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प्रथम नागरिक हैं पेड़ पृथ्वी पर [पेंटिंग -कविता श्रंखला - 3] - सुशील कुमार

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[साभार कलाकृति- संजीव बाबू (भारत)]
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ज्यों- ज्यों
ठंढी होती गयी पृथ्वी,
त्यों-त्यों
पेड़ बसते गये यहाँ
रचनाकार परिचय:-
सुशील कुमार का जन्म 13 सितम्बर, 1964, को पटना सिटी में हुआ, किंतु पिछले तेईस वर्षों से आपका दुमका (झारखण्ड) में निवास है।

आपनें बी०ए०, बी०एड० (पटना विश्वविद्यालय) से करने के पश्चात पहले प्राइवेट ट्यूशन, फिर बैंक की नौकरी की| 1996 में आप लोकसेवा आयोग की परीक्षा उत्तीर्ण कर राज्य शिक्षा सेवा में आ गये तथा वर्तमान में संप्रति +२ जिला स्कूल चाईबासा में प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं।

आपकी अनेक कविताएँ-आलेख इत्यादि कई प्रमुख पत्रिकाओं, स्तरीय वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।


पूरी धरती को पेड़ों ने
अपने अंकों में भर लिया
धीरे-धीरे

उसने
धरती यौवना-
पर्वत-उरोजों को चूमा
नदियों-घाटियों को तो
जी भर के प्यार किया

जब रजस्वला हो गयी पृथ्वी
और जलने लगी तृषाग्नि में
तो वृक्षों ने उसकी कोख़ में
सब जगह
प्रेम के उपहार --
अपने वंश-बीज
गिरा दिये चुपके-से,

इस तरह धरती से
अटूट संबंध बन गया उसका
और धरती सौभाग्यवती हो गयी !

धरती ने अपने अंचल में तब
असंख्य नवजात पौधों को जन्म दिया
जिन्हें पितृ-पेड़ों का आशीर्वाद मिला
और सारी धरती हरी- भरी...
जंगल-जंगल हो चली !

हमें विश्वास नहीं होता सहसा,
पेड़ों का इतिहास जानकर कि
समस्त प्राणियों का भार
वहन करने वाली धरती
टूट रही है धीरे-धीरे अब

इस भीषण दु:ख से कि
अपने अंचल में बसे
जिस प्रथम नागरिक--
"पेड़" का वरण किया उसने,
उन अनगिन पेड़ों की
नित्य हत्यायें होने लगी हैं
सृष्टि की सबसे सभ्य प्रजाति-
मानव के द्वारा,

और जंगल दिन-दिन
बिलाने लगे हैं
हरीतिमा भी मिटने लगी है
पृथ्वी से धीरे-धीरे।

शायद धरती अपने को विधवा
महसूस करने लगी है अब।
--

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32 टिप्पणियाँ

  1. सुशील कुमार की यह कविता बहुत गहन हाव -भाव लिये हुए है। आज सचमुच हम पेड़ों के साथ ठीक व्यवहार नहीं कर रहे जबकि पेड़ का पृथ्वी से चोली-दामन का साथ रहा है। बहुत बेहतरीन कविता।

    जवाब देंहटाएं
  2. माननीय श्री सुशील जी की कविता 'प्रथम नागरिक हैं पेड पृथ्वी पर' पढी. कविता का विषय अतयंत ही समयानुकूल हैं. कविता ने पृथ्वी की अपने पहले नागरिक की अवहेलना व दैन्य अवस्था पर वेदना को बखूबी दर्शाया है. श्री सुशील जी इस पर्यावरण प्रिय सोच के लिये साधुवाद के पात्र हैं.
    वाचस्पति पाण्डेय

    जवाब देंहटाएं
  3. सदा अच्‍छा अच्‍छा
    गरल की किसी को चाह नही
    वैसे मिलती किसी को ऐसी राह नहीं
    अच्‍छे दिनों को मिलती वाह है सदा
    करना चाहता कभी कोई आह नहीं
    तो अहा करने के कार्य कीजिए
    पर्यावरण तो बिगाड़ रहे हैं
    आप मैं यानी हम सब
    तो ऐसी समस्‍याओं से जूझने के लिए
    सदा तैयार रहिए
    नहीं रहेंगे तैयार
    तब भी समस्‍याएं बनेंगी आपकी यार।

