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माया की मूर्तियां और मूर्तियों की माया [व्यंग्य] - अविनाश वाचस्पति


माया का दिल देखिए मूर्तियां हाथी की बनवाईं हैं तो दिल भी उनका हाथी बराबर ही हुआ तभी तो 10 प्रतिशत बजट छोड़ दिया है। आखिर है किसी का इतना उदार दिल। अगर वे 100 प्रतिशत बजट से मूर्तियां बनवातीं तो भी आप जनहित याचिका ही दायर करते और उस पर सुप्रीम कोर्ट कारण बताओ नोटिस जारी करती। आप माया की दयालुता पर ऋणी होना तो दूर आंखें और तरेर रहे हैं। बदमाश तो आप ही हुये न। आंखें तरेनना सदा से ही गलत अर्थ देता रहा है। इस सवाल पर बवाल मचाकर आप सबने अपनी संगदिली का ही परिचय दिया है।


रचनाकार परिचय:-

अविनाश वाचस्पति का जन्म 14 दिसंबर 1958 को हुआ। आप दिल्ली विश्वविद्यालय से कला स्नातक हैं। आप सभी साहित्यिक विधाओं में समान रूप से लेखन कर रहे हैं। आपके व्यंग्य, कविता एवं फ़िल्म पत्रकारिता विषयक आलेख प्रमुखता से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आपने हरियाणवी फ़ीचर फ़िल्मों 'गुलाबो', 'छोटी साली' और 'ज़र, जोरू और ज़मीन' में प्रचार और जन-संपर्क तथा नेत्रदान पर बनी हिंदी टेली फ़िल्म 'ज्योति संकल्प' में सहायक निर्देशक के तौर पर भी कार्य किया है। वर्तमान में आप फ़िल्म समारोह निदेशालय, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली से संबद्ध हैं।
आप थोड़ा और गहराई से विचार करेंगे तो पायेंगे कि मूर्तियां बनवाना चंदा उगाहने से कम घृणित कार्य है और आप दोनों कारनामों को समान घृणा से देख रहे हैं। जबकि अब बजट में राजनीतिक पार्टियों को दिए वाले चंदे में 100 प्रतिशत छूट दे दी गई है और यह अच्छी बात नहीं है। कारनामों को करतूत का दर्जा आप जैसे लोग ही देते हैं और सदा देते ही रहेंगे। जब वे चंदा वसूल रही थीं तब आपने इसे भी शर्मनाक कहा और अब जब मूर्तियां बनवाईं तो इसे भी शर्मनाक कह रहे हैं। वे कार्य बदल लेती हैं पर आप हैं कि शर्मनाक शर्मनाक ही बिसूरते रहते हैं। कभी शर्मकान या शर्मआंख नहीं कहते। आखिर आरोपों में कुछ तो विविधतापूर्ण कलात्मिकता आनी ही चाहिए। अगली बार मूर्तियां बनवाना भी किसी विधेयक के जरिए वैधानिक हो जाएगा।
एक तथ्य और काबिलेगौर है कि मूर्तियां बनवाना और उन्हें लगवाना आपराधिक कृत्य तो नहीं है। इस बार तो मूर्तियां बनवाई हैं अपनी और हाथियों की। हाथियों की मूर्तियां बनवाना इसलिए जरूरी है कि इससे विशालता का बोध होता है। वैसे चिंतन किया जाए तो पायेंगे कि मूर्तियां न तो रिश्वयत लेती हैं और आप न चाहें तो रखरखाव भी नहीं मांगती हैं। चाहे पक्षी इस पर बैठकर अपनी दीर्घशंका का निवारण करते रहें। धुलाई नहलाई भी मानूसन में खुदबखुद ही हो जाती है। इसके लिए आपको अलग से बटालियन तैनात नहीं करनी पड़ती और इनकी सुरक्षा का तो कोई चक्कोर ही नहीं है। वे मूर्तियां ही किसी पर न गिर पड़ें सुरक्षा तो इससे चाहिए और जिसे चाहिए वो खुद ही दांये बांये हो लेगा और आवश्येक समझेगा तो हेलमेट पहनेगा। मूर्तियों के लगने से शहर के सौंदर्यीकरण में अभिवृद्धि होती है। मूर्तियां ही तो लगवाई हैं कोई ऐसा कारखाना तो नहीं लगवाया है जो बिजली की चोरी कर रहा हो या प्रदूषण फैला रहा हो। मूर्तियां हैं सो चुपचाप खड़ी रहती हैं। इतनी चुपचाप की धूप, पानी, आंधी की शिकायत भी नहीं करती हैं। खाने को कुछ नहीं मांगतीं बल्कि इनके बहाने बहुतों को चुपड़ी और चार-चार बार-बार नसीब होती हैं।
मूर्तियों को एक बार बनाने लगाने के बाद कोई ओवरहैड खर्चे नहीं हैं। फिर भी इतना शोर। शोर मचाने वालों की नीयत पर शक होता है कि इनमें उनको कुछ मिल मिला गया होता तो वे उधम न मचाते। वे भी मूर्तियों की तरह चुप ही नजर आते।

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6 टिप्पणियाँ

  1. बहुत खूब अविनाश भाई,एक प्रासंगिक और बेहद सटीक व्यंग्य ! बधाई !

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  2. शोर मचाने वालों की नीयत पर शक होते हैं इनमें इनकों कुछ मिल मिला गया होता तो वे उधम न मचाते । वे मूर्तियों की तरह चुप ही रह जाते । बहुत ही सजीव टिप्पणी । बधाई ।

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  3. Bahut khub Avinash Ji...Apke is vyangya ne to sabhi ko murtivat kar diya.

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  4. बहुत ही उम्दा व्यंग्य्!!!आभार

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  5. हमेशा की तरह एक बढिया एवं सामयिक व्यंग्य

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  6. शुक्र कीजिये हाथियों की सिर्फ़ मूर्तियां ही बनवाईं.. सचमुच के हाथी खरीद कर दिल्ली की तरफ़ नहीं छोडे ;)

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