहित्य शिल्पी के मंच पर पधारे सभी
भाई बहनों की आभारी हूँ और क्षमाप्रार्थी भी ...
मेरे प्रयास को पसंद करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
स स्नेह, सादर,
- लावण्या
आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.