
महंगाई की दाल खूब गल रही है। दाल अरहर की है पर इसकी जो खिचड़ी बन रही है, वो बीरबल की खिचड़ी की याद दिला रही है। दाल ऐसा शेयर बन चुकी है जिसकी कीमत गिरती नहीं है और काबू में नहीं आ रही है। जबकि दाल को कोई कंपनी नहीं बनाती है और न बना ही सकती है। इसका उत्पादन तो खेतों में ही हो सकता है, पहले भी होता रहा है, अब भी हो रहा है। जो बात पहले नहीं हो रही थी, वो ये थी कि इनकी कीमतें बढ़ नहीं रही थीं और अब बढ़ने से अधिक तेजी से चढ़ रही हैं और वो भी आम आदमी की जेब दर जेब।
अविनाश वाचस्पति का जन्म 14 दिसंबर 1958 को हुआ। आप दिल्ली विश्वविद्यालय से कला स्नातक हैं। आप सभी साहित्यिक विधाओं में समान रूप से लेखन कर रहे हैं। आपके व्यंग्य, कविता एवं फ़िल्म पत्रकारिता विषयक आलेख प्रमुखता से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आपने हरियाणवी फ़ीचर फ़िल्मों 'गुलाबो', 'छोटी साली' और 'ज़र, जोरू और ज़मीन' में प्रचार और जन-संपर्क तथा नेत्रदान पर बनी हिंदी टेली फ़िल्म 'ज्योति संकल्प' में सहायक निर्देशक के तौर पर भी कार्य किया है। वर्तमान में आप फ़िल्म समारोह निदेशालय, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली से संबद्ध हैं।
अगर तकनीक का उपयोग अथवा दुरुपयोग कहें, करके दाल की फोटोप्रतियां करवा कर प्रयोग में लाई जा सकतीं तो वैसी फोटोकापियर मशीनों का भविष्य दाल से अधिक अरहरा (सुनहरा की तर्ज पर) पर हो गया होता। दालों पर बने मुहावरे ये मुंह और मसूर की दाल की जगह अब यह मुंह और अरहर की दाल लेने ही वाले हैं। जरा भाषाशास्त्रियों की नींद तो टूटने दें। शास्त्री में स्त्री जुड़ा देखकर इस भ्रम में न रहें कि शास्त्री महिला ही हो सकती हैं, मतलब हो भी सकती हैं और नहीं भी पर जरूरी नहीं है। पर दाल की दर बढ़ना तय है। दाल की कीमतों का बढ़ना आज वोट बैंक का डूबना हो गया है।
सब्जियों की कीमतें उछलती कूदती रहती हैं। पर उनके फुदकने को उनका बचपना न मान लीजिएगा। ये तो राहत बांटने के साथ ही आहत करती चलती हैं। उनका उछलने कूदने का जज्बा उन्हें सदा सुर्खियों में बनाए रखता है। पर यह दाल की तानाशाही ही कही जाएगी कि उनके जो रेट एक बार बढ़ते हैं तो फिर बढ़ते ही हैं। उनमें गिरावट का कोई अंश नजर नहीं आता जबकि दंश तो उसके बढ़ते रेट दे रहे हैं। दंश देश के आम, खास नागरिक सभी को लग रहे हैं। सब बिलबिला रहे हैं पर कर इतना भी नहीं पा रहे हैं कि इससे मुक्ति का कोई शाश्वत उपाय हासिल कर सकें।दाल ने मुर्गी को पछाड़ने में कामयाबी हासिल कर ली है।
पहले दे दाल में पानी मुहावरे काफी प्रचलन में रहे हैं। जूतियों में दाल बंटना ने दाल को दलित श्रेणी में शुमार कर दिया था परन्तु अब दालों का दाना दाना दमदार हो गया है। किसी की क्या मजाल कि जो इनकी शान में, इनके टूटे दाने के बारे में भी हल्की ब्यानबाजी कर सके। जो भी ऐसा करने की सोचेगा उसकी पूरी की पूरी बाजी उलट जाएगी। कह सकते हैं कि दालों के रेट बढ़ने से बहुत ही आवश्यक वस्तुओं के रेट भी बढ़े जा रहे हैं। दालों के रेट अपने आप बढ़ रहे हैं यह स्वंयभूत ऐसी प्रक्रिया है जो इससे जुड़े लोगों का उनके जीवन में ही भूत बना रही है। जबकि ये सब जानते हैं कि भूत न दाल खाते हैं न भात पर जो अपने जीवन में दाल भात न खा पाएं वे अवश्य भूत बनते हैं। ऐसी कई प्रमाण मिले हैं।
