
सुभाष नीरव का जन्म 27–12–1953 को मुरादनगर (उत्तर प्रदेश) में हुआ। मेरठ विश्वविद्यालय से स्नातक तथा भारत सरकार के पोत परिवहन मंत्रालय में अनुभाग अधिकारी(प्रशासन) के तौर पर कार्यरत सुभाष नीरव की कई कृतियाँ यथा ‘यत्कचित’, ‘रोशनी की लकीर’ (कविता संग्रह); ‘दैत्य तथा अन्य कहानियाँ’, ‘औरत होने का गुनाह’, ‘आखिरी पड़ाव का दु:ख’(कहानी-संग्रह); ‘कथाबिंदु’(लघुकथा–संग्रह), ‘मेहनत की रोटी’(बाल कहानी-संग्रह) आदि प्रकाशित हैं। लगभग 12 पुस्तकों का पंजाबी से हिंदी में अनुवाद भी वे कर चुके हैं और अनियतकालीन पत्रिका ‘प्रयास’ और मासिक ‘मचान’ का सम्पादन भी कर रहे हैं।
हिन्दी में लघुकथा लेखन के साथ-साथ पंजाबी-हिन्दी लघुकथाओं के श्रेष्ठ अनुवाद के लिए उन्हें ‘माता शरबती देवी स्मृति पुरस्कार, 1992’ तथा "मंच पुरस्कार, 2000" से सम्मानित किया गया जा चुका है।
"साहित्य सृजन" तथा अन्य कई ब्लाग्स के माध्यम से अंतर्जाल पर भी वे सक्रिय हैं।
''यह एक फल होता है, बेटे।'' मैंने उसे समझाते हुए कहा, ''इसमें लाल-लाल दाने होते हैं, मीठे-मीठे !''
''पापा, हम भी अनाल खायेंगे...'' बच्ची पढ़ना छोड़कर जिद्द-सी करने लगी। मैंने उसे डपट दिया, ''बैठकर पढ़ो। अनार बीमार लोग खाते हैं। तुम कोई बीमार हो ? चलो, अंग्रेजी की किताब पढ़ो। ए फॉर ऐप्पिल... ऐप्पिल माने...।''
सहसा, मुझे याद आया, दवा देने के बाद डॉक्टर ने सलाह दी थी- पत्नी को सेब दीजिये, सेब।
सेब !
और मैं मन ही मन पैसों का हिसाब लगाने लगा था। सब्जी भी खरीदनी थी। दवा लेने के बाद जो पैसे बचे थे, उसमें एक वक्त की सब्जी ही आ सकती थी। बहुत देर सोच-विचार के बाद, मैंने एक सेब तुलवा ही लिया था- पत्नी के लिए।
बच्ची पढ़ रही थी, ''ए फॉर ऐप्पिल... ऐप्पिल माने सेब...''
''पापा, सेब भी बीमाल लोग खाते हैं ?... जैसे मम्मी ?...''
बच्ची के इस प्रश्न का जवाब मुझसे नहीं बन पड़ा। बस, बच्ची के चेहरे की ओर अपलक देखता रह गया था।
बच्ची ने किताब में बने सेब के लाल रंग के चित्र को हसरत-भरी नज़रों से देखते हुए पूछा, ''मैं कब बीमाल होऊँगी, पापा ?''
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13 टिप्पणियाँ
बहुत ही मार्मिक लघुकथा-- एक आम आदमी की पीड़क स्थिति को एक ब्च्चे के माध्यम से अभिव्यक्त करती सुभाष नीरव की यह लघुकथा हिन्दी लघुकथा साहित्य की एक उपलब्धि मानी जायेगी.
जवाब देंहटाएंचन्देल
कथा मर्म को भेद देती है। पर आज स्थितियां बदल रही हैं। दाल और सब्जियां कुलांचें भर रही हैं। सेब और अनार अब खाने को मिल जाया करेंगे। सब्जियों और दाल के लिए शादियों और पार्टियों का इंतजार किया जाया करेगा।
जवाब देंहटाएंये तो पहले भी पढा है .. शायद साहित्य शिल्पी पर ही ।
जवाब देंहटाएंमजबूरी जो कराए...कम है
जवाब देंहटाएंमार्मिक कहानी
मार्मिक लघुकथा चंद शब्दों मे इतनी बडी अभिव्यक्ती लाजवाब आभार्
जवाब देंहटाएंUltimate. Thanks.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
इस लघुकथा को कई बार पढा है और हर बार इसके निहितार्थ बदल जाते हैं और बेदना बढ जाती है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लघुकथा है, बधाई।
जवाब देंहटाएंसुन्दर मार्मिक लघुकथा.. मैं संगीता पुरी जी की टिप्पणी से सहमत हूं
जवाब देंहटाएंSUBASH NEERAV JEE KEE YE LAGHUKATHA
जवाब देंहटाएंPAHLE BHEE PADHEE HAI LEKIN KUCHH
KATHAAYEN ITNEE BHAAVPOORN HOTEE HAIN JINHEN BAAR-BAAR PADHNE KO JEE
KARTAA HAI" BEEMAAR" AESEE HEE KATHA HAI.SASHAKT LAGHUKATHA KE
LIYE SUBASH JEE KO BADHAAEE.
मर्मस्पर्शी लघुकथा.
जवाब देंहटाएंआपकी इस लघुकथा पर एक शे'र याद आ रहा है
जवाब देंहटाएंकभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता
बहुत मार्मिक कथा... एक कटु सत्य को उजागर करती हुई......रचनाकार को बधाई
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.