    जवाब देंहटाएं
  4. इस भीषण दु:ख से कि
    अपने अंचल में बसे
    जिस प्रथम नागरिक--
    "पेड़" का वरण किया उसने,
    उन अनगिन पेड़ों की
    नित्य हत्यायें होने लगी हैं
    सृष्टि की सबसे सभ्य प्रजाति-
    मानव के द्वारा,

    और जंगल दिन-दिन
    बिलाने लगे हैं
    हरीतिमा भी मिटने लगी है
    पृथ्वी से धीरे-धीरे।

    शायद धरती अपने को विधवा
    महसूस करने लगी है अब।

    वेदना का प्रभावी प्रस्तुतिकरण।

    जवाब देंहटाएं
  5. पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होना आवश्यक है। कविता अच्छी है।

    जवाब देंहटाएं
  6. वाह भाई सुशील जी, आखिर आपने भी पेड़ पर कविता लिख ही डाली और वह भी एकदम नये अंदाज में । बहुत खूब। कविता बहुत कसी हुई और भावपूर्ण बन पड़ी है।

    जवाब देंहटाएं
  7. और जंगल दिन-दिन
    बिलाने लगे हैं
    हरीतिमा भी मिटने लगी है
    पृथ्वी से धीरे-धीरे।

    शायद धरती अपने को विधवा
    महसूस करने लगी है अब।

    धरती के प्रति एसी संवेदना की नितांत आवश्यकता है। चित्र में दिख रही हरीतिमा अब कहाँ दीखती है?

    जवाब देंहटाएं
  8. सुशील जी पिता पेड और माता धरती के रूप में देखती आपकी कविता बहुत अच्छी बन पडी है। कविता वर्णनात्मक हो गयी है और अपने भीतर डुबोने की जगह सीधे बात करती हुई प्रतीत होती है।

    जवाब देंहटाएं
  9. सुशील जी मेरा परसेप्शन भी इसे ले कर अनिल जी से मिलता जुलता है। आपकी परिकल्पना में पेड धरती के पति हो जाते हैं फिर नागरिक भी साथ में कहना बिम्ब में भ्रम की स्थिति लाता है। शीर्षक बदला जा सकता है।

    जवाब देंहटाएं
  10. गजब का चिंतन .. गजब का लेखन .. पृथ्‍वी के सुहागन बनने से लेकर विधवा होने तक की कहानी की बहुत सुंदर अभिव्‍यक्ति !!

    जवाब देंहटाएं
  11. सुशील भाई की यह कविता महज पर्यावरण की चिंता को लेकर ही नहीं है, यह इस चिंता से आगे भी जाती है। एक बेहद खूबसूरत कविता है, अपने भाव, विचार और नए बिम्ब की वजह से। कविता में जिस रिद्म(लय) की बात की जाती है, वह रिद्म इसमें बखूबी देखा जा सकता है। सुशील जी की कविताओं में इधर जो परिपक्वता दिखाई देने लगी है, वह काबिलेगौर है। कविता में नई बात नए ढ़ंग से कहने वाले कवि ही समकालीन कविता के परिदृश्य में टिक पाएंगे, ऐसा मेरा मानना है। सुशील जी को बधाई !

    जवाब देंहटाएं
  12. "प्रथम नागरिक हैं पेड़ पृथ्वी पर"
    अच्छी परिकल्पना, सुन्दर रचना।
    सुशील कुमार जी को बधाई!
    साहित्य-शिल्पी का आभार!

    जवाब देंहटाएं
  13. एक नागरिक क्या पति, पिता या अन्य मानवीय रिश्तों की परिधि से विच्छिन्न हो जाते हैं? एक ही कविता में अनेक बिम्ब और उपमाएँ तो होती ही हैं... और भी बड़े कवियों की कवितायें देख लें। बड़े कवियों ने तो एक बात पर अनेकानेक बिम्ब डाल रखे हैं अपनी कविता में। वैसे पाठक की अपनी समझ पर मुझ जैसे कवि को उंगलि उठाने का कोई अधिकार नहीं,उनको फैसला करने का पूरा हक़ है, इसलिये मैं प्रेमवश ही आपसे निवेदन कर सकता हूँ।

    जवाब देंहटाएं
  14. sushil ji bahut hi aacha likha hai aapne badhiya savikar kare.


    insan ki tadat hi itni badh gai hai or unki suvidhao ko dekhte hue ye sab ho raha hai, hum to fir bhi kuch khaa rahe hai kuch sahi to kuch glat lekin kiya aane wali pidhi wo sab khaa payegi jo aaj hum khaa rahe hai.

    hum sab ko mil kar hi kuch sochna hoga.

