
सुशील कुमार का जन्म 13 सितम्बर, 1964 को पटना में हुआ किंतु पिछले तेईस वर्षों से दुमका (झारखण्ड) में निवास कर रहे हैं।
शिक्षा :- बी०ए०, बी०एड० (पटना विश्वविद्यालय)
सम्प्रति : घर के हालात ठीक नहीं होने के कारण पहले प्राइवेट ट्यूशन, फिर बैंक की नौकरी की| 1996 में लोकसेवा आयोग की परीक्षा उत्तीर्ण कर राज्य शिक्षा सेवा में संप्रति +२ जिला स्कूल चाईबासा में प्राचार्य के पद पर
प्रकाशन: हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में लिखने-पढ़ने में गहरी रुचि. कविताएँ-आलेख इत्यादि कई प्रमुख पत्रिकाओं, स्तरीय वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित ।
शिक्षा :- बी०ए०, बी०एड० (पटना विश्वविद्यालय)
सम्प्रति : घर के हालात ठीक नहीं होने के कारण पहले प्राइवेट ट्यूशन, फिर बैंक की नौकरी की| 1996 में लोकसेवा आयोग की परीक्षा उत्तीर्ण कर राज्य शिक्षा सेवा में संप्रति +२ जिला स्कूल चाईबासा में प्राचार्य के पद पर
प्रकाशन: हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में लिखने-पढ़ने में गहरी रुचि. कविताएँ-आलेख इत्यादि कई प्रमुख पत्रिकाओं, स्तरीय वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित ।
भरी दुपहरी है जेठ की, घाटी में
जन-जानवर दीख नहीं रहे कहीं
न पक्षियों की चहचहाहटें ही सुनता हूँ
झाड़-जंगल झूलस गये हैं जंगल-जीव
पानी बिन हाँफ रहे हैं,
परिंदे दम मार रहे हैं
कुँआ, चहबच्चे, जोड़िया,
तालाब सब सूख गये हैं
नदी-पनाले-डबरे रेत से पट गये हैं
तालाब सब सूख गये हैं
नदी-पनाले-डबरे रेत से पट गये हैं
सामने सड़क पर पिघले कोलतार पसरे हैं
जहाँ टायरों के निशान बनातीं
उदास मौन को भेदती बसें बीच-बीच में
हॉर्न बजाती तेज गति से
घाटियों को पार कर रही हैं
या फिर नक्सलियों के शिनॉख्त पर जाती
पुलिस की गाड़ियों की घर्घराहटों
से ही जब-तब घाटियों की नीरवता टूट रही है
जहाँ टायरों के निशान बनातीं
उदास मौन को भेदती बसें बीच-बीच में
हॉर्न बजाती तेज गति से
घाटियों को पार कर रही हैं
या फिर नक्सलियों के शिनॉख्त पर जाती
पुलिस की गाड़ियों की घर्घराहटों
से ही जब-तब घाटियों की नीरवता टूट रही है
जी हाँ, यह बंदगाँव की विकराल घाटियाँ हैं
कभी जगंलों का सुरम्य प्रदेश रही
ये घाटियाँ अब नक्सलियों के वास-स्थल हैं
बीस कोस लम्बी और बीहड़, सुनसान
और जिलेबीनुमा घाटियाँ-दर-घाटियाँ
कभी जगंलों का सुरम्य प्रदेश रही
ये घाटियाँ अब नक्सलियों के वास-स्थल हैं
बीस कोस लम्बी और बीहड़, सुनसान
और जिलेबीनुमा घाटियाँ-दर-घाटियाँ
जब-तब रेत के चक्रवात
उठ रहे हैं यत्र-तत्र यहाँ
डोगरों में टाड़ों पर
झरना का सोता भी सूख गया है
और प्यास से कई मौतें हो चुकी हैं
अब तक इस इलाके में
उठ रहे हैं यत्र-तत्र यहाँ
डोगरों में टाड़ों पर
झरना का सोता भी सूख गया है
और प्यास से कई मौतें हो चुकी हैं
अब तक इस इलाके में
जहाँ-तहाँ बसें रुकती हैं
पहाड़ी औरतें अपनी गिदरे* को
पीठ से बाँधे सवार होती हैं
बसें खचाखच भरी होती हैं
जितने बैठी होती हैं ये
उतने ही खड़ी होती हैं
और हिचकोलें खाती हुई
घाटियों के टेढ़े-मेढ़े रास्ते
तय करती हैं
पहाड़ी औरतें अपनी गिदरे* को
पीठ से बाँधे सवार होती हैं
बसें खचाखच भरी होती हैं
जितने बैठी होती हैं ये
उतने ही खड़ी होती हैं
और हिचकोलें खाती हुई
घाटियों के टेढ़े-मेढ़े रास्ते
तय करती हैं
पहाड़ तो पहले ही बहुत दु:खी है,
इसके सीने में उत्पीड़न की न जाने
कितनी कहानियाँ दफ़न हैं!
