
किसी के ज़ख्म पे मरहम भला अब कौन रखता है
वो इक विश्वास ही तो है उसे मानो न मानो
फ़लक पर ये उजाला और ये शब् कौन रखता है
ये मेरी ज़िन्दगी के रास्तों पे उलझनें हर पल
मैं तुझसे पूछता हूँ तू बता रब, कौन रखता है
मेरा महबूब है या उसका,साया या भरम है बस
मेरी पलकों पे आकर ख्वाब में लब कौन रखता है
मुसाफिर रास्ता भटके नहीं ये सोचकर यारो
अँधेरी राह में जलता दिया अब कौन रखता है
5 टिप्पणियाँ
अच्छी गजल है भाई ।
जवाब देंहटाएंलाजवाब gazal है........... हर sher kamaal का ............
जवाब देंहटाएंज़माने में बिना मतलब के मतलब कौन रखता है
जवाब देंहटाएंकिसी के ज़ख्म पे मरहम भला अब कौन रखता है
बहुत खूब।
बहुत अच्छी ग़ज़ल है दीपक जी, बधाई।
जवाब देंहटाएंमेरा महबूब है या उसका,साया या भरम है बस
जवाब देंहटाएंमेरी पलकों पे आकर ख्वाब में लब कौन रखता है
sandeh alankar.
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