    जवाब देंहटाएं
  15. बहुत ही गहरी भावाव्यक्ति......वर्तमान की स्थितियों को देखते हुए पर्यावरण के प्रति ऎसी संवेदनशीलता अति आवश्यक दिखाई देती है!!!

    जवाब देंहटाएं
  16. आदरणीय सुशील जी की कविता समय की आवश्यकता है। प्रकृति का हमने इतना ह्रास कर दिया है कि अब कविताओं में प्रकृति विषय बनती ही नहीं। हरियाली ही नहीं है तो "सतपुडा के घने जंगल" जैसी रचनाओं का भी अस्तित्व आज की कलम से नहीं है और न ही पंत की प्रकृति विषयक दार्शनिकता जैसा कुछ पठनीय है अब।

    ..लेकिन सुशील जी हमेशा ही संवेदन शील रहे हैं। दवित आदिवासी उनकी कविता का स्वर बनते हैं तो ह्रास होती प्रकृति के प्रति उनका संवेदित होना भी स्वाभाविक है।

    रचना में बिम्ब की उलझन भी नहीं है। रचना गहरी है और प्रभावित करती है।

    जवाब देंहटाएं
  17. कविता संदेश देती है। सफल रचना। पेंटिंग भी अच्छी है।

    जवाब देंहटाएं
  18. Very sensitive poem regarding enviromentals subjects with new theme. I like it.

    जवाब देंहटाएं
  19. इस कविता का शीर्षक हीं एक मुकम्मल कविता है...सुशील भाई ने इस कविता मॆं पृथ्वी के प्रति अपने प्रेम को इजहार किया, साथ ही आमजन को दायित्व बोध का एहसास भी कराया, उनकी सोच व सक्रियता को नमन है...।

    जवाब देंहटाएं
  20. जड़ से कट जाने पर भी पेड़ जमीन से जुड़ा होता है, उसका अस्तित्व धरती के बिना अधूरा है .....यही अंतर है पेड़ और मनुष्य में...

    उम्दा सोच...बेहतरीन रचना
    सुनीता

    जवाब देंहटाएं
  21. सुशील जी आपकी कविता का भाव सराहनीय है। पर मुझे लगता है आपने कविता डालने में थोड़ी जल्‍दबाजी कर दी। पहली बात तो कहीं आप पेड़ कह रहे हैं कहीं पेड़ों । दूसरी बात आप बिम्‍ब वही ले रहे हैं,जिन पर आज की तारीख में बहुत सवाल हैं। पृथ्‍वी को आप स्‍त्री का बिम्‍ब देकर बेचारी बना रहे हैं। यह पृथ्‍वी के लिए तो शायद ठीक हो पर क्‍या स्‍त्री के लिए ठीक है। यह सही है कि स्‍त्री और पुरूष एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। पर क्‍या सब कुछ पूरा होता है। अधूरेपन में भी एक खूबसूरती होती है। जीवन होता है। सुशील जी आपसे मेरा आग्रह है पेड़ों से नंगी होती इस पृथ्‍वी के लिए कुछ और बिम्‍ब गढ़ें जो सचमुच प्रभावकारी हों। शुभकामनाएं। इस कविता को अगर इस तरह ही रखना है तब भी कसावट और संपादन की आवश्‍यकता है।

    जवाब देंहटाएं
  22. आदरणीय भाई राजेश उत्साही जी ने मेरी इस कविता पर जो बेबाक़ टिप्पणी दी है, उसका कर्ज उतारना जरुरी है मेरे लिये। मैं अपनी बात आधुनिक कविता के मील-स्तंभ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक चर्चित लघु-कविता को केन्द्र में रखकर करना करना चाहता हूँ। कविता का शीर्षक है -
    खरोंच-
    अब वह खरोंच सूख गयी है
    खुरंट जम गया है,
    थोड़ी देर बाद
    आत्मा में फिर वही चिकनाई आ जाएगी।

    हम फिर कँटीली झाड़ियों में घुसेंगे
    यह देखने कि घोंसलों में
    नवजात चिड़ियों के पंख
    निकल आए या नहीं,
    उनकी आवाज कितनी खुली है।

    एक चहकती रंगीन कौंध
    मेरे उपर से गुज़र जाए
    फिर मैं यहाँ से एक झरना बन बह जाऊंगा।

    -["जंगलका दर्द" कृति की पृष्ठ-संख्या- 56 पर]

    अब ध्यान दिया जाय तो सर्वेश्वर दयाल जी को उत्साही जी के अनुसार इस कविता के संपादन की आवश्यकता है क्योंकि कविता में पहले "हम" आया और वह फिर "मैं" में बदल गया।
    दूसरा उदाहरण- "एक लोकप्रिय गीत है किसी बड़े गीतकार की- तु गंगा की मौज मैं जमुना का धारा..."

