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बिना नाल का घोङा [लघुकथा] - बलराम अग्रवाल


उसने देखा कि आफ़िस के लिए तैयार होते-होते वह चारों हाथ-पैरों पर चलने लगा है । तैयार होने के बाद वह घर से बाहर निकला । जैसे ही सङक पर पहुँचा, घोङे में तब्दील हो गया । अपने जैसे ही साधारण कद और काठी वाले चमकदार काले घोङे में । माँ, पिता, पत्नी और बच्चे-सबको उसने अपनी गरदन से लेकर पीठ तक लदा पाया । इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता, सङाक से एक हंटर उसके पुट्ठे पर पङा--"देर हो चुकी है, दौङो...!"

वह दौङने लगा---ठकाठक...ठकाठक...ठकाठक...ठकाठक...।

"तेज़...और तेज़...!" ऊपर लदे लोग एक-साथ चिल्लाए ।

वह और तेज़ दौङा-सरपट ।

कुछ ही देर में उसने पाया कि वह आफिस के सामने पहुँच गया है । खरामा-खरामा पहले वह लिफ़्ट तक पहुँचा, लिफ़्ट से फ़्लोर तक और फ़्लोर से सीट तक । ठीक से वह अभी सीट पर बैठा भी नहीं था कि पहले से सवार घरवालों को पीछे धकेलकर बॉस उसकी गरदन पर आ सवार हुआ ।

"यह सीट पर बैठकर आराम फरमाने का नहीं, काम से लगने-लिपटने का समय है मूरख ! दौङ...।" उसके पुट्ठों पर, गरदन पर, कनपटियों पर संटी फटकारते हुए वह चीखा ।

उसने तुरंत दौङना शुरू कर दिया-इस फाइल से उस फाइल तक,उस फाइल से उस फाइल तक....लगातार....लगातार...और दौङता रहा तब तक, जब तक कि अपनी सीट पर ढह न गया पूरी तरह पस्त होकर । एकाएक उसकी मेज़ पर रखे फोन की घंटी घनघनाई--ट्रिंग-ट्रिंग.. ट्रिंग-ट्रिंग...ट्रिंग...!

उसकी आँखें खुल गयीं । हाथ बढ़ाकर उसने सिरहाने रखे अलार्म-पीस को बंद कर दिया और सीधा बैठ गया । पैताने पर , सामने उसने माँ को बैठे पाया ।

"नमस्ते माँ !" आँखें मलते हुए माँ को उसने सुबह की नमस्ते की ।

"जीते रहो !" माँ ने कहा,"तुम्हारी कुंडली कल पंडितजी को दिखाई थी । ग्रह-दशा सुधारने के लिए तुम्हें काले घोङे की नाल से बनी अँगूठी अपने दायें हाथ की अँगुली में पहननी होगी ।"

माँ की बात पर वह कुछ न बोला,चुप रहा ।

"बाज़ार में बहुत लोग नाल बेचते हैं ।" माँ आगे बोली,"लेकिन, उनकी असलियत का कुछ भरोसा नहीं है । बैल-भैंसा किसी के भी पैर की हो सकती हैं।...मैं यह कहने को आई थी कि दो-चार जान-पहचान वालों को बोलकर काला-घोङा तलाश करो, ताकि असली नाल मिल सके ।"

"नाल पर अब कौन पैसे खर्च करता है माँ !" माँ की बात पर वह कातर-स्वर में बुदबुदाया,"हंटरो और चाबुकों के बल पर अब तो मालिक लोग बिना नाल ठोंके ही घोङों को घिसे जा रहे हैं....।" यह कहते हुए अपने दोनों पैर चादर से निकालकर उसने माँ के आगे फैला दिए," लो… देख लो।"

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18 टिप्पणियाँ

  1. श्रेष्ठ लघुकथा, सचमुच घोडे में तबदील हो गया है आदमी।

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  2. बलराम जी एसा लगा कोए कविता पढ रही हूँ, अक़पकी लघुकथा नें इस तरह बाँधा।

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  3. "नाल पर अब कौन पैसे खर्च करता है माँ !" माँ की बात पर वह कातर-स्वर में बुदबुदाया,"हंटरो और चाबुकों के बल पर अब तो मालिक लोग बिना नाल ठोंके ही घोङों को घिसे जा रहे हैं....।" यह कहते हुए अपने दोनों पैर चादर से निकालकर उसने माँ के आगे फैला दिए," लो… देख लो।"

    सशक्त गहरा और सार्थक।

    अनुज कुमार सिन्हा
    भागलपुर

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  4. शायद आपका नायक सरकारी के बजाय प्राईवेट नौकरी करता है.. :-)


    अच्छी लघु कथा

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  5. बलराम अग्रवाल ने इस लघुकथा में जिस यथार्थ को खूबसूरत फ़ैटेंसी के माध्यम से व्यक्त किया है, वह हमारे बहुत पास का यथार्थ है जिसे हम हर वक्त भोगने को विवश हैं। सच मुच हम बिना नाल के घोड़े ही तो हैं जो घर, परिवार, नौकरी की चिंताओं की चाबुक की मार से यहाँ वहाँ दौड़ते रहने को अभिशप्त हैं। एक श्रेष्ठ लघुकथा के लिए बलराम भाई को बधाई ।

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  6. पिंक फ्लोयड के एक गीत टाइम .. की याद दिला गयी ये लघुकथा ...
    and you run and u run to catch up with the sun but its sinking ,
    running around to cover up behind u again...
    sun is the same in a relative way but you are older..
    Shorter of breath and one day closer to death... बहुत खूब...

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  7. एक अच्छी लघुकथा के लिए बधाई स्वीकारें

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  8. एक संयोग, दुस्वप्न और हकीकती काले घोडे की नाल का ! सोचपरख कहानी आपने समावेशित की थी, मगर अफ़सोस कि अधिकाँश पाठक वर्ग इसे भी सिर्फ टिपण्णी देने और लेने तक का ही एक साधन मात्र मान बैठा ! खैर, अच्छी कहानी लिखी आपने !

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  9. गति

    दुर्गति

    सद्गति के लिए

    पर मारी जाती है

    मति।

    बेहतरीन चित्रण

    राम का बल है इसमें।

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  10. लघुकथा में एक दीर्घकथा है बल राम जी ..... मर्म को छू गयी. बिना निकाले ही लगा अपने पैर देख रहा हूं अफसोस अब मां भी नहीं है यह मेरी आपकी सबकी कथा है. आभार

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  11. आह पीडा होती है....
    पर यही सच है...

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  12. श्रेष्ठ लघु कथा. हिला कर रख दिया. कई बार सच भीतर से चीर जाता है.
    बधाई!

    जवाब देंहटाएं

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