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शाम ढले मन पंछी बन कर दूर कहीं उड़ जाता है [ग़ज़ल] - सतपाल ख़याल



रचनाकार परिचय:-

सतपाल ख्याल ग़ज़ल विधा को समर्पित हैं। आप निरंतर पत्र-पत्रिकाओं मे प्रकाशित होते रहते हैं। आप सहित्य शिल्पी पर ग़ज़ल शिल्प और संरचना स्तंभ से भी जुडे हुए हैं तथा ग़ज़ल पर केन्द्रित एक ब्लाग आज की गज़ल का संचालन भी कर रहे हैं। आपका एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशनाधीन है। अंतर्जाल पर भी आप सक्रिय हैं।
शाम ढले मन पंछी बन कर दूर कहीं उड़ जाता है
सपनों के टूटे तारों से ग़ज़लें बुन कर लाता है

जाने क्या मजबूरी है जो अपना गांव छॊड़ ग़रीब
शहर किनारे झोंपड़-पट्टी मे आकर बस जाता है

देख तो कैसे आरी से ये काट रहा है हीरे को
देख तेरा दीवाना कैसे-कैसे वक्त बिताता है

तपते दिन के माथे पर रखती है ठंडी पट्टी शाम
दिन मज़दूर सा थक कर शाम के आंचल मे सो जाता है

रात के काले कैनवस पर हम क्या-क्या रंग नहीं भरते
दिन चढ़ते ही कतरा-कतरा शबनम सा उड़ जाता है

चहरा-चहरा ढूंढ रहा है खोज रहा है जाने क्या
छोटी-छोटी बातों की भी तह तक क्यों वो जाता है

कैसे झूठ को सच करना है कितना सच कब कहना है
आप ख़याल जो सीख न पाए वो सब उसको आता है

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6 टिप्पणियाँ

  1. चहरा-चहरा ढूंढ रहा है खोज रहा है जाने क्या
    छोटी-छोटी बातों की भी तह तक क्यों वो जाता है

    कैसे झूठ को सच करना है कितना सच कब कहना है
    आप ख़याल जो सीख न पाए वो सब उसको आता है

    बहुत खूब।

    जवाब देंहटाएं
  2. Taqreeban sarey hi ashaar pasand aaye.
    Yeh khaas lage -
    तपते दिन के माथे पर रखती है ठंडी पट्टी शाम
    दिन मज़दूर सा थक कर शाम के आंचल मे सो जाता है

    रात के काले कैनवस पर हम क्या-क्या रंग नहीं भरते
    दिन चढ़ते ही कतरा-कतरा शबनम सा उड़ जाता है

    चहरा-चहरा ढूंढ रहा है खोज रहा है जाने क्या
    छोटी-छोटी बातों की भी तह तक क्यों वो जाता है

    God bles
    RC

    जवाब देंहटाएं
  3. चहरा-चहरा ढूंढ रहा है खोज रहा है जाने क्या
    छोटी-छोटी बातों की भी तह तक क्यों वो जाता है

    कैसे झूठ को सच करना है कितना सच कब कहना है
    आप ख़याल जो सीख न पाए वो सब उसको आता है

    बहुत खूब लिखा है
    अमिता

    जवाब देंहटाएं
  4. सतपाल जी की हर गजल जिंदगी की सचाई से रू-ब-रू होकर अपनी बात कहती है. यह रचना भी जमीन से जुडी है.

    जवाब देंहटाएं

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