    सब जानते हैं कि धारा तो स्त्रींलिंग है पर क्या करे बेचारा गीतकार,उसे उत्साही जी जैसे दो-चार पाठक या श्रोता मिल जाय तो गीतकार से ज्यादा संगीतकार को परेशानी हो जायेगी क्योंकि उसे धुन बनाना पड़ता है।

    पंत,निराला,दिनकर,प्रसाद ने अनेकानेक स्थानों पर कविता में वैयाकरणिक नियमों की अवहेलना की। पर मैं बड़ा कवि नहीं ,न ही स्त्रीलिंग को पुलिंग बनाकर यहां प्रस्तुत किया है।

    दूसरी बात ,उनका कहना है कि -"पृथ्‍वी को आप स्‍त्री का बिम्‍ब देकर बेचारी बना रहे हैं। " तो क्या उसे पुरुष बना दूँ? स्त्री के बिम्ब में बेचारगी जैसी बात कहां से आयी?

    फिर उत्साही जी कहते हैं कि "यह सही है कि स्‍त्री और पुरूष एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। पर क्‍या सब कुछ पूरा होता है। अधूरेपन में भी एक खूबसूरती होती है। सुशील जी आपसे मेरा आग्रह है पेड़ों से नंगी होती इस पृथ्‍वी के लिए कुछ और बिम्‍ब गढ़ें जो सचमुच प्रभावकारी हों। "

    भईया ,अब तक तो आपकी कविता कहीं नहीं पढ़ी, अत: विनम्रता से अनुरोध करना चाहता हूँ कि अपने तुच्छ ज्ञान के आधार पर आपसे बात नहीं कर पाऊंगा। आप अपनी कुछ चुनिंदा कवितायें मेरे ईमेल पर भेज दें ताकि मैं भी उनसे कुछ सीख-सबक ले लूँ।
    आपकी टिप्पणी के बाद पूरी कविता मैंने ध्यान से दुबारा पढ़ी। दो बार "पेड़" शब्द आये हैं बाकी जगह "पेडों"। मगर सब जगह बहुवचन में प्रयुक्त हुए हैं। कहीं एकवचन नहीं, ध्यान देने की बात है और लय का सवाल है। उत्साही जी, मैं तो आपकी व्याकरण- कक्षा का छात्र बन ही जाऊंगा पर कविता में लय पर मेरा आप एक फालतु आलेख पढ़ लें,लिंक यह रहा-सृजनगाथा
    बस मात्र किल्क करने की जरुरत है।

    वैसे कवियों को इस तरह मंच पर आकर व्क्तव्य देना गरिमा के अनुकूल नहीं ,पर बात को विमर्श तक पहुंचाना भी जरुरी है।

    जवाब देंहटाएं
  23. कविता अच्छी है। कविता के सही समालोचक पाठक ही होते है इस लिये सुशील जी आपका स्पष्टीकरण अच्छा नहीं लगा। यह विमर्श के रास्ते बंद करता है।

    जवाब देंहटाएं
  24. जवाब दर सवाल है

    भाई सुशील जी ने मेरी टिप्‍पणी पर जो जवाब दिया है, मैं भी उसके आलोक में कुछ कहना चाहता हूं। मेरा जवाब नीचे उनकी टिप्‍पणी में कोष्‍टक के अंदर है। मेरा जवाब पढ़ने से पहले उनकी उक्‍त कविता मेरे नजरिए से भी पढें। पूरी टिप्‍पणी तीन या चार टुकड़ों में है।