इसके सीने में उत्पीड़न की न जाने
कितनी कहानियाँ दफ़न हैं!
पर यह गर्मी तो घाटी के लोगों में और ही
बर्बादी का सबब लेकर आया है!
जंगल तो पहले ही नेस्तनाबूद हो गये
जड़ीबूटी,फलमूल, महुआ भी ओराने लगे हैं
भूख का जलजला आ गया है
घाटी की बस्तियों में
बर्बादी का सबब लेकर आया है!
जंगल तो पहले ही नेस्तनाबूद हो गये
जड़ीबूटी,फलमूल, महुआ भी ओराने लगे हैं
भूख का जलजला आ गया है
घाटी की बस्तियों में
न जंगल न धान न बरबट्टी न पानी
काम की खोज में घाटी से पहाड़ी
मजदूरिन शहर को कूच कर रही हैं
काम की खोज में घाटी से पहाड़ी
मजदूरिन शहर को कूच कर रही हैं
यह कैसा मंजर है कि
शहर के बाबु और महाजन
सरकार और प्रतिपक्ष के लोग
दल-बल के साथ
घाटी में अपनी योजनाएँ लेकर
पहूँच रहे हैं चिल्ला रहे हैं
नोट पर वोट का खेल खेल रहे हैं
जबकि गाँव और टोलों के लोग
अपनी इज्जत अपनी जान बचाकर
घाटी को छोड़कर कहीं और जा रहे हैं!
-----------
गिदरे* = संतान
* * * * *
शहर के बाबु और महाजन
सरकार और प्रतिपक्ष के लोग
दल-बल के साथ
घाटी में अपनी योजनाएँ लेकर
पहूँच रहे हैं चिल्ला रहे हैं
नोट पर वोट का खेल खेल रहे हैं
जबकि गाँव और टोलों के लोग
अपनी इज्जत अपनी जान बचाकर
घाटी को छोड़कर कहीं और जा रहे हैं!
-----------
गिदरे* = संतान
* * * * *
31 टिप्पणियाँ
सुशील कुमार जी आपको साहित्य शिल्पी पर पुन: पा कर सबसे अधिक प्रसन्नता मुझे हो रही है, यकीन मानिये। आप समर्थ कवि हैं और आपकी कविता प्रभाव छोडती ही है। अपनी रचनाधर्मिता के प्रति आप ईमानदार हैं और विषय की पूरी जानकारी से तथा विचारधारा के पक्केपन से आप लिखते हैं। समालोचना पर आपसे मेरे मतभेद के बाद भी यह मानिये कि मैं आपका बहुत बडा प्रसंशक भी हूँ।
जवाब देंहटाएंयह कैसा मंजर है कि
जवाब देंहटाएंशहर के बाबु और महाजन
सरकार और प्रतिपक्ष के लोग
दल-बल के साथ
घाटी में अपनी योजनाएँ लेकर
पहूँच रहे हैं चिल्ला रहे हैं
नोट पर वोट का खेल खेल रहे हैं
जबकि गाँव और टोलों के लोग
अपनी इज्जत अपनी जान बचाकर
घाटी को छोड़कर कहीं और जा रहे हैं!
