
जैसा कि हम हिन्दी साहित्य के इतिहास के पिछले अंकों में कह चुके हैं कि निर्गुण भक्ति धारा में दो उपभेद हैं – ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी भक्ति। ज्ञानाश्रयी भक्ति धारा के मुख्य संतों के विषय में हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं। निर्गुण भक्ति धारा की दूसरी शाखा उन संतों की है जो ईश्वर को प्रेमस्वरूप समझ कर मानवमात्र से प्रेम पर जोर देते हैं। भक्ति की इस धारा में प्रमुख रूप से मुस्लिम धर्म को मानने वाले सूफ़ी फ़कीर आते हैं, यद्यपि इनके अनुयायियों में हिन्दुओं की भी एक अच्छी खासी तादाद है।
ज्ञानाश्रयी संतों के मुक्तकों के विपरीत इनकी रचनायें विशुद्ध साहित्य के अधिक निकट हैं। अपनी रचनाओं में इन्होंने मानवीय प्रेम के माध्यम से ईश्वर-प्रेम का रूपक बाँधा है। प्रेमी-प्रेमिका के भौतिक प्रेम के वर्णन के बीच में स्थान-स्थान पर ईश्वर प्रेम की ओर भी मधुर संकेत इनकी रचनाओं में मिलते हैं। ज्ञानमार्गियों के यहाँ ऐसे संकेत साधनात्मक रहस्यवाद के प्रतीकों नाद, बिंदु, सुषुम्ना आदि के माध्यम से मिलते हैं जबकि सूफ़ी साहित्य में ये सामान्य जीवन और प्रकृति से जुड़कर और स्वाभाविक ढंग से आते हैं।
अधिकांश सूफ़ी कवियों ने अपनी रचनाओं में अवधी का इस्तेमाल किया है और दोहे-चौपाइयों की शैली का अनुकरण किया है। कथानक के रूप में भी इन्होंने क्षेत्र में चली आती लोक-कथाओं को ही चुना है और उन्हें अपनी भावपूर्ण अनुभूति देकर और भी जीवंत रूप में प्रस्तुत किया है।
ज्ञानाश्रयी संतों के मुक्तकों के विपरीत इनकी रचनायें विशुद्ध साहित्य के अधिक निकट हैं। अपनी रचनाओं में इन्होंने मानवीय प्रेम के माध्यम से ईश्वर-प्रेम का रूपक बाँधा है। प्रेमी-प्रेमिका के भौतिक प्रेम के वर्णन के बीच में स्थान-स्थान पर ईश्वर प्रेम की ओर भी मधुर संकेत इनकी रचनाओं में मिलते हैं। ज्ञानमार्गियों के यहाँ ऐसे संकेत साधनात्मक रहस्यवाद के प्रतीकों नाद, बिंदु, सुषुम्ना आदि के माध्यम से मिलते हैं जबकि सूफ़ी साहित्य में ये सामान्य जीवन और प्रकृति से जुड़कर और स्वाभाविक ढंग से आते हैं।
अधिकांश सूफ़ी कवियों ने अपनी रचनाओं में अवधी का इस्तेमाल किया है और दोहे-चौपाइयों की शैली का अनुकरण किया है। कथानक के रूप में भी इन्होंने क्षेत्र में चली आती लोक-कथाओं को ही चुना है और उन्हें अपनी भावपूर्ण अनुभूति देकर और भी जीवंत रूप में प्रस्तुत किया है।
अजय यादव अंतर्जाल पर सक्रिय हैं तथा आपकी रचनायें कई प्रमुख अंतर्जाल पत्रिकाओं पर प्रकाशित हैं।
आप साहित्य शिल्पी के संचालक सदस्यों में हैं।
विशुद्ध प्रेममार्गी कवियों की श्रेणी में मुख्यत: कुतुबन, मंझन और मलिक मोहम्मद जायसी का नाम आता है। इनके अतिरिक्त भी अनेक सूफ़ी फ़कीरों ने अपनी रचनाओं से लोक में उस प्रेमास्पद के नाम का प्रकाश फैलाया पर जो प्रसिद्धि इन तीनों की रचनाओं क्रमश: मृगावती, मधुमालती और पद्मावत को मिली, वह किसी और को नहीं मिल पाई।