दालों की कीमतों को बिना धक्का दिए ही बढ़ने में जा आनंद आ रहा है, वो अनुभूत है पर दुखद है। वैसे एक सच्चाई जान लें कि एक व्यक्ति कितनी दाल खाता है, रेट बढ़ने के बाद तो मुट्ठी भर दाल भी नहीं खा पाता है। एक मुट्ठी दाल पूरे परिवार के लिए काफी हो रही है जबकि रेट बढ़ने से पहले दो या तीन मुट्ठी में काम चल रहा होगा। वो तो पानी भी खुलकर नहीं मिल रहा है नहीं तो दाल में पानी दे देकर काफी अतिथियों तक निबटाया जाता रहा है। आपने सुना ही होगा तीन बुलाए तेरह आए और बुलाने वाले को अपनी तेरहवीं नहीं करवानी है तो दे दाल में पानी। पर आजकल पानी भी जान पड़ता है, हड़ताल पर है। जहां होना चाहिए वहां नहीं होता और जहां नहीं होना चाहिए वहां भरपूर होता है। दाल और पानी में यही भेद है। आप चाहें तो दाल को अधिक दाम देकर अपना बना सकते हैं, गोदामों में बसा सकते हैं पर अगर आपने पानी के साथ ऐसा किया तो वो जरूर आपको डुबा ही देगा, या कह सकते हैं कि डुबाकर ही मानेगा।
अब ये सलाह दी जा सकती है दालों को दिल पर न लें। इससे दिल का खतरा बढ़ रहा है। जल्द ही दालों का खाना डॉक्टरों द्वारा सलाहा जाएगा। आप सिर्फ पांच दाने मूंग की दाल का दिन में एक बार सेवन करें अथवा आपके नेत्रों की ज्योति के विकास के लिए दिन में तीन बार अरहर की 100 ग्राम कच्ची दाल का दर्शन मुफीद रहेगा। अभी अरहर में अरहरापन आया है। जल्दी ही चने की दाल में चनापन (कड़ापन), मसूर की दाल (कसूरवार) बनाएंगी। अवाम को इनसे न उलझने की चेतावनी दी जाती है।
और साज सज्जा वाले चिल्ला चिल्लाकर कहेंगे कि उबले चावलों के उपर दस दाने अरहर के सजाने से जो अरहरापन आ जाता है। वो सोने के हार में रत्नों के पचास नग सजाने में भी नहीं आता। इसलिए दाल अब दलित नहीं रही। दाल स्वर्णता को प्राप्त हो चुकी है और इसे इसके वर्तमान सिंहासन से उतारना किसी के बूते की बात नहीं और यही अरहरापन लुभा गया है मुझको।
पहले दे दाल में पानी मुहावरे काफी प्रचलन में रहे हैं। जूतियों में दाल बंटना ने दाल को दलित श्रेणी में शुमार कर दिया था परन्तु अब दालों का दाना दाना दमदार हो गया है। किसी की क्या मजाल कि जो इनकी शान में, इनके टूटे दाने के बारे में भी हल्की ब्यानबाजी कर सके। जो भी ऐसा करने की सोचेगा उसकी पूरी की पूरी बाजी उलट जाएगी। कह सकते हैं कि दालों के रेट बढ़ने से बहुत ही आवश्यक वस्तुओं के रेट भी बढ़े जा रहे हैं। दालों के रेट अपने आप बढ़ रहे हैं यह स्वंयभूत ऐसी प्रक्रिया है जो इससे जुड़े लोगों का उनके जीवन में ही भूत बना रही है। जबकि ये सब जानते हैं कि भूत न दाल खाते हैं न भात पर जो अपने जीवन में दाल भात न खा पाएं वे अवश्य भूत बनते हैं। ऐसी कई प्रमाण मिले हैं।
दालों की कीमतों को बिना धक्का दिए ही बढ़ने में जा आनंद आ रहा है, वो अनुभूत है पर दुखद है। वैसे एक सच्चाई जान लें कि एक व्यक्ति कितनी दाल खाता है, रेट बढ़ने के बाद तो मुट्ठी भर दाल भी नहीं खा पाता है। एक मुट्ठी दाल पूरे परिवार के लिए काफी हो रही है जबकि रेट बढ़ने से पहले दो या तीन मुट्ठी में काम चल रहा होगा। वो तो पानी भी खुलकर नहीं मिल रहा है नहीं तो दाल में पानी दे देकर काफी अतिथियों तक निबटाया जाता रहा है। आपने सुना ही होगा तीन बुलाए तेरह आए और बुलाने वाले को अपनी तेरहवीं नहीं करवानी है तो दे दाल में पानी। पर आजकल पानी भी जान पड़ता है, हड़ताल पर है। जहां होना चाहिए वहां नहीं होता और जहां नहीं होना चाहिए वहां भरपूर होता है। दाल और पानी में यही भेद है। आप चाहें तो दाल को अधिक दाम देकर अपना बना सकते हैं, गोदामों में बसा सकते हैं पर अगर आपने पानी के साथ ऐसा किया तो वो जरूर आपको डुबा ही देगा, या कह सकते हैं कि डुबाकर ही मानेगा।
