
विश्वदीपक ’तन्हा’ का जन्म बिहार के सोनपुर में २२ फरवरी १९८६ को हुआ था। आप कक्षा आठवीं से कविता लिख रहे हैं।
बारहवीं के बाद आपका नामांकन भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान खड़गपुर के संगणक विज्ञान एवं अभियांत्रिकी विभाग में हो गया। अंतरजाल पर कुछ सुधि पाठकगण और कुछ प्रेरणास्रोत मित्रों को पाकर आपकी लेखनी क्रियाशील है।
मैं अब भी वहीं उलझा हूँ,
शहतूत की डाल से
रेशम के कीड़े उतारकर
बंजर हथेली को सुपूर्द किए
महीनों हो गए,
तब से अब तक
न जाने कितनी हीं
पीढियाँ आईं-गईं,
कितने अंडे लार्वा में तब्दील हुए,
कितने हीं प्युपाओं के अंदर का लावा
खजुराहो की मूर्त्तियों तक
उफ़न-उफ़न कर
शांत हुआ
या ना भी हुआ,
कितनों ने औरों के हुनर से
रश्क कर
लार टपकाया तो
कितनों ने लार गटका,
मजे की बात यह है कि
इंसान का लार हो तो
एक "आने" को भी तरस जाए,
लेकिन
जिस लार से रिश्ते सिल जाएँ,
उसके क्या कहने!
हाँ तो, न जाने कितनों ने
कितनों के हीं इश्क से
रश्क किया,
फिर भी
कईयों ने इश्क किया
और मैं
चुपचाप तकता रहा,
सीधी हथेली किए
उन लारों को बटोरता रहा,
जिसे श्लील भाषा में रेशम कहते हैं;
मौसम आए गए
कितनों के मौसम बदले,
लेकिन
न मेरी लकीरें हीं रेशम की हो सकीं
और न मेरा
इश्क हीं रेशमी...
मैं
शहतूत के पत्तों की भांति
ठिठका रहा,
सुबकता रहा
और
किस्मत का लेखा देखिए कि
अब भी
बिन कारण वहीं उलझा हूँ,
शायद अब भी उम्मीद दम ले रही है।
11 टिप्पणियाँ
इंसान का लार हो तो
जवाब देंहटाएंएक "आने" को भी तरस जाए,
लेकिन
जिस लार से रिश्ते सिल जाएँ,
उसके क्या कहने!
बहुत दिनों बाद साहित्य शिल्पी पर बहुत अच्छी रचना।
Bhavpoorn rachna...
जवाब देंहटाएंविश्वदीपक तनहा अपने नवीन बिम्बों के लिये जाने जाते हैं। उनकी यह कविता भी सही मायनों में आधुनिक है। काव्य की सरसता भी है और बिम्बों की नवीनता के कारण रचना आकर्षित करती है।
जवाब देंहटाएंविश्वदीपक तनहा का मैं हमेशा ही से बडा प्रशंसक रहा हूँ।
मौसम आए गए
जवाब देंहटाएंकितनों के मौसम बदले,
लेकिन
न मेरी लकीरें हीं रेशम की हो सकीं
और न मेरा
इश्क हीं रेशमी...
तनहा जी कविता दा जवाब नहीं।
HRIDAY KO SPARSH KARTEE HUEE EK
जवाब देंहटाएंSUNDAR KAVITA HAI.BADHAAEE.
बहुत अच्छी कविता है तनहा जी, बधाई।
जवाब देंहटाएंbadhaai
जवाब देंहटाएंdil se badhaai !
bahut behtreen rachna hai bhadhayi hoo
जवाब देंहटाएंbahut sundar kavita ke liye badhai sweeakr karen..
जवाब देंहटाएंभाषा की बानगी और कविता में कहन का ढ़ंग विश्वदीपक "तनहा" की रचना को प्रभावशाली बनाते हैं। विषय-वस्तु की संप्रेषणीयता को उन्हें और मांजना होगा क्योंकि हर बार बिम्ब वस्तु के रूपाकार को सहजता से पाठक के समक्ष उपस्थित नहीं कर पाते वहाँ कवि को रचते वक्त वको-ध्यान रखना पड़ता है।।फिर भी आज खराब लिखी जा रही कविता के दौर में तनहा की इस रचना की तारीफ़ करनी होगी।
जवाब देंहटाएंइस रचना को पसंद करने के लिए सभी मित्रों का तहे-दिल से शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंसुशील जी! आपने जो भी कहा है, मैं विश्वास दिलाता हूँ कि आगे से उसपर जरूर ध्यान दूँगा।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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