सशक्त कविता, गंभीर सवाल उठाया है।
सुशील जी बहुत अच्छी कविता है। दृश्य उभर आया।
जवाब देंहटाएंहमारा सिस्टम भी दोषी है और सिस्टम के खिलाफ लडने का दावा करने वाले लोग भी दोषी हैं। इन दोनों के बीच पिसती जिन्दगियों को आपने आवाज दी है।
जवाब देंहटाएंNice poem.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
सहित्य शिल्पी पर आपका फिर से स्वागत है...
जवाब देंहटाएंअसरदार कविता
कविता के महारथी
जवाब देंहटाएंसरकार कोई भी हो
पर कविता सभी असरदार
कहीं आप ही तो नहीं हैं
कविताओं के सरदार।
सुशील जी आपकी कमी तो खल रही थी। आपका आपके ही मंच पर फिर से स्वागत। बहुत प्रभावित किया इस कविता नें। जमीन से जुडे व्यक्ति ही एसी कविता लिख सकते हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविता, बधाई।
जवाब देंहटाएंभाषा शिल्प और भाव हर दृष्टि से परिपूर्ण कविता।
जवाब देंहटाएंसुशील जी,
जवाब देंहटाएंसाहित्य शिल्पी पर एक बार फ़िर से आपका स्वागत है. मैं यह मानता हूं कि किसी भी विचारधारा से जुडा होना इस बात का द्योतक है उसे करीब से देखा, जाना व भुगता गया है. आपकी कविता आम आदमी के दिल की बात कहती है..गरीबों और मजलूमों का उत्पीडन सिर्फ़ उसी घाटी में नहीं हो रहा जिसका आपने जिक्र किया है.. यह तो हर नुक्क्ड पर चाहे गांव का हो या शहर का.. हो रहा है..
एक सशक्त कविता के लिये बधाई
कविता में गहरायी है। कवि को परिवेश की समझ है।
जवाब देंहटाएंसुशील भाई दृश्य बनाने में माहिर कवि हैं और उन की चित्रात्मक शैली उन के अनुभव से और उन की अपने परिवेश की अनुभूति से पनपती है | विशेष तौर पर पहाडों पर लिखी उन की कवितायेँ मुझे बहुत पसंद आती हैं |
जवाब देंहटाएंये कविता भी पहाडो के और वहाँ के वासियों के दर्द को बड़ी ही गहराई से बयान करती है | बंदगाँव के बदलते हालातों को खूबसूरती ( सुन्दरता यहाँ शिल्प में देख रहा हूँ हालातों में नहीं ) से उकेरा है और एक दृश्य उभर कर सामने आ जाता है |
मेरी घृष्टता के लिए मुझे क्षमा करें पर कहीं कहीं वर्णन
हल्का सा सपाट होता दीखता है और उसमें रस नहीं महसूस होता .. बस वर्णन ही दीखता है .. मेरी मालूमात कम है , क्या इसी को गद्य कविता कहते हैं ? मैंने सोचा जो पसंद नहीं आया वो भी लिखा जाए | :-)
SAHITYA SHILPI PAR AAPKO PHIR SE
जवाब देंहटाएंDEKHKAR SUKHAD LAG RAHAA HAI.BHAI,
EK BAAT AAPKO BATATA HOON MAIN KI
AAP BHALE HEE SAHIYA SHILPI SE
KAEE MAHEENON TAK GAAYAB RAHE LEKIN
HMARE DILON SE GAAYAB NAHIN HUE.
AAPKAA AUR AAPKEE STARIY KAVITA KAA
HARDIK ABHINANDAN.
दृश्य इस तरह खिच गया कि अपनी तरफ से कविता में कोई बात कहने की जरूरत न रही।
जवाब देंहटाएंशहर के बाबु और महाजन
जवाब देंहटाएंसरकार और प्रतिपक्ष के लोग
दल-बल के साथ
घाटी में अपनी योजनाएँ लेकर
पहूँच रहे हैं चिल्ला रहे हैं
नोट पर वोट का खेल खेल रहे हैं
जबकि गाँव और टोलों के लोग
अपनी इज्जत अपनी जान बचाकर
घाटी को छोड़कर कहीं और जा रहे हैं!