    --
    ज्‍यों ज्‍यों

    ठंडी होती गयी धरती

    त्‍यों-त्‍यों

    पेड़ बसता गया उसमें

    धरती

    को पेड़

    ने अपने अंक में

    भर लिया

    धीरे-धीरे

    पेड़ ने

    धरती

    के

    पर्वतों को चूमा

    जी भर स्‍नेह

    दिया घाटियों को



    रजस्‍वला

    धरती

    बहने लगी

    नदियों में

    जलने लगी

    स़ृजन की तृषाग्नि में

    तो पेड़ ने

    धरती की कोख में

    छोड़ दिए

    अपने वंश बीज हौले से



    धरती से बन

    गया पेड़ का अटूट संबंध

    धरती ने धारण

    किया पेड़ को



    धरती ने

    अपने आंचल में

    खिलाये असंख्‍य पौधे

    सारी धरती

    खिलखिला उठी

    उनकी हरियाली से

    उसने जगह दी अपने में

    समस्‍त प्राणियों को

    सिखाया सबको मिलजुल कर रहना



    अफसोस कि

    धरती टूट रही है

    हो रही है तार-तार

    इस भीषण दुख से

    कि वह हो रही है

    संतान विहीन धीरे-धीरे



    उसकी

    सृष्टि का सबसे सभ्‍य

    नागरिक ही

    कर रहा है उसे नष्‍ट



    धरती

    फिर

    पेड़ की प्रतीक्षा में है

    कि आए वह

    और भर ले

    अपने अंक में

    फिर से हो वह हरी भरी

    जवाब देंहटाएं
  25. आदरणीय भाई राजेश उत्साही जी ने मेरी इस कविता पर जो बेबाक़ टिप्पणी दी है, उसका कर्ज उतारना जरुरी है मेरे लिये।( अरे भैया कुछ दिन तो कर्ज चढ़ा रहने देते। मैं ब्‍याज तो नहीं मांगता। वाह सुशील भाई यह भी खूब रही कि पहले तो दो बार आपने चेट बाक्‍स में आकर आग्रह किया कि साहित्‍य शिल्‍पी में आकर आपकी कविता पढूं और उसकी ‘खामियां’ बताऊं और जब मैंने ईमानदारी से यह किया तो आप आगबबूला उठे। अपने चेट बाक्‍स में देख लें कि आपने ‘खामियां’ शब्‍द का उपयोग किया है या नहीं। मैंने जवाब में यह भी कहा था कि केवल खामियां ही नहीं ‘खूबियां’ भी बताऊंगा। अफसोस कि विचार के अलावा मुझे उसमें कोई खूबी नहीं दिखी।–राजेश उत्‍साही)

    मैं अपनी बात आधुनिक कविता के मील-स्तंभ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक चर्चित लघु-कविता को केन्द्र में रखकर करना करना चाहता हूँ। कविता का शीर्षक है -
    खरोंच-
    अब वह खरोंच सूख गयी है
    खुरंट जम गया है,
    थोड़ी देर बाद
    आत्मा में फिर वही चिकनाई आ जाएगी।

    हम फिर कँटीली झाड़ियों में घुसेंगे
    यह देखने कि घोंसलों में
    नवजात चिड़ियों के पंख
    निकल आए या नहीं,
    उनकी आवाज कितनी खुली है।

    एक चहकती रंगीन कौंध
    मेरे उपर से गुज़र जाए
    फिर मैं यहाँ से एक झरना बन बह जाऊंगा।

    -["जंगलका दर्द" कृति की पृष्ठ-संख्या- 56 पर]

    अब ध्यान दिया जाय तो सर्वेश्वर दयाल जी को उत्साही जी के अनुसार इस कविता के संपादन की आवश्यकता है क्योंकि कविता में पहले "हम" आया और वह फिर "मैं" में बदल गया।
    दूसरा उदाहरण- "एक लोकप्रिय गीत है किसी बड़े गीतकार की- तु गंगा की मौज मैं जमुना का धारा..."

    सब जानते हैं कि धारा तो स्त्रींलिंग है पर क्या करे बेचारा गीतकार,उसे उत्साही जी जैसे दो-चार पाठक या श्रोता मिल जाय तो गीतकार से ज्यादा संगीतकार को परेशानी हो जायेगी क्योंकि उसे धुन बनाना पड़ता है।

