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एक रास्ता और.. [लघुकथा] - सूरजप्रकाश


एक साथ तीन छुट्टियाँ आ रही है। वे चारों एक साथ काम करते हैं और पिकनिक जाने के मूड में हैं। ये एक खास और सीमित ग्रुप ही की प्राइवेट पिकनिक होगी ताकि पूरी तरह से मौज मस्ती मनायी जा सके। माथेरान या लोनावला जाने की बात है। कम से कम दो रातें वहाँ गुजारनी ही हैं। बहुत दिन हो गये हैं इस तरह से मजा मारे।

रचनाकार परिचय:-


सूरज प्रकाश का जन्म १४ मार्च १९५२ को देहरादून में हुआ। आपने विधिवत लेखन १९८७ से आरंभ किया। आपकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं: - अधूरी तस्वीर (कहानी संग्रह) 1992, हादसों के बीच - उपन्यास 1998, देस बिराना - उपन्यास 2002, छूटे हुए घर - कहानी संग्रह 2002, ज़रा संभल के चलो -व्यंग्य संग्रह – 2002। इसके अलावा आपने अंग्रेजी से कई पुस्तकों के अनुवाद भी किये हैं जिनमें ऐन फैंक की डायरी का अनुवाद, चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद, चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा का अनुवाद आदि प्रमुख हैं। आपने अनेकों कहानी संग्रहों का संपादन भी किया है। आपको प्राप्त सम्मानों में गुजरात साहित्य अकादमी का सम्मान, महाराष्ट्र अकादमी का सम्मान प्रमुख हैं। आप अंतर्जाल को भी अपनी रचनात्मकता से समृद्ध कर रहे हैं।



किस–किस महिला सहकर्मी को जाने के लिए पटाया जा सकता है, इसके लिए सूचियाँ बन रही हैं और नाम जुड़ और कट रहे हैं।

पूरे ऑफिस में वैसे तो ढेरों ऐसी महिलाएं हैं जो खुशी–खुशी साथ तो चली चलेंगी लेकिन उन्हें फैमिली गैदरिंग नहीं चाहिये। कुछ मौज–मजा करने और कुछ 'छूट' लेने और देने वालियां ही चाहिये।

ऐसी सूची में तीन नाम तो तय हो गये हैं। चौथे नाम पर बात अटक गयी है। उससे कहा कैसे जाये। वही सबसे तेज तर्रार और काम की 'चीज' है। बाकी तीन को भी वही पटाये रख सकती है।

इसकी जिम्मेवारी वासु ने ले ली है।

"लेकिन तुम उसे तैयार कैसे करोगे? हालांकि वहाँ स्टार आइटम वही होगी। चली चले तो बस, मजा आ जाये।" सवाल पूछा गया है।

"वो तुम मुझ पर छोड़ दो।"

"लेकिन सुना है, उसका हसबैंड बहुत ही खडूस है। रोज शाम को ऑफिस के गेट पर आ खड़ा होता है उसे ले जाने के लिए। कहीं आने–जाने नहीं देता।"

"वह खुद संभाल लेगी उसे।"

"वो कैसे?"

"उसने खुद ही बताया था एक बार कि जब भी इस तरह का कोई प्रोग्राम हो तो उसे एक हफ्ता पहले बता दो। वह अगले दिन ही मायके चली जायेगी और फिर वहीं से चली आयेगी। तब उसकी हसबैंड के प्रति कोई जवाबदेही नहीं होती। इस तरह के सारे काम वह मायके रहते हुए ही करती है।"

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12 टिप्पणियाँ

  1. इस विषय पर आपकी कई लघुकथायें साहित्य शिल्पी पर पढने को मिली हैं। महानगर के भीतर के सच को खोज खोज कर आपने लिखा है।

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  2. चालाकी हिस्सा हो गयी है समाज का। अपनी स्वच्छंदता के लिये रास्ता कोई भी हो गुरेज नहीं किसी को भी। बहुत अच्छी लघुकथा है।

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  3. टूटते सामाजिक प्रतिमानों पर उंगली उठाती बहुत सार्थक लघुकथा है।

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  4. चाहने वाले राह निकाल ही लेते हैं :)

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  5. पंकज सक्सेना24 अगस्त 2009 को 11:56 am बजे

    टिपिकल सूरज प्रकाश जी की लघुकथा है।

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  6. लोनावला आये और खोपोली भूल गए...आईटम साथ न भी लाते तो भी चलता...सच में न सही कहानी में ही आ जाते हुज़ूर...
    नीरज

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  7. ..... मायके चली जायेगी और फिर वहीं से चली आयेगी। तब उसकी हसबैंड के प्रति कोई जवाबदेही नहीं होती। इस तरह के सारे काम वह मायके रहते हुए ही करती है.

    बदलते हुये परिवेश में .... सामाजिक सरोकारों का परिवर्र्तन और उसके लिये नये नये रास्ते .... बहुत व्यस्तताओं के एक लम्बे अंतराल से उन्मुक्त होते ही ... शिल्पी पर आदरणीय अग्रज की यह लघु कथा मन को स्मित और विस्मित कर गयी. - प्रणाम

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  8. रोचक और सार्थक लघुकथा, बधाई।

    जवाब देंहटाएं

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