सशक्त अभिव्यक्ति।
मैं आप सभी के प्यार का कायल हूँ। आज मेरे यहाँ पिछले चौबीस घंटे से नेट फेल था। मुझे अभी शाम के सात बजे जी-मेल खोलने से पता चला कि साहित्यशिल्पी पर आज मेरी कविता लगी है। दरअसल यह कविता मैंने चाईबासा में रहते हुए हाल में ही लिखी है। चाईबासा से राँची पहुचने के लिये 140 कि.मी. का पहाड़ी रास्ता है जिसका लगभग 31 कि. मी. का हिस्सा सर्पिल है जिसे बंदगाँव की घाटी के नाम से जाना जाता है। अत: जब भी मेरा रांची जाना होता है तो बंदगांव की इन घाटियों से गुजरना होता है। इसलिये इस पर कविता लिखे बिना मैं रह नहीं पाया।
जवाब देंहटाएंदूसरी बात यह कि यह कविता कि यह कविता आठ छोटे-छोटे खंडों में गैप देकर लिखी गयी है। कविता में खाली स्थान यानी गैप का भी बहुत महत्व है पर छापते समय इसका ध्यान नहीं रख गया है। अगर यह कविता उस गैप के साथ छापी जाती जैसा कि मैने लिखा है तो ज्यादा प्रभावी होती देखिये इस तरह - -
बंदगाँव की निर्मम घाटियाँ
भरी दुपहरी है जेठ की, घाटी में
जन-जानवर दीख नहीं रहे कहीं
न पक्षियों की चहचहाहटें ही सुनता हूँ
झाड़-जंगल झूलस गये हैं जंगल-जीव
पानी बिन हाँफ रहे हैं,
परिंदे दम मार रहे हैं
कुँआ, चहबच्चे, जोड़िया, तालाब सब सूख गये हैं
नदी-पनाले-डबरे रेत से पट गये हैं
सामने सड़क पर पिघले कोलतार पसरे हैं
जहाँ टायरों के निशान बनातीं
उदास मौन को भेदती बसें बीच-बीच में
हॉर्न बजाती तेज गति से
घाटियों को पार कर रही हैं
या फिर नक्सलियों के शिनॉख्त पर जाती
पुलिस की गाड़ियों की घर्घराहटों
से ही जब-तब घाटियों की नीरवता टूट रही है
जी हाँ, यह बंदगाँव की विकराल घाटियाँ हैं
कभी जगंलों का सुरम्य प्रदेश रही
ये घाटियाँ अब नक्सलियों के वास-स्थल हैं
बीस कोस लम्बी और बीहड़, सुनसान
और जिलेबीनुमा घाटियाँ-दर-घाटियाँ
जब-तब रेत के चक्रवात
उठ रहे हैं यत्र-तत्र यहाँ
डोगरों में टाड़ों पर
झरना का सोता भी सूख गया है
और प्यास से कई मौतें हो चुकी हैं
अब तक इस इलाके में
हाँ-तहाँ बसें रुकती हैं
पहाड़ी औरतें अपनी गिदरे* को
पीठ से बाँधे सवार होती हैं
बसें खचाखच भरी होती हैं
जितने बैठी होती हैं ये
उतने ही खड़ी होती हैं
और हिचकोलें खाती हुई
घाटियों के टेढ़े-मेढ़े रास्ते
तय करती हैं
पहाड़ तो पहले ही बहुत दु:खी है,
इसके सीने में उत्पीड़न की न जाने
कितनी कहानियाँ दफ़न हैं!
पर यह गर्मी तो घाटी के लोगों में और ही
बर्बादी का सबब लेकर आया है!