    पंत,निराला,दिनकर,प्रसाद ने अनेकानेक स्थानों पर कविता में वैयाकरणिक नियमों की अवहेलना की। पर मैं बड़ा कवि नहीं ,न ही स्त्रीलिंग को पुलिंग बनाकर यहां प्रस्तुत किया है।( सुशील जी सर्वेश्‍वर दयाल जी की कविता का जिक्र आपने क्‍यों किया यह तो मेरी समझ में ही नहीं आया। मैं तो आपकी कविता की बात कर रहा था। यह वही बात हुई कि हम कहें खेत की वे सुने खलियान की। मैं तो पेड़ और पेड़ों की बात कर रहा था। ‘हम’ और ‘मैं’ तो कहीं है नहीं। शुरू में आप कविता में कहते हैं पेड़ बसते गए पेड़ों ने धरती को अंकों में भर लिया । पेड़ों,अंकों सब बहुवचन हैं। यानी एक से ज्‍यादा हैं। फिर अगली ही पंक्ति में उसने यानी एकवचन हो जाता है। थोड़ा और आगे जाकर आप कहते हैं जब रजस्‍वला हो गई तो वृक्षों ने उसकी कोख में । यहां आप फिर आप बहुवचन ले आए। थोड़ा और आगे जाकर फिर आप कहते हैं अटूट संबंध बन गया उसका यहां फिर एकवचन। यह बहुवचन और एकवचन इसलिए भी महत्‍वपूर्ण हो जाता है कि आप पृथ्‍वी और पेड़ में जो ‘संबंध’ स्‍थापित कर रहे हैं उस ‘संबंध’ में एक स्‍त्री का संबंध एक पुरूष से या एक पुरूष का संबंध एक स्‍त्री से होना ही आदर्श माना जाता है। आगे जाकर तो आप ‘पितृ पेड़ों’ कहने लगते हैं। यानी यहां भी बहुवचन। सुशील जी मैं कविता का बहुत बड़ा जानकार नहीं हूं। पर इतना जानता हूं कि कविता में बिम्‍ब को स्‍थापित करना पड़ता है और फिर उसे अंत तक निभाना भी पड़ता है। अन्‍यथा मुझ जैसे पाठक तो भ्रमित होंगे ही। अगर आपके बिम्‍ब ही गले नहीं उतर रहे तो जिस विचार के लिए आपने कविता रची है वह पाठक के गले कैसे उतरेगा।- राजेश उत्‍साही)

    जवाब देंहटाएं
  26. आदरणीय भाई राजेश उत्साही जी ने मेरी इस कविता पर जो बेबाक़ टिप्पणी दी है, उसका कर्ज उतारना जरुरी है मेरे लिये।( अरे भैया कुछ दिन तो कर्ज चढ़ा रहने देते। मैं ब्‍याज तो नहीं मांगता। वाह सुशील भाई यह भी खूब रही कि पहले तो दो बार आपने चेट बाक्‍स में आकर आग्रह किया कि साहित्‍य शिल्‍पी में आकर आपकी कविता पढूं और उसकी ‘खामियां’ बताऊं और जब मैंने ईमानदारी से यह किया तो आप आगबबूला उठे। अपने चेट बाक्‍स में देख लें कि आपने ‘खामियां’ शब्‍द का उपयोग किया है या नहीं। मैंने जवाब में यह भी कहा था कि केवल खामियां ही नहीं ‘खूबियां’ भी बताऊंगा। अफसोस कि विचार के अलावा मुझे उसमें कोई खूबी नहीं दिखी।–राजेश उत्‍साही)

    मैं अपनी बात आधुनिक कविता के मील-स्तंभ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक चर्चित लघु-कविता को केन्द्र में रखकर करना करना चाहता हूँ। कविता का शीर्षक है -
    खरोंच-
    अब वह खरोंच सूख गयी है
    खुरंट जम गया है,
    थोड़ी देर बाद
    आत्मा में फिर वही चिकनाई आ जाएगी।

    हम फिर कँटीली झाड़ियों में घुसेंगे
    यह देखने कि घोंसलों में
    नवजात चिड़ियों के पंख
    निकल आए या नहीं,
    उनकी आवाज कितनी खुली है।

    एक चहकती रंगीन कौंध
    मेरे उपर से गुज़र जाए
    फिर मैं यहाँ से एक झरना बन बह जाऊंगा।

    -["जंगलका दर्द" कृति की पृष्ठ-संख्या- 56 पर]

    अब ध्यान दिया जाय तो सर्वेश्वर दयाल जी को उत्साही जी के अनुसार इस कविता के संपादन की आवश्यकता है क्योंकि कविता में पहले "हम" आया और वह फिर "मैं" में बदल गया।
    दूसरा उदाहरण- "एक लोकप्रिय गीत है किसी बड़े गीतकार की- तु गंगा की मौज मैं जमुना का धारा..."

