
वर्षों तक
बार-बार
आता रहा एक ही सपना
नदी के तटबंधों पर
हाथों से सहलाता हूँ
उभरी तंरगें
नदी देती है खुला निमन्त्रण
पर बल खाती तरंगों पर
तैरने से घबराता हूं
डरते-डरते
गहरे में उतरता हूं
और जल के आवेग की तालों बीच
नदी पर तैरते हुए दूर निकल जाता हूं
तटों के बंधन से मुक्त नदी
मंझधार में
समूचा समेट लेती है मुझे
डूबते-डूबते
शिथिल होता है भुजाओं का पौरुष
नदी पता नहीं
कहां लेती होगी करवट
टूटे सपने की डोर पकड़े
बदलता हूं करवट बिस्तर पर
6 टिप्पणियाँ
डूबते-डूबते
जवाब देंहटाएंशिथिल होता है भुजाओं का पौरुष
नदी पता नहीं
कहां लेती होगी करवट
टूटे सपने की डोर पकड़े
बदलता हूं करवट बिस्तर पर
प्रभावी कविता।
बेहद प्रभावशाली रचना
जवाब देंहटाएंशब्द और भाव का बेजोड़ संगम..
जवाब देंहटाएंसुंदर कविता....
बहुत अच्छी कविता, बधाई।
जवाब देंहटाएंमंत्रमुग्ध करने वाली कविता।
जवाब देंहटाएंनदी पता नहीं
जवाब देंहटाएंकहां लेती होगी करवट
टूटे सपने की डोर पकड़े
बहुत सुंदर..
बधाई
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