जंगल तो पहले ही नेस्तनाबूद हो गये
जड़ीबूटी,फलमूल, महुआ भी ओराने लगे हैं
भूख का जलजला आ गया है
घाटी की बस्तियों में
न जंगल न धान न बरबट्टी न पानी
काम की खोज में घाटी से पहाड़ी
मजदूरिन शहर को कूच कर रही हैं
यह कैसा मंजर है कि
शहर के बाबु और महाजन
सरकार और प्रतिपक्ष के लोग
दल-बल के साथ
घाटी में अपनी योजनाएँ लेकर
पहूँच रहे हैं चिल्ला रहे हैं
नोट पर वोट का खेल खेल रहे हैं
जबकि गाँव और टोलों के लोग
अपनी इज्जत अपनी जान बचाकर
घाटी को छोड़कर कहीं और जा रहे है!
गिदरे* = संतान
* * * * *
सुशील जी बहोत ही खुबसूरत कविता आपने लिखी है , झारखंड की पूरी दृश्य आपने उभार के रख दिया... कुछ साल मैं भी झारखण्ड में रहा हूँ तो उसके वातावरण से वाकिफ हूँ ,कविता में बहोत ही सरल शब्दों का चयन करके आपने इसे और खुबसूरत बना दिया है ....बहोत बहोत बधाई आपको...
जवाब देंहटाएंअर्श
vishv ki sabse achchhi rachna bdhai!!!!!
जवाब देंहटाएंमेरी शिकायत पर गौर फ़रमाकर ‘साहित्यशिल्पी’ ने तुरन्त गैप यानी खाली जगह के साथ कविता लगा दी है। धन्यवाद। दरअसल जी-मेल पर तकनीकी दिक्कतों के कारण वह ‘साहित्यशिल्पी’ को बिना गैप के ही प्राप्त हुई थी,यह राजीव रंजन प्रसाद जी से फोन वार्ता से स्पष्ट हुआ।
जवाब देंहटाएंसशक्त अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंमौलिक सवालों को उठाते शब्द
Sushil ji aapki kavita itni sajeev hoti hai ki man un paristhithi mein savaym pahunch jata hai
जवाब देंहटाएंkhas kar ye panktiyan
जहाँ-तहाँ बसें रुकती हैं
पहाड़ी औरतें अपनी गिदरे* को
पीठ से बाँधे सवार होती हैं
बसें खचाखच भरी होती हैं
जितने बैठी होती हैं ये
उतने ही खड़ी होती हैं
और हिचकोलें खाती हुई
घाटियों के टेढ़े-मेढ़े रास्ते
तय करती हैं
aankhon dekha haal bata rahi hai
आदिवासियों के मन की पीडा को उकेरती .. गजब की रचना है .. शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंपहाड़ तो पहले ही बहुत दु:खी है,
जवाब देंहटाएंइसके सीने में उत्पीड़न की न जाने
कितनी कहानियाँ दफ़न हैं!
वाह भाई, तबियत खुश हो गयी...लेकिन भयावह
दश्य,अशुभ समय का आगज है... आपको बधाई..शुभकामनाएं..
जंगल-झाड़-पहाड़ की अप्रतिम गाथा। बधाई।- अशोक सिंह, दुमका।
जवाब देंहटाएंA realistic story of hilly life in poem.Thanks.
जवाब देंहटाएंझारखँड / बंदगांव मेँ बढती हुई विषम परिस्थितियोँ के बारे मेँ
जवाब देंहटाएंआज एक और आलेख पढा
आपकी कविता ने
सच बयान किया है
केन्द्रीय सरकार ,
सो रही है क्या ?
:-(
- लावण्या
पर्वतों और पठारों की खूबसूरती तब तक जीवित है जबतक उनके मूल बाशिंदे के जीवन में गति हो.
जवाब देंहटाएंउनके दुखो से परे हटकर विकास की बाते बेमानी है.
- Hindi Poetry & Ghazal - यादों का इंद्रजाल
सुशील जी,
जवाब देंहटाएंआपकी कवितायें यथार्थ से प्रेरित होती हैं और किसी भी पाठक के दिल तक पहूँचती हैं।
नक्सली समस्या के साथ शहर पलायन और सरकार का गाँव तक आना, खूब लिखा है।
आपके फोन नम्बर तो मिल गये हैं पर लगता नही है।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
kavita achchhi hai
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक और मार्मिक चित्रण किया है आपने। सोचने को मजबूर हो गया।
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.