    सब जानते हैं कि धारा तो स्त्रींलिंग है पर क्या करे बेचारा गीतकार,उसे उत्साही जी जैसे दो-चार पाठक या श्रोता मिल जाय तो गीतकार से ज्यादा संगीतकार को परेशानी हो जायेगी क्योंकि उसे धुन बनाना पड़ता है।

    पंत,निराला,दिनकर,प्रसाद ने अनेकानेक स्थानों पर कविता में वैयाकरणिक नियमों की अवहेलना की। पर मैं बड़ा कवि नहीं ,न ही स्त्रीलिंग को पुलिंग बनाकर यहां प्रस्तुत किया है।( सुशील जी सर्वेश्‍वर दयाल जी की कविता का जिक्र आपने क्‍यों किया यह तो मेरी समझ में ही नहीं आया। मैं तो आपकी कविता की बात कर रहा था। यह वही बात हुई कि हम कहें खेत की वे सुने खलियान की। मैं तो पेड़ और पेड़ों की बात कर रहा था। ‘हम’ और ‘मैं’ तो कहीं है नहीं। शुरू में आप कविता में कहते हैं पेड़ बसते गए पेड़ों ने धरती को अंकों में भर लिया । पेड़ों,अंकों सब बहुवचन हैं। यानी एक से ज्‍यादा हैं। फिर अगली ही पंक्ति में उसने यानी एकवचन हो जाता है। थोड़ा और आगे जाकर आप कहते हैं जब रजस्‍वला हो गई तो वृक्षों ने उसकी कोख में । यहां आप फिर आप बहुवचन ले आए। थोड़ा और आगे जाकर फिर आप कहते हैं अटूट संबंध बन गया उसका यहां फिर एकवचन। यह बहुवचन और एकवचन इसलिए भी महत्‍वपूर्ण हो जाता है कि आप पृथ्‍वी और पेड़ में जो ‘संबंध’ स्‍थापित कर रहे हैं उस ‘संबंध’ में एक स्‍त्री का संबंध एक पुरूष से या एक पुरूष का संबंध एक स्‍त्री से होना ही आदर्श माना जाता है। आगे जाकर तो आप ‘पितृ पेड़ों’ कहने लगते हैं। यानी यहां भी बहुवचन। सुशील जी मैं कविता का बहुत बड़ा जानकार नहीं हूं। पर इतना जानता हूं कि कविता में बिम्‍ब को स्‍थापित करना पड़ता है और फिर उसे अंत तक निभाना भी पड़ता है। अन्‍यथा मुझ जैसे पाठक तो भ्रमित होंगे ही। अगर आपके बिम्‍ब ही गले नहीं उतर रहे तो जिस विचार के लिए आपने कविता रची है वह पाठक के गले कैसे उतरेगा।- राजेश उत्‍साही)

    जवाब देंहटाएं
  27. दूसरी बात ,उनका कहना है कि -"पृथ्‍वी को आप स्‍त्री का बिम्‍ब देकर बेचारी बना रहे हैं। " तो क्या उसे पुरुष बना दूँ? स्त्री के बिम्ब में बेचारगी जैसी बात कहां से आयी?( पुरुष बनाने की बात तो मैंने कही ही नही। यह आप अर्थ का अनर्थ क्‍यों कर रहे हैं। स्‍त्री के बिम्‍ब में बेचारगी इसलिए कि अगर आप स्‍त्री का बिम्‍ब नहीं लें तो विधवा कैसे कहेंगे। और विधवा तो हमारे समाज में बेचारगी का ही प्रतीक माना जाता है न।-राजेश उत्‍साही )

    फिर उत्साही जी कहते हैं कि "यह सही है कि स्‍त्री और पुरूष एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। पर क्‍या सब कुछ पूरा होता है। अधूरेपन में भी एक खूबसूरती होती है। सुशील जी आपसे मेरा आग्रह है पेड़ों से नंगी होती इस पृथ्‍वी के लिए कुछ और बिम्‍ब गढ़ें जो सचमुच प्रभावकारी हों। "

    भईया ,अब तक तो आपकी कविता कहीं नहीं पढ़ी, अत: विनम्रता से अनुरोध करना चाहता हूँ कि अपने तुच्छ ज्ञान के आधार पर आपसे बात नहीं कर पाऊंगा। आप अपनी कुछ चुनिंदा कवितायें मेरे ईमेल पर भेज दें ताकि मैं भी उनसे कुछ सीख-सबक ले लूँ।( सुशील भाई आपके परिचय में मैंने पढ़ा कि आप शिक्षक हैं। सुशील भाई शिक्षक होने के नाते यह आप अच्‍छी तरह जानते होंगे कि औरों का काम देखकर केवल प्रेरित हुआ जा सकता है। उससे सीखा नहीं जा सकता। सीखने के लिए खुद करना होता है और करके देखना होता है। औरों की अच्‍छी रचनाएं देखकर आप अच्‍छा लिखना नहीं सीख सकते। यह सीखना तो आपके अभ्‍यास से ही आएगा। वह भी आपकी स्‍वयं की रचना में। मैंने कविताएं लिखीं हैं। पर कोई बहुत बड़ा तीर नहीं मारा। आप चाहें तो मेरे ब्‍लाग गुल्‍लक पर जाकर पढ़ सकते हैं। पर सुशील भाई एक बात और कहना चाहता हूं कि जरूरी नहीं है कि जो आपकी कविता की आलोचना कर रहा हो उसे कविता लिखना आता ही हो। वह आखिर पाठक है, उसे आपको इतना अधिकार तो देना ही पड़ेगा। मैंने भी कवि के नाते नहीं पाठक या आलोचक पाठक के नाते अपनी टिप्‍पणी दी है। -राजेश उत्‍साही)