कुतुबन: जौनपुर के बादशाह के आश्रित कवि कुतुबन चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य थे। इन्होंने ९०९ हिज़री (सन १४९५-९६) में मृगावती की रचना की जो कि इस काव्य परंपरा का पहला प्रसिद्ध काव्य है। इस में उन्होंने चंद्रनगर नामक राज्य के राजकुमार और कंचनपुर की राजकुमारी मृगावती की प्रेम-कहानी का वर्णन किया है। कहानी के बीच में स्थान-स्थान पर भावात्मक रहस्यवाद की ओर बड़े सुंदर संकेत हैं। रचना की भाषा पूर्वी हिंदी या अवधी है और पूरी रचना में पाँच चौपाइयों के बाद एक दोहे की पद्धति का अनुसरण किया गया है।
मंझन: इनके जीवन के विषय में कुछ ज्ञात नहीं है। रचना के रूप में भी मधुमालती नामक काव्य की एक खंडित प्रति ही प्राप्त हुई है। परंतु यह खंडित प्रति भी इनके रचना-कौशल को पूर्ण रूप से प्रकट करने में समर्थ है। मधुमालती का काव्य सौष्ठव मृगावती की तुलना में श्रेष्ठ और अधिक भावपूर्ण है। कथानक भी अधिक विस्तृत और पेचीदा है। नायक-नायिका के साथ-साथ इसमें कवि ने उपनायक और उपनायिका का भी विधान किया है और उनके माध्यम से निस्वार्थ प्रेम व बंधुत्व का चित्र प्रस्तुत किया है। पशु-पक्षियों में भी प्रेम की पीर दिखाकर मंझन इस में प्रेम की व्यापकता और सामर्थ्य को प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं।
काव्य की भाषा और शैली लगभग मृगावती की ही तरह पर उससे अधिक हृदयग्राही है। विरह और प्रेम की पीर के वर्णन के माध्यम से उस परोक्ष के विरह की ओर संकेत का एक सुंदर उदाहरण दृष्टव्य है:
बिरह अवधि अवगाह अपारा। कोटि माँहि एक परै त पारा॥
बिरह कि जगत अँविरथा जाही। बिरह रूप यह सृष्टि सबाही॥
नैन बिरह अंजन जिन सारा। बिरह रूप दरपन संसारा॥
कोटि माँहि बिरला जग कोई। जाहि सरीर बिरह दुख होई॥
रतन कि सागर सागरहिं, गजमोती गज कोइ।
चंदन कि बन-बन ऊपजै, बिरह कि तन-तन होइ?
भावात्मक रहस्स्यवाद के ऐसे अनेक सुंदर और मोहक उदाहरण पूरी रचना में जगह-जगह बिखरे पड़े हैं। हालाँकि मधुमालती की एक खंडित प्रति ही प्राप्त हो सकी है परंतु यह भी साहित्य की एक अमूल्य निधि है।
श्रंखला के अगले लेख में हम बात करेंगे इस परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि मलिक मोहम्मद जायसी और उनकी रचना पद्मावत की।
हिन्दी साहित्य के इतिहास के अन्य अंक : १) साहित्य क्या है? २)हिन्दी साहित्य का आरंभ ३)आदिकालीन हिन्दी साहित्य ४)भक्ति-साहित्य का उदय ५)कबीर और उनका साहित्य ६)संतगुरु रविदास ७)ज्ञानमार्गी भक्ति शाखा के अन्य कवि ९)जायसी और उनका "पद्मावत"
4 टिप्पणियाँ
हिन्दी साहित्य के इतिहास पर खोजपूर्ण दृष्टि डालने के लिये धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंहिन्दी साहित्य का इतिहास इस कदि को चलाकर आप्ने हुम पथकोन कि कई सम्स्याए हल कर दी है
जवाब देंहटाएंHindi Sahitya ke Prem margi bhaktidhara par Shodgparak aur vishleshnatmak alekh..sadhuvad !!
जवाब देंहटाएंजायसी के कुच अच्छे उदाहरण और अर्थ होते तो और भी रोचक आलेख हो जाता। इस विषय को आगे और बढाये।
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.