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रक्षाबंधन [कविता] - दिव्यांशु शर्मा

दीदी जब सावन में,
काली मिट्टी पर उग आए,
हरे पौधों को देखता हूँ,
तो मेरी साँवली कलाई पर,
हरे रंग का रेशम,
खुद ब खुद,
उग आता है,
मैं अपने माथे पर,
सुर्ख रोली ढूँढता हूँ,
और,
जब सहर आसमाँ के माथे पर,
वही लाल रोली मलती है,
तो हल्का-सा टीका मुझे भी,
लगा जाती है!!

बरसात जब बूँदों का अक्षत,
मेरे सर पर छिड़कती है,
तो मैं होश में आता हूँ,
और,
सूनी कलाई, सूनी दुनिया,
सूना माथा पाता हूँ!!

दीदी, कभी भोर, कभी मिट्टी,
कभी बारिश बन कर आओ,
शायद मैं अकेला हूँ,
मुझे साथ ले जाओ...
*****

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11 टिप्पणियाँ

  1. दिव्यांशु बहुत अच्छी कविता है।मन को छू गयी संवेदनायें।

    जवाब देंहटाएं
  2. दीदी, कभी भोर, कभी मिट्टी,
    कभी बारिश बन कर आओ,
    शायद मैं अकेला हूँ,
    मुझे साथ ले जाओ...

    सुन्दर रचना।

    जवाब देंहटाएं
  3. दीदी, कभी भोर, कभी मिट्टी,
    कभी बारिश बन कर आओ,
    शायद मैं अकेला हूँ,
    मुझे साथ ले जाओ..



    .सावन में एक ऐसी भी बरखा होती है......

    नयन भीग गए......दिव्यांशु जी.....

    जवाब देंहटाएं
  4. kya hi sunder bhav upmaye sab kuchh mujhe bahut achchhi lagi aap ki kavita
    saader
    rachana

    जवाब देंहटाएं
  5. बरसात जब बूँदों का अक्षत,
    मेरे सर पर छिड़कती है,
    तो मैं होश में आता हूँ,
    और,
    सूनी कलाई, सूनी दुनिया,
    सूना माथा पाता हूँ!!

    दीदी, कभी भोर, कभी मिट्टी,
    कभी बारिश बन कर आओ,
    शायद मैं अकेला हूँ,
    मुझे साथ ले जाओ.

    एक एक पंक्ति दिल को छू जाती है।

    जवाब देंहटाएं
  6. मर्मस्पर्शी संवेदनायें लिये कविता.

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुंदर रचना है मन को छू गई. यूँ कहो भैया की याद आ गई
    सादर
    अमिता

    जवाब देंहटाएं

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