    आपकी टिप्पणी के बाद पूरी कविता मैंने ध्यान से दुबारा पढ़ी। दो बार "पेड़" शब्द आये हैं बाकी जगह "पेडों"। मगर सब जगह बहुवचन में प्रयुक्त हुए हैं। कहीं एकवचन नहीं, ध्यान देने की बात है और लय का सवाल है। उत्साही जी, मैं तो आपकी व्याकरण- कक्षा का छात्र बन ही जाऊंगा (माफ करें सुशील भाई मैंने जैसे पहले कहा कि मैं कविता का बहुत बड़ा जानकार नहीं हूं। और व्‍याकरण का तो बिलकुल नहीं। पर मैं आपसे फिर से अनुरोध करता हूं कि अपनी कविता को ध्‍यान से पढ़ें और ठंडे दिमाग से(ठंढे से नहीं। पृथ्‍वी ठंडी हो रही थी ठंढी नहीं।)। अगर आप पेड़ को बहुवचन में उपयोग कर रहे हैं तो ‘उसने’ धरती यौवना होगा या ‘उन्‍होंने’ धरती यौवना । इसी तरह आगे अटूट संबंध बन गया ‘उसका’ या ‘उनका’। -राजेश उत्‍साही ) कविता में लय पर मेरा आप एक फालतु आलेख पढ़ लें,लिंक यह रहा-सृजनगाथा
    बस मात्र किल्क करने की जरुरत है। ( शुक्रिया,जब ‘फालतू समय होगा तो आपका यह ‘फालतु’ लेख अवश्‍य पढ़ लूंगा।–राजेश उत्‍साही)

    वैसे कवियों को इस तरह मंच पर आकर व्क्तव्य देना गरिमा के अनुकूल नहीं ,पर बात को विमर्श तक पहुंचाना भी जरुरी है। ( क्षमा करें कवि कोई आसमान से नहीं टपकता है। न उसमें लाल जड़े होते हैं। वह भी एक सामान्‍य आदमी ही होता है। मैं भी कवि हूं। और उससे आगे बढ़कर अगर आप सार्वजनिक मंच पर हैं तो आपको अपनी बात कहने का अधिकार तो होना ही चाहिए। हां सुशील भाई एक बात जरूर है कि मुझे जवाब देना तो आपकी गरिमा के अनुकूल ही लगा लेकिन क्षमा करें आपका टोन और भाषा मुझे कतई आपकी गरिमा के अनुकूल नहीं लगी। अब जब गरिमा की बात हो ही रही है तो यह भी कह दूं कि इतने गंभीर विचार को आप इतने लिजलिजे और यौनिक बिम्‍बों के साथ लेकर क्‍यों आए। अंकों में भर लिया,पर्वत-उरोजों को चूमा,नदियों-घाटियों को जी भर के प्‍यार किया,रजस्‍वला हो गई,तृषाग्नि में जलने लगी। मुझे तो यह भी आपकी गरिमा के अनुकूल नहीं लगा।–राजेश उत्‍साही)

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  28. kafi sunder kavita.... shabd nahi hai, kya kahu?
    prakirti & prithvi ke saath humlogon ne jo kuchh kiya hai vastav me Dharti ko "vidhva" babane ke barabar hai..

    "और जंगल दिन-दिन
    बिलाने लगे हैं
    हरीतिमा भी मिटने लगी है
    पृथ्वी से धीरे-धीरे।

    शायद धरती अपने को विधवा
    महसूस करने लगी है अब।"

    dhanyavad jandar rachna ke liye...

    Jitendra.

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  29. बहूत ही सुन्दर ........ लाजवाब कल्पना है .....

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