अब ये सलाह दी जा सकती है दालों को दिल पर न लें। इससे दिल का खतरा बढ़ रहा है। जल्द ही दालों का खाना डॉक्टरों द्वारा सलाहा जाएगा। आप सिर्फ पांच दाने मूंग की दाल का दिन में एक बार सेवन करें अथवा आपके नेत्रों की ज्योति के विकास के लिए दिन में तीन बार अरहर की 100 ग्राम कच्ची दाल का दर्शन मुफीद रहेगा। अभी अरहर में अरहरापन आया है। जल्दी ही चने की दाल में चनापन (कड़ापन), मसूर की दाल (कसूरवार) बनाएंगी। अवाम को इनसे न उलझने की चेतावनी दी जाती है।
और साज सज्जा वाले चिल्ला चिल्लाकर कहेंगे कि उबले चावलों के उपर दस दाने अरहर के सजाने से जो अरहरापन आ जाता है। वो सोने के हार में रत्नों के पचास नग सजाने में भी नहीं आता। इसलिए दाल अब दलित नहीं रही। दाल स्वर्णता को प्राप्त हो चुकी है और इसे इसके वर्तमान सिंहासन से उतारना किसी के बूते की बात नहीं और यही अरहरापन लुभा गया है मुझको।
13 टिप्पणियाँ
दाल ने मुर्गी को नहा पछाड़ा बल्कि
जवाब देंहटाएंमुर्गी ने दाल को पछाड़ दिया।
बधाई।
सही भी है मुर्गी से मंहगी दाल है भैय्या
जवाब देंहटाएंदाल ऐसा शेयर बन चुकी है जिसकी कीमत गिरती नहीं है और काबू में नहीं आ रही है....Mano dal nahin Swine-flu ho gai ho...bahut khub Avinash ji...majedar likha.
जवाब देंहटाएंNice one.
जवाब देंहटाएंAlok Kataria
मजेदार..अब तो लोग कहेंगे की घर की मुर्गी दाल बराबर,
जवाब देंहटाएंवाह रे महंगाई कहावत भी बदल कर रख दी...
बढ़िया लेख..बधाई!!!
महिमा अनंत दाल की ....
जवाब देंहटाएंbahut khoob.....kya baat hai....
जवाब देंहटाएंsundar......
kya kahen kuch kaha jaata naheen
daal bin bhee to raha jaata naheen
"दाने-दाने पे लिखा है खाने वाले का नाम"...
जवाब देंहटाएंब इस पुरानी कहावत के असलियत में सच होने का समय आ गया है...
दर असल ये हो इतनी मँहगी गई है कि वो दिन दूर नहीं जब कोटा सिस्तम के तहत एक आदमी को दाल का एक दाना दिया जाएगा और उस दाने पे धोखे से कोई दूसरा लंपट कब्ज़ा ना जमा ले...इसलिए हर दाने पे उसके मालिक का नाम गुदवाया जाएगा...
तभी असल में ये पुरानी कहावत सत्यापित होगी कि..."दाने दाने पे लिखा है उसे खाने वाले का नाम"....
सचमुच मँहगायी अब चिंताजनक स्तर तक पहुँच गयी है। उसपर सबसे बडी शर्म है कि नेताओं को उन राज्यों में मँहगायी कम करने के चिंता है जहाँ चुनाव होने वाले हैं। शर्म खादी चमडी वालों को पता नहीं कब आयेगी।
जवाब देंहटाएंआह... अरहर की दाल .. और वह भी अविनाश जी के लेख में .... क्यों जले पर नमक छिड़्कते हैं मित्रवर ... आह
जवाब देंहटाएं- वाह अविनाश जी !
आपका व्यंग्य तो जानदार है ही , यहां जो आपकी फोटो खींचकर लगायी गयी वह भी कम शानदार नहीं है।भाई अविनाश जी। थोड़ी और लम्बी की जाती तो और भी मजा आ जाता।
जवाब देंहटाएंsabka ek din aa hi jaata hai ki surkhiyon men pahunch jata hai aaj bari daal ki hai kaha gaya hai ghoore ke bhi din phirate hain to koi nayee baat nahi hai agar lahasun pyaaj chini aadi ka wakt aa sakata hai to daal ko mauka mila hai to itana hangama kyon ho raha hai
जवाब देंहटाएंsabka ek din aa hi jaata hai ki surkhiyon men pahunch jata hai aaj bari daal ki hai kaha gaya hai ghoore ke bhi din phirate hain to koi nayee baat nahi hai agar lahasun pyaaj chini aadi ka wakt aa sakata hai to daal ko mauka mila hai to itana hangama kyon ho raha hai
जवाब देंहटाएंआपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.